गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

समस्त विश्व को वीरता का र्माग दिखाने वाली। शौर्य, तेज, दया, करुणा और देशभक्ती का जज़बा जिसके
Rani Laxmibai Essay in Hindi रानी लक्ष्मीबाई
वीरांगना – रानी लक्ष्मीबाई
रग रग में भरा हुआ था। माँ की मनु, बाजीराव की छबीली, सुभद्रा कुमारी चौहान की खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी। हम सब की प्रेरणास्रोत और चहेती रानी लक्ष्मीबाई का जन्म19 नवम्बर , 1835 को  काशी में हुआ था।
माता भागीरथी देवी एवं पिता मोरोपंत के श्रेष्ठ संस्कारों से बालिका मनु का मन और ह्रदय विविध प्रकार के उच्च और महान उज्जवल गुणों से सिंचित हुआ था। बचपन में ही माँ से विविध प्रकार की धार्मिक, सांस्कृतिक और शौर्यपूर्ण गाथाएं सुनकर मनु के मन में स्वदेश प्रेम की भावना और वीरता की उच्छल तरंगे हिलोरे लेने लगीं थी। इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था।
एक बार बचपन में ही काशी के घाट की सीढीयों पर वो बैठी हुई थी तभी कुछ अंग्रेज उस रास्ते से नीचे उतर रहे थे। मनु को रास्ते से हटने के लिये कहा किन्तु वो वहीं दृणनिश्चयी की तरह बैठी रहीं अंग्रेजों के प्रति उनके मन में रौष बचपन से ही था। अंग्रेज उन्हे बच्ची समझ कर दूसरी तरफ से निकल गये। उन्हे क्या पता था कि ये बच्ची उनके वजूद को मिटाने का दम रखती है।
लगभग पाँच वर्ष की अल्प आयु में ही माँ का साथ छूट गया तद्पश्चात  पिता मोरोपंत तांबे जो एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा  बाजीराव द्वितीय के सेवक थे, मनु को बिठूर ले गये। यहीं पर मनु ने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे, जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से ‘छबीली’ बुलाते थे।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
मनु का विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु विधाता ने तो उन्हे किसी खास प्रयोजन से धरती पर भेजा था। पुत्र की खुशी वो ज्यादा दिन तक न मना सकीं दुर्भाग्यवश शिशु तीन माह का होतो होते चल बसा। गंगाधर राव ये आघात सह न सके। लोगों के आग्रह पर उन्होने एक पुत्र गोद लिया जिसका नाम दामोदर राव रक्खा गया। गंगाधर की मृत्यु के पश्चात जनरल डलहौजी ने दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ये कैसे सहन कर सकती थीं। उन्होने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध का बिगुल बजा दिया और घोषणा कर दी कि मैं अपनी झांसी अंग्रेजों को नही दूंगी।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
इस तरह सन् सत्तावन में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुवात रानीलक्ष्मी बाई के द्वारा हुई। स्वतंत्रता की ये आग पूरे देश में धधक उठी। रानी ने ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिये युद्ध का शंखनाद किया जिससे अंग्रेजों के पैर उखङने लगे। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। मुन्दर और झलकारी सखियों ने भी साहस के साथ हर पल रानी का साथ दिया था। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए। रानी ने अपना घोड़ा दौड़ाया पर दुर्भाग्य से मार्ग में एक नाला आ गया। घोड़ा नाला पार न कर सका, तभी अंग्रेज़ घुड़सवार वहाँ आ गए। एक ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया जिससे रानी बुरी तरह से घायल हो गईं, उसी समय दूसरे गोरे सैनिक ने संगीन से उनके हृदय पर वार कर दिया। अत्यन्त घायल होने पर भी रानी अपनी तलवार चलाती रहीं और उन्होंने दोनों आक्रमणकारियों का वध कर डाला। फिर वे स्वयं भूमि पर गिर पड़ी। पठान सरदार गौस ख़ाँ अब भी रानी के साथ था। उसका रौद्र रूप देख कर गोरे भाग खड़े हुए। स्वामिभक्त रामराव देशमुख अन्त तक रानी के साथ थे। उन्होंने रानी के रक्त रंजित शरीर को समीप ही बाबा गंगादास की कुटिया में पहुँचाया। रानी ने व्यथा से व्याकुल हो जल माँगा और बाबा गंगादास ने उन्हें जल पिलाया। वे अपने सम्मान के प्रति सदैव सजग रही, उन्होंने यही कामना की कि यदि वे रणभूमि में लड़ते-लड़ते मृत्यु को वरन करें तब भी उनका शव अंग्रेजों के हाथ न लगे। अदभुत और अद्मय साहस से अंतिम सांस तक युद्ध करने वाली विरांगना ने  अन्त में स्वतंत्रता की बली बेदी पर अपने प्रांण न्यौछावर कर दिये।  बाबा गंगादास ने तुरंत कुटिया को ही चिता बनाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया ताकि अंग्रेज उनको छू भी न सकें। ग्वालियर में आज भी रानी लक्ष्मीबाई की समाधी उनकी गौरवगाथा की याद दिलाती है।
देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई के अप्रतिम शौर्य से चकित अंग्रेजों ने भी उनकी प्रशंसा की थी।लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी “सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय” और “विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक” थीं।
ऐसी विरांगना से आज भी राष्ट्र गर्वित एवं पुलकित है।उनकी देश भक्ती की ज्वाला को काल भी बुझा नही सकता। रानी लक्ष्मीबाई को शब्दों में बाँधा नही जा सकता वो तो पुरे विश्व में अद्मय साहस की परिचायक हैं। उनको शब्दो के माध्यम से याद करने का छोटा सा प्रयास है।भावपूर्ण शब्दाजंली से शत् शत् नमन करते हैं।
“रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,”
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
 जयहिन्द
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मै अपनी झाँसी नहीं दूँगी: हिंदुस्थान की वीरांगना को नमन


विनायक दामोदर सावरकर लिखते है -संसार के सामने दृढ़तापूर्वक कहा गया नहींशब्द बहुत कम आया है | भारत के उदारमना लोगो के मुह से अब तक यही एक शब्द सुनाई देता आया है मै दूँगाकिन्तु लक्ष्मीबाई ने यह विलक्षण जयघोष किया – ‘ मै अपनी झाँसी नहीं दूँगी ‘ | काश यह आवाज भारत के हर मुँह से गूँजी होती
इतिहास के पन्नो मे अमिट एवं हिंदुस्तान की स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 को काशी मे हुआ था। इनके बचपन का नाम मनुबाई था मनुबाई े पिता का नाम मोरोपंत तांबे एवं माता का नाम भगीरथी बाई था। इनके पिता महाराष्ट्र मे बाजीराव पेशवा के यहाँ कार्यरत थे सान 1818 मे जब अंग्रेज़ो ने पेशवा पदवी खत्म  की तो  मोरोपंत तांबे  पेशवा के भाई के साथ बनारस आ गए जबकि पेशवा बिठूर चले गए। पेशवा के भाई की मृत्यु के बाद मोरोपंत भी बिठुर आ गए। चार वर्ष की ही अल्पायु मे मनुबाई की माता का देहांत हो गया॥ बाजीराव पेशवा की कोई संतान नहीं थी अतः उन्होने नाना घोडूपंत नाम के बालक को गोंद ले लिया यही बालक नाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ॥ मनुबाई के बचपन के मित्र नाना थे और इनके पसंद के खेल तलवारबाजी बंदूक चलाना घुड़सवारी कुश्ती। मनुबई बेहद हठी और चंचल बालिका थी एवं इनके शौक बालको एवं योद्धाओं जैसे  थे । इनके सुंदर चेहरे के कारण इन्हे लोग प्यार से छबीली बुलाते थे मगर स्वयं मनुबाई को ये नाम पसंद नहीं था।
झाँसी के प्रकांड विद्वान तात्या दीक्षित एक बार बीठूर  बाजीराव पेशवा से मिलने आए ।मनुबाई को देख झाँसी नरेश एवं मनुबाई के रिश्ते के लिए दीक्षित ने मध्यस्थता की । जब रिश्ता तय हो रहा था उस समय मनुबाई अन्य बालिकाओं से इतर अक्सर इस बात की चर्चा करती रहती की झाँसी की सेना कितनी बड़ी है क्या हम  इस सेना की सहायता से अंग्रेज़ो से अपना राजी वापस ले सकते हैं॥ उनकी इस बात को बाजीराव और उनके पिता मोरोपांत बाल विनोद समझकर भुला देते थे । विवाह की शर्तों पर चर्चा के लिए झासी के राजा एवं बिठूर के पुरोहितो की वार्ता मे निर्णय ये हुआ की विवाह का पूरा खर्च झासी नरेश उठाएंगे और मोरोपांत स्थायी रूप से झसी मे बस जाएंगे तथा उनकी गिनती झाँसी के सरदारो मे होगी।
विवाह के बाद मनुबाई झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के रूप मे प्रसिद्ध हुई । गंगाधर एक निर्दयी शासक के रूप मे आलोकप्रिय होते जा रहे थे उसी समय अङ्ग्रेज़ी कंपनी ने झांसी राज्य को एक संधि करने के लिए विवश किया जिसके अनुसार अङ्ग्रेज़ी सेना झाँसी के खर्चे पर झाँसी मे रहेगी तथा एक क्षेत्र कंपनी के अधिकार मे दे दिया जाएगा । इस समझौते से झाँसी का नुकसान हुआ मगर  गंगाधर को अब शासन के अधिकार को अंग्रेज़ो ने मान्यता दे दी ।
लक्ष्मी बाई को ये पसंद नहीं आया मगर राजी का अधिकार गंगाधर के पास था । साल बाद रानी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई मगर कम के क्रूर पंजो के कारण पुत्र की जल्द मृत्यु हो गयी । राजा का स्वास्थ्य भी गिर रहा था,सन1853 मे रानी ने एक दत्तक पुत्र दामोदर को गोद लेने का प्रयास किया जिससे राजा का स्वास्थ्य सुधरे और झाँसी को वारिस मिले ॥राजा ने कंपनी के पुलिस कप्तान मार्टिन को इस नए परिवर्तन और राजी के उत्तराधिकारी के बारे मे सूचित किया । ठीक उसी समय राजा की तबीयत बिगड़ी और उनका स्वर्गवास हो गया । राजा के स्वर्गवास के समय अंग्रेज़ो ने झाँसी के अतिरिक्त लगभग सारे हिस्सो पर अधिकार कर लिया था अब उनकी कुटिल नजर झाँसी पर थी ॥ नाना ,तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने आते हुए खतरो को भाप कर मृतप्राय हो चुके राजाओं को संगठित करना शुरू किया ।
इसी समय अंग्रेज़ो से नबाब अली बहादुर और खुदाबक्स  नाम के दो सरदारो को अंग्रेज़ो ने अपनी ओर मिला लिया एवं रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को मान्यता न देते हुये झाँसी पर अधिकार का दावा  कर दिया॥ इसी समय भारत मे स्वतन्त्रता संग्राम  मंगल पांडे के विद्रोह से शुरू हो गया ।14 मार्च, 1857 से आठ दिन तक तोपें किले से आग उगलती रहीं।  अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज लक्ष्मीबाई की किलेबंदी देखकर दंग रह गया। रानी रणचंडी का साक्षात रूप रखे पीठ पर दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे भयंकर युद्ध करती रहीं. झांसी की मुट्ठी भर सेना ने रानी को सलाह दी कि वह कालपी की ओर चली जाएं। झलकारी बाई और मुंदर सखियों ने भी रणभूमि में अपना खूब कौशल दिखाया. अपने विश्वसनीय चार-पांच घुड़सवारों को लेकर रानी कालपी की ओर बढ़ीं. अंग्रेज सैनिक रानी का पीछा करते रहे।  कैप्टन वाकर ने उनका पीछा किया और उन्हें घायल कर दिया। 
22 मई, 1857 को क्रांतिकारियों को कालपी छोड़कर ग्वालियर जाना पड़ा।  17 जून को फिर युद्ध हुआ. रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा।  महारानी की विजय हुई, लेकिन 18 जून को ह्यूरोज स्वयं युद्धभूमि में आ डटा।  लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया।  सोनरेखा नाले को रानी का घोड़ा पार नहीं कर सका।  वहीं एक सैनिक ने पीछे से रानी पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और आंख बाहर निकल आई। घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया। रानी के विश्वस्त गुलमुहम्मद और रघुनाथ सिंह रानी को उस हालत मे  बाबा गंगादास की कुटी पर ले गए । वहाँ रामचन्द्र ने रानी को अपनी वर्दी पर लिटाया एवं साफे से उनके सिर का घाव बांध दिया॥ बाबा गंगादास उन्हे देखते ही पहचान गए और बोले "सीता और सावित्री के देश की कन्याएँ हैं ये॥"
बाबा ने रानी के मुह पर गंगाजल डाला तब रानी होश मे आई ॥ एक बार हर हर महादेव का उच्चारण किया और बेहोश हो गयी। दूसरी बार गंगाजल डालने पर रानी ने "ॐ वसुदेवाय नमः" का उच्चारण किया और चिरनिद्रा मे विलीन हो गयी।  ये समय सूर्यास्त का था और "झाँसी का सूर्य  भी अस्त हो चुका था " लकड़िया इतनी नहीं थी रानी और उनकी सहेली मुंदर का दाह संस्कार हो सके अतः बाबा ने अपनी कुटिया उधेड़ लाने को कहा और दोनों शवों का दाह संस्कार किया गया ॥
रानी के सहयोगी रामचन्द्र देशमुख जी उनके पुत्र दामोदर राव  को लेकर दक्षिण की ओर चले गए । जब उन्होने पुनः लौटकर युद्ध किया तो वो भी मारे गए । महारानी की अस्थियाँ पर्णकुटी के प्रांगड़ मे दफना दी गयी .
जब हिंदुस्तान का इस्लामिक स्तम्भ दिल्ली का बादशाह  शेरो शायरी  मे व्यस्त था  उसी समय सुदूर झाँसी में बैठी एक हिन्दू स्त्री सिंह गर्जना करती हुई यह एतिहासिक वाक्य कह रही थी– ” मै अपनी झाँसी नहीं दूगी अपने शब्दो पर कायम रहते हुए  झाँसी की रानी ने अभूतपूर्व वीरता का परिचय दिया और स्वाधीनता संग्राम के हवन कुंड मे अपना जीवन आहूत कर डाला ॥

हिंदुस्थान की इस महान हिन्दू वीरांगना को जन्मदिवस पर शत शत अभिनंदन ॥ 

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