शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

जिज्ञासु बालक

छः साल के बालक अल्बर्ट आइंस्टाइन को जर्मनी के म्यूनिख शहर के सबसे अच्छे स्कूल में भरती किया गया। इन स्कूलों को उन दिनों जिम्नेजियम कहा जाता था और उनकी पढ़ाई दस वर्षों में पूरी होती थी।
इस बालक के शिक्षक उससे बहुत परेशान थे। वे उसकी एक आदत के कारन हमेशा उससे नाराज़ रहते थे – प्रश्न पूछने की आदत के कारण। घर हो या स्कूल, अल्बर्ट इतने ज्यादा सवाल पूछता था कि सामनेवाला व्यक्ति अपना सर पकड़ लेता था। एक दिन उसके पिता उसके लिए, एक दिशासूचक यन्त्र खरीद कर लाये तो अल्बर्ट ने उनसे उसके बारे में इतने सवाल पूछे कि वे हैरान हो गए। आज भी स्कूलों के बहुत सारे शिक्षक बहुत ज्यादा सवाल पूछनेवाले बच्चे को हतोत्साहित कर देते हैं, आज से लगभग १२५ साल पहले तो हालात बहुत बुरे थे।

अल्बर्ट इतनी तरह के प्रश्न पूछता था कि उनके जवाब देना तो दूर, शिक्षक यह भी नहीं समझ पते थे कि अल्बर्ट ने वह प्रश्न कैसे बूझ लिया। नतीजतन, वे किसी तरह टालमटोल करके उससे अपना पिंड छुड़ा लेते।

जब अल्बर्ट दस साल का हुआ तो उसके पिता अपना कारोबार समेटकर इटली के मिलान शहर में जा बसे। अल्बर्ट को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए म्यूनिख में ही रुकना पड़ा।

परिवार से अलग हो जाने के कारण अल्बर्ट दुखी था। दूसरी ओर, उसके सवालों से तंग आकर उसके स्कूल के शिक्षक चाहते थे कि वह किसी और स्कूल में चला जाए। हेडमास्टर भी यही चाहता था। उसके अल्बर्ट को बुलाकर कहा – “यहाँ का मौसम तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। इसीलिए हम तुम्हें लम्बी छुट्टी दे रहे हैं। तबीयत ठीक हो जाने पर तुम किसी और स्कूल में दाखिल हो जाना।”

अल्बर्ट को इससे दुःख भी हुआ और खुशी भी हुई।

अपनी पढ़ाई में अल्बर्ट हमेशा औसत विद्यार्थी ही रहे। प्रश्न पूछना और उनके जवाब ढूँढने की आदत ने अल्बर्ट को विश्व का महानतम वैज्ञानिक बनने में सहायता की। सच मानें, आज भी विश्व में उनके सापेक्षता के सिद्धांत को पूरी तरह से समझनेवालों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है।
(यह कहानी http://hindizen.com से ली गयी..

आइंस्टाइन के उपकरण

कैलटेक (कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) ने अलबर्ट आइंस्टाइन को एक समारोह में आमंत्रित किया। आइंस्टाइन अपनी पत्नी के साथ कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए। उन्होंने माउन्ट विल्सन पर स्थित अन्तरिक्ष वेधशाला भी देखी। उस वेधशाला में उस समय तक बनी दुनिया की सबसे बड़ी अन्तरिक्ष दूरबीन स्थापित थी।
उतनी बड़ी दूरबीन को देखने के बाद श्रीमती आइंस्टाइन ने वेधशाला के प्रभारी से पूछा – “इतनी बड़ी दूरबीन से आप क्या देखते हैं?”

प्रभारी को यह लगा कि श्रीमती आइंस्टाइन का खगोलशास्त्रीय ज्ञान कुछ कम है। उसने बड़े रौब से उत्तर दिया – “इससे हम ब्रम्हांड के रहस्यों का पता लगाते हैं।”

“बड़ी अजीब बात है। मेरे पति तो यह सब उनको मिली चिठ्ठियों के लिफाफों पर ही कर लेते हैं” – श्रीमती आइंस्टाइन ने कहा।

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नाजी गतिविधियों के कारण आइंस्टाइन को जर्मनी छोड़कर अमेरिका में शरण लेनी पड़ी। उन्हें बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों ने अपने यहाँ आचार्य का पद देने के लिए निमंत्रित किया लेकिन आइंस्टाइन ने प्रिंसटन विश्वविद्यालय को उसके शांत बौद्धिक वातावरण के कारण चुन लिया।

पहली बार प्रिंसटन पहुँचने पर वहां के प्रशासनिक अधिकारी ने आइंस्टाइन से कहा – “आप प्रयोग के लिए आवश्यक उपकरणों की सूची दे दें ताकि आपके कार्य के लिए उन्हें जल्दी ही उपलब्ध कराया जा सके।”

आइंस्टाइन ने सहजता से कहा – “आप मुझे केवल एक ब्लैकबोर्ड, कुछ चाक, कागज़ और पेन्सिल दे दीजिये।”

यह सुनकर अधिकारी हैरान हो गया। इससे पहले कि वह कुछ और कहता, आइंस्टाइन ने कहा – “और एक बड़ी टोकरी भी मंगा लीजिये क्योंकि अपना काम करते समय मैं बहुत सारी गलतियाँ भी करता हूँ और छोटी टोकरी बहुत जल्दी रद्दी से भर जाती है।”

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जब लोग आइंस्टाइन से उनकी प्रयोगशाला के बारे में पूछते थे तो वे केवल अपने सर की ओर इशारा करके मुस्कुरा देते थे। एक वैज्ञानिक ने उनसे उनके सबसे प्रिय उपकरण के बारे में पूछा तो आइन्स्टीन ने उसे अपना फाउंटन पेन दिखाया। उनका दिमाग उनकी प्रयोगशाला थी और फाउंटन पेन उनका उपकरण।

(अलबर्ट आइंस्टाइन के बचपन का एक प्रसंग इसी ब्लॉग में यहाँ पढ़ें। उनका चित्र विकिपीडिया से लिया गया है)

आइन्स्टीन के बहुत सारे प्रसंग और संस्मरण

अलबर्ट आइन्स्टीन ने तीन साल का होने से पहले बोलना और सात साल का होने से पहले पढ़ना शुरू नहीं किया। वे हमेशा लथड़ते हुए स्कूल जाते थे। अपने घर का पता याद रखने में उन्हें दिक्कत होती थी।
उन्होंने देखा कि प्रकाश तरंगों और कणिकाओं दोनों के रूप में चलता है जिसे क्वानटा कहते हैं क्योंकि उनके अनुसार ऐसा ही होता है। उन्होंने उस समय प्रचलित ईथर सम्बंधित सशक्त अवधारणा को हवा में उड़ा दिया। बाद में उन्होंने यह भी बताया कि प्रकाश में भी द्रव्यमान होता है और स्पेस और टाइम भिन्न-भिन्न नहीं हैं बल्कि स्पेस-टाइम हैं, और ब्रम्हांड घोड़े की जीन की तरह हो सकता है।

अमेरिका चले जाने के बाद आइंस्टाइन की एक-एक गतिविधि का रिकार्ड है। उनकी सनकें प्रसिद्द हैं – जैसे मोजे नहीं पहनना आदि। इन सबसे आइंस्टाइन के इर्द-गिर्द ऐसा प्रभामंडल बन गया जो किसी और भौतिकविद को नसीब नहीं हुआ।

आइन्स्टीन बहुत अब्सेंट माइंड रहते थे। इसके परिणाम सदैव रोचक नहीं थे। उनकी पहली पत्नी भौतिकविद मिलेवा मैरिक के प्रति वे कुछ कठोर भी थे और अपनी दूसरी पत्नी एल्सा और अपने पुत्र से उनका दूर-के-जैसा सम्बन्ध था।

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आइन्स्टीन को एक १५ वर्षीय लड़की ने अपने होमवर्क में कुछ मदद करने के लिए चिठ्ठी लिखी। आइन्स्टीन ने उसे पढ़ाई से सम्बंधित कुछ चित्र बनाकर भेजे और जवाब में लिखा – “अपनी पढ़ाई में गणित की कठिनाइयों से चिंतित मत हो, मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि मेरी कठिनाइयाँ कहीं बड़ी हैं“।

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सोर्बोन में १९३० में आइन्स्टीन ने एक बार कहा – “यदि मेरे सापेक्षता के सिद्धांत की पुष्टि हो जाती है तो जर्मनी मुझे आदर्श जर्मन कहेगा, और फ्रांस मुझे विश्व-नागरिक का सम्मान देगा। लेकिन यदि मेरा सिद्धांत ग़लत साबित होगा तो फ्रांस मुझे जर्मन कहेगा और जर्मनी मुझे यहूदी कहेगा“।

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किसी समारोह में एक महिला ने आइंस्टीन से सापेक्षता का सिद्धांत समझाने का अनुरोध किया। आइन्स्टीन ने कहा:

“मैडम, एक बार मैं देहात में अपने अंधे मित्र के साथ घूम रहा था और मैंने उससे कहा कि मुझे दूध पीने की इच्छा हो रही है“।

“दूध?” – मेरे मित्र ने कहा – “पीना तो मैं समझता हूँ लेकिन दूध क्या होता है?”

“दूध एक सफ़ेद द्रव होता है” – मैंने जवाब दिया।

“द्रव तो मैं जानता हूँ लेकिन सफ़ेद क्या होता है?”

“सफ़ेद – जैसे हंस के पंख“।

“पंख तो मैं महसूस कर सकता हूँ लेकिन ये हंस क्या होता है?”

“एक पक्षी जिसकी गरदन मुडी सी होती है“।

“गरदन तो मैं जानता हूँ लेकिन यह मुडी सी क्या है?”

“अब मेरा धैर्य जवाब देने लगा। मैंने उसकी बांह पकड़ी और सीधी तानकर कहा – “यह सीधी है!” – फ़िर मैंने उसे मोड़ दिया और कहा – “यह मुडी हुई है“।

“ओह!” – अंधे मित्र ने कहा – “अब मैं समझ गया दूध क्या होता है“।

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जब आइन्स्टीन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे तब एक दिन एक छात्र उनके पास आया। वह बोला – “इस साल की परीक्षा में वही प्रश्न आए हैं जो पिछले साल की परीक्षा में आए थे”।

“हाँ” – आइन्स्टीन ने कहा – “लेकिन इस साल उत्तर बदल गए हैं”।

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एक बार किसी ने आइन्स्टीन की पत्नी से पूछा – “क्या आप अपने पति का सापेक्षता का सिद्धांत समझ सकती हैं?”

“नहीं” – उन्होंने बहुत आदरपूर्वक उत्तर दिया – “लेकिन मैं अपने पति को समझती हूँ और उनपर यकीन किया जा सकता है।”

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१९३१ में चार्ली चैपलिन ने आइन्स्टीन को हौलीवुड में आमंत्रित किया जहाँ चैपलिन अपनी फ़िल्म ‘सिटी लाइट्स’ की शूटिंग कर रहे थे। वे दोनों जब अपनी खुली कार में बाहर घूमने निकले तो सड़क पर आनेजाने वालों ने हाथ हिलाकर दोनों का अभिवादन किया।

चैपलिन ने आइन्स्टीन से कहा – “ये सभी आपका अभिवादन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इनमें से कोई भी आपको नहीं समझ सकता; और मेरा अभिवादन इसलिए कर रहे हैं क्योंकि मुझे सभी समझ सकते हैं”।

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बर्लिन में सर विलियम रोथेन्स्तीन को आइन्स्टीन का एक पोर्ट्रेट बनाने के लिए कहा गया। आइन्स्टीन उनके स्टूडियो में एक वयोवृद्ध सज्जन के साथ आते थे जो एक कोने में बैठकर चुपचाप कुछ लिखता रहता था। आइन्स्टीन वहां भी समय की बर्बादी नहीं करते थे और परिकल्पनाओं और सिद्धांतों पर कुछ न कुछ कहते रहते थे जिसका समर्थन या विरोध वे सज्जन अपना सर हिलाकर कर दिया करते थे। जब उनका काम ख़त्म हो गया तब रोथेन्स्तीन ने आइन्स्टीन से उन सज्जन के बारे में पूछा:

“वे बहुत बड़े गणितज्ञ हैं” – आइन्स्टीन ने कहा – “मैं अपनी संकल्पनाओं की वैधता को गणितीय आधार पर परखने के लिए उनकी सहायता लेता हूँ क्योंकि मैं गणित में कमज़ोर हूँ”।

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१९१५ में आइन्स्टीन के सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत के प्रकाशन के बाद रूसी गणितज्ञ अलेक्सेंडर फ्रीडमैन को यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि आइन्स्टीन अपने सूत्रों के आधार पर यह देखने से चूक गए थे कि ब्रम्हांड फ़ैल रहा था। ब्रम्हांड के फैलने का पता एडविन हबल ने १९२० में लगाया था।
आइन्स्टीन से इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई? असल में उन्होंने अपने सूत्रों में एक बहुत बेवकूफी भरी गलती कर दी थी। उन्होंने इसे शून्य से गुणा कर दिया था। प्राचीन काल से ही गणित के साधारण छात्र भी यह जानते हैं कि किसी भी संख्या को शून्य से गुणा कर देना गणित की दृष्टि से बहुत बड़ा पाप है।

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आइन्स्टीन ने एक बार कहा – “बचपन में मेरे पैर के अंगूठे से मेरे मोजों में छेद हो जाते थे इसलिए मैंने मोजे पहनना बंद कर दिया”।

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आइन्स्टीन के एक सहकर्मी ने उनसे उनका टेलीफोन नंबर पूछा। आइन्स्टीन पास रखी टेलीफोन डायरेक्टरी में अपना नंबर ढूँढने लगे। सहकर्मी चकित होकर बोला – “आपको अपना ख़ुद का टेलीफोन नंबर भी याद नहीं है?”

“नहीं” – आइन्स्टीन बोले – “किसी ऐसी चीज़ को मैं भला क्यों याद रखूँ जो मुझे किताब में ढूँढने से मिल जाती है”।

आइन्स्टीन कहा करते थे कि वे कोई भी ऐसी चीज़ याद नहीं रखते जिसे दो मिनट में ही ढूँढा जा सकता हो.
यह कहानी http://hindizen.com से ली गयी

अंधी लड़की की कहानी


एक लडकी जन्म से नेत्रहीन थी और इस कारण वह स्वयं से नफरत करती थी। वह किसी को भी पसंद नहीं करती थी, सिवाय एक लड़के के जो उसका दोस्त था। वह उससे बहुत प्यार करता था और उसकी हर तरह से देखभाल करता था। एक दिन लड़की ने लड़के से कहा – “यदि मैं कभी यह दुनिया देखने लायक हुई तो मैं तुमसे शादी कर लूंगी”।

eyesएक दिन किसी ने उस लड़की को अपने नेत्र दान कर दिए। जब लड़की की आंखों से पट्टियाँ उतारी गयीं तो वह सब कुछ देख सकती थी। उसने लड़के को भी देखा।
लड़के ने उससे पूछा – “अब तुम सब कुछ देख सकती हो, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?”

लड़की को यह देखकर सदमा पहुँचा की लड़का अँधा था। लड़की को इस बात की उम्मीद नहीं थी। उसने सोचा कि उसे ज़िन्दगी भर एक अंधे लड़के के साथ रहना पड़ेगा, और उसने शादी करने से इंकार कर दिया।

लड़का अपनी आँखों में आंसू लिए वहां से चला गया। कुछ दिन बाद उसने लड़की को एक पत्र लिखा:

“मेरी प्यारी, अपनी आँखों को बहुत संभाल कर रखना, क्योंकि वे मेरी ऑंखें हैं”।
(यह कहानी http://hindizen.com/ से ली गयी है)

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

प्रेमचंद का कोट

हिंदी के महानतम कथाकार प्रेमचंद का जीवन अत्यंत सादगीपूर्ण था. उनके पास एक पुराना कोट था जो फट गया था लेकिन वे उसी को पहने रहते थे.

उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने कई बार उनसे नया कोट बनवाने के लिए कहा लेकिन प्रेमचंद ने हर बार पैसों की कमी बताकर बात टाल दी. एक दिन शिवरानी देवी ने उन्हें कुछ रुपये निकालकर दिए और कहा – “बाजा़र जाकर कोट के लिए अच्छा कपड़ा ले आइये.”

प्रेमचंद ने रुपये ले लिए और कहा – “ठीक है. आज कोट का कपड़ा आ जाएगा.”

शाम को उन्हें खाली हाथ लौटा देखकर शिवरानी देवी ने पूछा – “कोट का कपड़ा क्यों नहीं लाए?”

प्रेमचंद कुछ क्षणों के लिए चुप रहे, फिर बोले – “मैं कपड़ा लेने के लिए निकला ही था कि प्रैस का एक कर्मचारी आ गया. उसकी लड़की की शादी के लिए पैसों की कमी पड़ गई थी. उसने मुझे वह सब इतनी लाचारी और उदासी से बताया कि मुझसे रहा नहीं गया. मैंने कोट के रुपये उसे दे दिए. कोट तो फिर कभी बन सकता है लेकिन लड़की की शादी नहीं टल सकती.”

शिवरानी देवी मन मसोस कर धीरे से बोलीं – “वो नहीं तो तुम्हें कोई और मिल जाता. मैं पहले ही जानती थी कि तुम्हारे हाथों में पैसे देकर कोट कभी नहीं आ सकता.”

प्रेमचंद के चेहरे पर संतोष की मुस्कान खिली हुई थी.

खोटा सिक्का


यह एक सूफी कथा है. किसी गाँव में एक बहुत सरल स्वभाव का आदमी रहता था. वह लोगों को छोटी-मोटी चीज़ें बेचता था. उस गाँव के सभी निवासी यह समझते थे कि उसमें निर्णय करने, परखने और आंकने की क्षमता नहीं थी. इसीलिए बहुत से लोग उससे चीज़ें खरीदकर उसे खोटे सिक्के दे दिया करते थे. वह उन सिक्कों को ख़ुशी-ख़ुशी ले लेता था. किसी ने उसे कभी भी यह कहते नहीं सुना कि ‘यह सही है और यह गलत है’. कभी-कभी तो उससे सामान लेनेवाले लोग उसे कह देते थे कि उन्होंने दाम चुका दिया है, और वह उनसे पलटकर कभी नहीं कहता था कि ‘नहीं, तुमने पैसे नहीं दिए हैं’. वह सिर्फ इतना ही कहता ‘ठीक है’, और उन्हें धन्यवाद देता.

दूसरे गाँवों से भी लोग आते और बिना कुछ दाम चुकाए उससे सामान ले जाते या उसे खोटे पैसे दे देते. वह किसी से कोई शिकायत नहीं करता.

समय गुज़रते वह आदमी बूढ़ा हो गया और एक दिन उसकी मौत की घड़ी भी आ गयी. कहते हैं कि मरते हुए ये उसके अंतिम शब्द थे: – “मेरे खुदा, मैंने हमेशा ही सब तरह के सिक्के लिए, खोटे सिक्के भी लिए. मैं भी एक खोटा सिक्का ही हूँ, मुझे मत परखना. मैंने तुम्हारे लोगों का फैसला नहीं किया, तुम भी मेरा फैसला मत करना.”

ऐसे आदमी को खुदा कैसे परखता?

वो मंत्र जो आपकी जिंदगी बदल सकता है

जो मन के तंत्र पर अधिकार रखता है, वही मंत्र है। मन का तंत्र यानि कि मन का सिस्टम। मंत्र एक एसा रिमोट कंट्रोल है जो मन और उसकी अप्रत्याशित शक्तियों को नियंत्रित ही नहीं बल्कि अपनी सुविधानुसार संचालित भी कर सकता है। ध्वनि विज्ञान ही मंत्र का आधार है। ध्वनि की अद्भुत शक्ति के साथ, साधक का मनोबल और एकाग्रता की शक्ति मिलकर एक ऐसी अजेय शक्ति बन जाती है, जिसके लिये कुछ भी असंभव नहीं रहता। इस अजेय शक्ति को साधक जब किसी निर्धारित लक्ष्य पर प्रेषित करता है तो विधि का गुप्त विधान इसके अनुकूल हो जाता है।

एक नई दुनियां- मंत्र विज्ञान के क्षेत्र में दुनिया भर में आज तक जितने भी मंत्र खोजे या बनाए गए हैं, उनमें गायत्री मंत्र को सर्वोच्च शक्तिशाली व सर्व समर्थ मंत्र होने का दर्जा प्राप्त है। ब्रह्मऋषि विश्वामित्र ने एक सवर्था नवीन सृष्टि रचने का जो अभिनव चमत्कार किया था, वह इस गायत्री मंत्र से प्राप्त शक्ति के आधार पर ही किया था। यह तो एक उदाहरण मात्र है, ऐसे अनेकानेक चमत्कार गायत्री मंत्र के बल पर हो चुके हैं। वेद, उपनिषद्, पुराण आदि तमाम ग्रंथ गायत्री मंत्र के अद्भुत व आश्चर्यजनक चमत्कारों से भरे पड़े हैं। आज भी यदि कोई पूरे विधि-विधान से गायत्री मंत्र की साधना करे, तो भौतिक या आध्यात्मिक लक्ष्य कोई भी हो हर हाल में उसे प्राप्त किया जा सकता है।

एकाग्रता की शक्ति


बहुत तीखी धूप में भी शक्तिशाली आतिशी शीशा कागज़ नहीं जला पाता यदि उसे हिलाते रहा जाये. यदि उसे एक ही बिंदु पर स्थित कर दिया जाए तो कागज़ आग पकड़ लेता है. एकाग्रता में यही शक्ति होती है.

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सड़क पर चलता हुआ एक आदमी दोराहे पर आ खड़ा हुआ. उसने वहां एक बुजुर्ग से पूछा – “ये रास्ता कहाँ को जाता है?”

बुजुर्ग ने प्रतिप्रश्न किया – “तुम्हें कहाँ जाना है?”

राहगीर ने कहा – “मुझे नहीं मालूम”.

बुजुर्ग ने कहा – “ऐसा है तो तुम कोई भी रास्ता पकड़ लो, उससे क्या फर्क पड़ेगा.”

कितनी सच्ची बात है! जब हमें यह नहीं मालूम कि हम कहाँ जा रहे हैं तो कोई भी रास्ता हमें कहीं भी ले जायेगा.

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फुटबाल के ग्यारह खिलाड़ी बड़े उत्साह में मैदान में खेलने आये और किसी ने गोल पोस्ट ही हटा दिया. अब वह क्या खेल खेलेंगे? वहां कुछ भी नहीं है. स्कोर कैसे रखा जायेगा? यह कैसे पता चलेगा की गोल नज़दीक आ गया है.

दिशाहीन उत्साह उस आग की तरह है जो हताशा की ओर ले जाती है. गोल या लक्ष्य जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं. क्या आप ऐसी रेलगाड़ी या बस में बैठेंगे जिसके गंतव्य का कुछ पता न हो? नहीं न? तो फिर क्यों हममें से बहुत से लोग बिना कोई लक्ष्य निर्धारित किये अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं!

वासना की उम्र


एक दिन सम्राट अकबर ने दरबार में अपने मंत्रियों से पूछा कि मनुष्य में काम-वासना कब तक रहती है। कुछ ने कहा ३० वर्ष तक, कुछ ने कहा ६० वर्ष तक। बीरबल ने उत्तर दिया – “मरते दम तक”।

अकबर को इस पर यकीन नहीं आया। वह बीरबल से बोला – मैं इसे नहीं मानता। तुम्हें यह सिद्ध करना होगा की इंसान में काम-वासना मरते दम तक रहती है”।
बीरबल ने अकबर से कहा कि वे समय आने पर अपनी बात को सही साबित करके दिखा देंगे।

एक दिन बीरबल सम्राट के पास भागे-भागे आए और कहा – “आप इसी वक़्त राजकुमारी को साथ लेकर मेरे साथ चलें”।

अकबर जानते थे कि बीरबल की हर बात में कुछ प्रयोजन रहता था। वे उसी समय अपनी बेहद खूबसूरत युवा राजकुमारी को अपने साथ लेकर बीरबल के पीछे चल दिए।

बीरबल उन दोनों को एक व्यक्ति के घर ले गया। वह व्यक्ति बहुत बीमार था और बिल्कुल मरने ही वाला था।

बीरबल ने सम्राट से कहा – “आप इस व्यक्ति के पास खड़े हो जायें और इसके चेहरे को गौर से देखते रहें”।

इसके बाद बीरबल ने राजकुमारी को कमरे में बुलाया। मरणासन्न व्यक्ति ने राजकुमारी को इस दृष्टि से देखा कि अकबर के समझ में सब कुछ आ गया।

बाद में अकबर ने बीरबल से कहा – “तुम सही कहते थे। मरते-मरते भी एक सुंदर जवान लडकी के चेहरे की एक झलक आदमी के भीतर हलचल मचा देती है”।

करुणा


एक परमधार्मिक बौद्ध महिला हर संभव प्रयास करती थी कि वह अपने मन, वचन, और कर्मों से किसी का भी अहित न कर दे. लेकिन जब कभी वह बाज़ार में समान खरीदने जाती, एक दुकानदार उससे कुछ अश्लील बातें करने लगता.

एक बारिशवाले दिन जब दुकानदार ने पुनः उससे अभद्रतापूर्वक बात की तो महिला आत्मनियंत्रण खो बैठी और उसने दुकानदार के सर पर छाते से प्रहार कर दिया.

इस घटना से ग्लानिवश, वह उसी दिन एक मठ में गयी और वहां प्रधान भिक्षु को सारा वृत्तान्त सुनाया.

“मैं बहुत दुखी हूँ” – महिला ने कहा – “आज पता नहीं कैसे मैं अपने मन पर नियंत्रण खो बैठी”.

“देखो” – भिक्षु ने कहा – “अपने मन में इस प्रकार ग्लानि का भाव रखना उचित नहीं है. जीवन में हमें एक-दूसरे को अपनी मन की भावनाएं बताने के लिए उनसे संवाद करना ही पड़ता है. और तुम इसमें कुछ कर भी नहीं सकतीं क्योंकि हर व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है”.

“अब भविष्य में तुम यह करना कि अगली बार यदि वह कोई अभद्रता करे, तो तुम अपने ह्रदय में असीम करुणा एकत्र करना”.

“और पहले से भी अधिक जोर से उसे छाते से मारना, क्योंकि वह इसकी भाषा ही समझता है”.

(कहानी पाउलो कोएलो के ब्लॉग से)

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

ख़ुदी को कर बुलंद इतना…

(यह पोस्ट पाउलो कोएलो के ब्लॉग से लेकर पोस्ट की गयी है)

जीवन में हमें सदैव स्थापित मानकों और रूपकों के सहारे ही चलने की आदत हो जाती है. मुझे हैम्बर्ग में एक पाठक मिला जो जीवन के उन्नयन से जुड़ा अपना अनुभव मुझसे बांटना चाहता था. उसने मेरे होटल का पता ढूंढ निकाला और मेरे ब्लॉग के बारे में कुछ आलोचनात्मक चर्चा के लिए वह होटल में आ गया. कुछ कठोर बातें कहने के बाद उसने मुझसे पूछा:

“क्या कोई नेत्रहीन व्यक्ति माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुँच सकता है?”

“मुझे ऐसा नहीं लगता” – मैंने उत्तर दिया.

“आपने ‘शायद’ क्यों नहीं कहा?”

मुझे यह लग रहा था कि मेरे सामने कोई सघन आशावादी बैठा है. मेरी संकल्पना के अनुसार ब्रह्माण्ड हमारे सपने को साकार करने के लिए ताना-बाना बुनता है, लेकिन ऐसी कुछ दुर्दम्य चुनौतियाँ भी होती हैं जिनका पीछा करते रहने में जीवन से हाथ धो बैठने का जोखिम भी होता है. किसी नेत्रहीन व्यक्ति का एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने का सपना भी कुछ ऐसा ही है.

मैंने उसे कहा कि मेरा कोई ज़रूरी अपॉइंटमेंट है पर वह वहां से हिलने को भी तैयार नहीं था.

“कोई नेत्रहीन व्यक्ति भी विश्व के सबसे ऊंचे और दुर्गम पर्वत माउंट एवरेस्ट (ऊंचाई 8,848 मीटर) पर सफलतापूर्वक चढ़ाई कर सकता है. मैं ऐसे एक नेत्रहीन व्यक्ति को जानता हूँ. उसका नाम एरिक वीहेनमायर है. सन् 2001 में एरिक ने यह करिश्मा कर दिखाया जबकि हम सब आये दिन ये शिकायतें करते रहते हैं कि हमारे पास कार नहीं है, महंगे कपड़े नहीं हैं, और हमारी तनख्वाह से खर्चे पूरे नहीं पड़ते.” – उसने कहा.

“क्या यह वाकई सच है?” – मैंने पूछा.

लेकिन हमारी बातचीत में व्यवधान आ गया और मुझे ज़रूरी काम से उठना पड़ा. मैंने उसे मेरे ब्लॉग का अच्छा पाठक होने और ज़रूरी सुझाव देने के लिए धन्यवाद दिया. हमने एक फोटो भी ली और फिर अपने-अपने रास्ते चल दिए.

सुबह तीन बजे होटल लौटने पर मैंने अपनी जेब से कमरे की चाबी निकाली और मुझे उसके हाथ की लिखी पर्ची मिली जिसमें उसने उस नेत्रहीन व्यक्ति का नाम लिख कर मुझे दिया था.

मुझे काहिरा जाने की जल्दी थी फिर भी मैंने कम्प्यूटर चालू करके इंटरनेट पर वह नाम तलाशा और मुझे यह मिला:

“25 मई, 2001 को बत्तीस वर्षीय एरिक वीहेनमायर एवरेस्ट पर पहुँचने वाले पहले नेत्रहीन व्यक्ति बन गए. हाईस्कूल में पहले शिक्षक रह चुके वीहेनमायर को मनुष्य की शारीरिक सीमाओं को लांघने वाले इस कारनामे को कर दिखाने के लिए प्रतिष्ठित ESPN और IDEA पुरस्कार मिले हैं. एवरेस्ट से पहले वीहेनमायर दुनिया की सात सबसे ऊंची चोटियों पर भी चढ़ चुके हैं जिनमें अर्जेंटीना का आकोंकागुआ और तंज़ानिया का किलिमिंजारो पर्वत शामिल हैं.
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देवदत्त पटनायक: पूरब बनाम पश्चिम – मिथकों की मिथ्यता

ये समझने के लिये कि पौराणिक कथाओं का मामला और मुख्य विश्वास अधिकारी का काम क्या है, आपको एक कहानी सुननी होगी भगवान गणेश की कहानी, भगवान गजानन – हाथी के सर वाले भगवान की कहानी जो कि कथावाचकों के सरताज़ हैं, और उनके भाई, देवताओं के सेनापति कार्तिकेय । एक दिन दोनो भाइयों में एक प्रतियोगिता हुई – एक दौड पूरे ब्रह्माण्ड के तीन चक्कर लगाने की दौड कार्तिकेय अपने मोर पर सवार हुए और महाद्वीपों को नाप डाला फिर पहाडों को, फिर सागरों को, उन्होंने ब्रह्माण्ड का पहला चक्कर लगाया, फिर दूसरा और फिर तीसरा चक्कर भी लगा डाला । पर उनके भाई, गणॆश ने मात्र अपने माता-पिता की परिक्रमा की एक बार, दो बार, और तीन बार, और एलान कर डाला, “मैं जीत गया ।” कार्तिकेय ने पूछा, “कैसे ?” और तब गणेश ने कहा, “तुमने ‘ब्रहमाण्ड’ की परिक्रमा की । और मैने ‘अपने ब्रह्माण्ड’ की ।” संसार और मेरे संसार में ज्यादा महत्व किसका है ?

यदि आप ‘संसार’ और ‘मेरे संसार’ के बीच के अंतर को समझ सके, तो आप ‘सही’ और ‘मेरे लिये सही’ के अंतर को समझ सकेंगे । ‘संसार’ लक्ष्य-निर्धारित है, तार्किक है, तथ्यात्मक है, संपूर्ण है, वैज्ञानिक है । ‘मेरा संसार’ व्यक्तिपरक है. यह भावुक है. यह निजी है. इसके अपने दृष्टिकोण, विचार हैं – अपननी भावनाएँ और अपने सपने है । ये जीवन मूल्यों का एक ढाँचा है जिससे अंतर्गत हम जीवन व्यतीत करते हैं । यह मिथक है कि हम तटस्थ हो कर रह रहे हैं ।

‘संसार’ हमें बताता है कि क्या चल रहा है, सूरज उग कैसे रहा है, हम पैदा कैसे होते हैं । ‘मेरा संसार’ बताता है कि सूरज क्यों उग रहा है, हम क्यों पैदा हुए । हर संस्कृति स्वयं को ही समझने की कोशिश कर रही है, “हम अस्तित्व का कारण क्या है ?” और हर संस्कृति ने अपने अपने जवाब ढूँढे हैं, अपनी समझ के अनुरूप पौराणिक गाथाओं के रूप में ।

संस्कृति प्रकृति के प्रति हमारी प्रतिक्रिया है, और इस प्रतिक्रिया की समझ, हमारी पूर्वजों के अनुसार पीढी दर पीढी चलती आ रही है कथाओं, प्रतीकों और अनुष्ठानों के रूप में, जिन्हें तर्क, कारण और विश्लेषणॊं से कोई मतलब नहीं है । और जब आप इसमें गहरे उतरेंगे, तो आपको पता चलेगा कि दुनिया के अलग अलग लोग दुनिया को अपने अलग ढँग से समझते हैं । अलग अलग लोग एक ही चीज़ को : अलग अलग दृष्टिकोणों से देखते हैं ।

एक हुई मेरी दुनिया और एक हुई आपकी दुनिया, और मेरी दुनिया हमेशा मुझे आपकी दुनिया से बेहतर लगती है, क्योंकि देखिये, मेरी दुनिया तर्कसंगत है और आपकी अंधविश्वास पर आधारित, आपकी मात्र विश्वास पर चलती है तर्क पर आधारित नहीं है । यही सभ्यताओं के संघर्ष की जड़ है । 326 ईसा पूर्व में भी यह बहस एक बार हुई थी । सिंधु नदी के तट पर, जो कि अब पाकिस्तान में है । इस नदी से ही इण्डिया को उसका नाम मिला है । सिन्धु – हिन्दु – इन्दु – इन्डिया ।

सिकंदर, युवा मकदूनियन, वहाँ ऐसे व्यक्ति से मिला जिसे उसने ‘जिमनोसोफ़िस्ट’ कहा है, जिसका अर्थ है ‘नंगा फ़कीर’ हम नहीं जानते कि वह कौन था । शायद कोई जैन साधु रहा हो, जैसे कि बाहुबली, यहीं पास में ही, गोमतेश्वर बाहुबली, मैसूर से ज्यादा दूर नहीं है उनकी छवि । या फ़िर शायद वो कोई योगी रहा हो, चट्टान पर बैठा, आसमान को ताकता, और सूरज और चाँद को निहारता ।

सिकंदर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और नंगे फ़कीर ने जवाब दिया, “मैं शून्यता का अनुभव कर रहा हूँ.” फिर फ़कीर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और सिकंदर ने जवाब दिया, “मैं दुनिया पर विजय प्राप्त कर रहा हूँ ।” और फिर वो दोनो हँसने लगे । दोनो एक दूसरे को मूर्ख समझ रहे थे । फ़कीर ने पूछा कि वो दुनिया को जीतने क्यों चाहता है । वो व्यर्थ है । और सिकंदर ने सोचा, “ये साधु यहाँ बैठ कर वक्त क्यों गँवा रहा है?” सारे जीवन को व्यर्थ कर रहा है ।

इन दोनों के विचारों के फ़र्क को समझने के लिये हमें समझना होगा कि सिकंदर का अपना सत्य समझना होगा: और उन मिथकों को, जिन्होने उस सत्य को जन्म दिया । सिकंदर के माँ-बाप और उसके शिक्षक अरस्तु ने उसे होमर के इलियाड की कहानियाँ सुनाई थीं । महान नायक अचिलस की कहानी, जिसका लडाई में होना भर, विजय सुनिश्चित करता था, पर यदि वो लडाई में न हो, तो हार भी निश्नित होती थी । “अचिलस वो व्यक्ति था जो इतिहास बदलने की क्षमता रखता था, नियति को काबू कर लेने वाला, और सिकंदर, तुम्हें उस जैसा बनना चाहिये ।” उसने ये सुना था ।

“और तुम्हें क्या नहीं बनना चाहिये ? तुम्हें सिसिफस नहीं बनना चाहिये, जो कि दिन भर भारी चट्टान को पहाड पर चढाता है और हर रात, चट्टान वापस लुढक जाती है । ऐसा जीवन मत जियो जो साधारण हो, औसत, निरर्थक हो । भव्य बनो ! — ग्रीक नायकों की तरह, जैसे जेसन, जो कि समंदर पार गया अरगोनाट्स के साथ और सुनहरी ऊन ले कर आया । महान बनो जैसे थीसियस, जिसने नर्क में घुस कर भैंसे के सिर वाले राक्षस मिनोटोर को मार गिराया । जब जब प्रतियोगिता में भाग लो, जीतो ! — क्योंकि जीत की प्रसन्नता, उसकी अनुभव देवों के सामीप्य का सबसे प्रत्यक्क्ष अनुभव होगा ।”

देखिय, ग्रीक ये मानते थे कि आप केवल एक बार जीते है और जब आपकी मृत्यु होती है, आप स्टिक्स नदी पार करते हैं, और यदि आपने भव्य जीवन जिया है, तो आपको अलीसियम (स्वर्ग) में आमंत्रित किया जायेगा, या जिसे फ़्रांसीसी लोग ‘शाम्पस-अलीयसीज़’ (पेरिस की प्रसिद्ध बाज़ार) कहते हैं — (हँसी) — महापुरोषों का स्वर्ग ।

पर ये वो कहानियाँ नहीं थी जो हमारे फ़कीर ने सुनी थीं । उसने बहुत अलग कहानियाँ सुनी थीं । उसने भरत नाम के व्यक्ति के बारे में सुना था, जिसकी नाम पर इण्डिया को भारत भी कहते है । भरत ने भी विश्व-विजय प्राप्त की थी । और तब वो संसार के केंन्द्र-बिन्दु पर स्थित सबसे बडे पहाड की सबसे ऊँची चोटी पर गया, जिसका नाम था मेरु । और वो वहाँ अपने नाम का झंडा फहराना चाहता था, “मैं यहाँ आने वाला पहला व्यक्ति था ।” पर जब वो मेरु पर्वत पर पहुँचा, तो उसने उसे अनगिनत झंडों से ढका पाया, उससे पहले आने वाले विश्व-विजयिओं के झंडों से, हर झंडा दाव कर रहा था “मैं यहाँ सबसे पहले आया… …ऐसा मैं सोचता था जब तक मैं यहाँ नहीं आया था ।” और अचानक, अनन्ता की इस पृष्ठभूमि में, भरत ने स्वयं को क्षुद्र, नगण्य़ पाया । ये उस फ़कीर का सुना हुआ मिथक था ।

देखिय, फ़कीर के भी अपने नायक थे, जैसे राम – रघुपति राम और कृष्ण, गोविन्द, हरि । परन्तु वो दो अलग अलग पात्र दो अलग अलग अभियानों पर निकले दो अलग अलग नायक नहीं थे । वो एक ही नायक के दो जन्म थे । जब रामायण काल समाप्त होता है, तो महाभारत काल प्रारंभ होता है । जब राम यमलोक सिधारते है, कृष्ण जन्म लेते है । जब कृष्ण यमलोक जाते है, तो वो पुनः राम के रूप में अवतार लेते हैं ।

भारतीय मिथकों में भी एक नदी है जो कि जीवितों और मृतकों की दुनिया की सीमारेखा है । पर इसे केवल एक बार ही पार नहीं करना होता है । इस के तो आर-पार अनन्ता तक आना जाना होता है । इस नदी का नाम है वैतरणी । आप बार-बार, बारम्बार आते जाते है । क्योंकि, आप देखिये, भारत में कुछ भी हमेशा नहीं टिकता, मृत्यु भी नहीं । इसलिये ही तो, हमारे भव्य आयोजनों में देवियों की महान मूर्तियाँ तैयार की जाती हैं, उन्हें दस दिन तक पूजा जाता है… और दस दिन के बाद क्या होत है ? उसे नदी में विसर्जित कर दिया जाता है । क्योंकि उसका अंत होना ही है । और अगले साल, वो देवी फिर आयेगी । जो जाता है, वो ज़रूर ज़रूर लौटता है और ये सिर्फ़ मानवों पर ही नहीं, बल्कि देवताओं पर भी लागू होता है । देखिये, देवताओं को भी बार बार कई बार अवतार लेना होगा, राम के रूप में , कृष्ण के रूप में न सिर्फ़ वो अनगिनत जन्म लेते हैं, वो उसी जीवन को अनगिनत बार जीते हैं जब तक कि सब कुछ समझ ना आ जाये । ग्राउन्डहॉग डे (इसे विचार पर बनी एक हॉलीवुड फ़िल्म) । (हँसी)

दो अलग मिथयताएँ इसमें सही कौन सी है ? दो अलग समझें, दुनिया को समझने के दो अलग नज़रिये । एक सीधी रेखा में और दूसरा गोलाकार एक मानता है कि केवल यही और सिर्फ़ यही एक जीवन है। और दूसरा मानता है कि यह कई जीवनों में से एक जीवन है । और इसलिये सिकंदर के जीवन की तल-संख्या ‘एक’ थी । और उसके सारी जीवन का मूल्य इस एक जीवन में अर्जित उसकी उपलबधियों के बराबर था । फ़कीर के जीवन की तल-संख्या ‘अनन्त, अनगिनत’ थी । और इसलिये, वो चाहे इस जीवन में जो कर ले, सब जीवनों में बँट कर इस जीवन की उपलब्धियाँ नगण्य थीं । मुझे लगता है कि शायद भारतीय मिथक के इसी पहलू के ज़रिये भारतीय गणितज्ञों ने ‘शून्य’ संख्या की खोज की होगी । क्या पता ?

और अब हम आते है कारोबार के मिथक पर । यदि सिकंदर का विश्वास उसके व्यवहार पर असर डाल सकता है, यदि फ़कीर का विश्वास उसके जीवन पर प्रभाव डालता है, तो निश्चय ही ये उन कारोबारों पर भी प्रभाव डालेगा जिनमें वो लगे थे । देखिये, कारोबार असल में इस बात का ही तो परिणाम है कि बाज़ार ने कैसा व्यवहार किया और संगठनों ने क्या व्यवहार किया ? यदि आप दुनिया भर की संस्कृतियों पर एक नज़र डालें, और उनके अपने अपने मिथकों को समझे, तो आप को उनका व्यवहार और उनका कारोबार का ढँग समझ आ जाएगा ।

धयान से देखिये । अगर आप एक ही जीवन वाली संस्कृति से नाता रखते हैं तो आप देखेंगे कि वो ‘पूर्णतः सही या पूर्णतः गलत’ के विचारधार से आसक्त हैं, निर्धारित पूर्ण सत्य, मानकीकरण, संपूर्णता, सीधी रेखा पर आधारित ढाँचे । पर यदि आप जीवन की पुनरावृत्ति वाली गोलाकार संस्कृति को देखेंगे आप देखेंगे कि वो अस्पष्ठता के सहज हैं, अनुमानों के साथ, विषयक सोच के साथ, ‘लगभग’ के साथ, संदर्भों पर आधारित मानकों के साथ — (हँसी) ज्यादातर । (हँसी)

चलिये, कला पर नज़र डालते हैं । बैले नर्तकी को देखिये । कैसे उसकी जुम्बिश सीधी रेखाकार होती है । और भारतीय सस्कृतिक नर्तकी को देखिये, कुचिपुडि, भरतनाट्यम नर्तकों को देखिये, घुमावदार । (हँसी)

और धंधे के तरीके देखिये । मानकों पर आधारित ढाँचा: अवलोकन, लक्ष्य, मूल्य, विधियाँ लगता है जैसे किसी ऐसे यात्रा की कल्पना है जो कि जंगल से सभ्य समाज तक ले जाती है, एक नेता के दिये गये निर्देशों के अनुसार । यदि आप निर्देशों का पालन करेंगे, स्वर्ग प्राप्त होगा ।

पर भारत में कोई एक स्वर्ग नहीं है, बहुत सारे अपने अपने स्वर्ग हैं, आप समाज के किस हिस्से से हैं, इस के हिसाब से आप जीवन के किस पडाव पर हैं, इस के हिसाब से देखिये, कारोबार संगठनों की तरह नहीं चलाये जाते, किसी एक व्यक्ति के निर्देशानुसार। वो हमेशा पसन्द के अनुसार चलते हैं । मेरे अपनी खास पसंद के अनुसार ।

जैसे, भारतीय संगीत, मिसाल के तौर पर, उसमें अनुरूपता, स्वर-संगति की कोई जगह नहीं है । वादकों के समूह का कोई एक निर्देशक नहीं होता है । एक कलाकार प्रदर्शन करता है, और बाकी सब लोग उसका अनुगमन करते हैं । और आप कभी भी उसके प्रदर्शन को बिलकुल वैसे ही दुबारा प्रस्तुत नहीं कर सकते । यहाँ लिखित प्रमाणों और अनुबंधों का खास महत्व नहीं है । यहाँ बातचीत और विश्वास पर ज्यादा ज़ोर है । यहाँ नियमों के पालन से ज्यादा ज़रूरी है ‘सेटिंग’, बस काम पूरा होना चाहिये, चाहे नियम को मोड कर, या उसे तोड कर – अपने आसपास मौजूद भारतीयों पर नज़र डालिये, देखिये सब मुस्करा रहे हैं, उन्हे पता है मैं क्या कर रहा हूँ। (हँसी) और अब ज़रा उन्हें देखिये जिन्हें भारत में व्यवसाय किया है, उनके चेहरे पर रोष छुपाये नहीं छुप रहा । (हँसी) (अभिवादन)

देखिये, आज का भारत यही है । धरातल की सच्चाई दुनिया को देखने के इसी गोलाकार नज़रिये पर टिकी है । इसीलिये ये लगातार बदल रही है, विविधताओं से परिपूर्ण है, अस्त-व्यस्त है, अनुमान से परे है । और लोगबाग इसे ठीक पाते हैं । और अब तो वैश्वीकरण हो रहा है । आधुनिक संगठननुमा सोच की माँग बढ रही है । जो कि रेखाकार सीधी सभ्यता की जड है । और एक वैचारिक मुठभेड होने वाली है, जैसे कि सिन्धु नदी के तट पर हुई थी । इसे होना ही है ।

मैनें खुद इसका अनुभव किया है । मैं एक प्रशिक्षित चिकित्सक हूँ । मुझे सर्जरी पढने का कतई मन नहीं था, और मत पूछिये क्यों । मुझे मिथक बहुत प्रिय हैं । मैं मिथकों को ही पढना चाहता था । मगर ऐसा कोई जगह नहीं है जहाँ ऐसा होता हो । तो मुझे स्वयं को ही पढाना पडा । और मिथकों से कमाई भी नहीं होती थी, कम से कम अब तक । (हँसी) तो मुझे नौकरी करनी पडी । और मैनें औषधि के उद्योग में काम लिया । फिर मैने स्वास्थय – उद्योग में भी काम किया । मैनें मार्कटिंग में काम किया, सेल्स में काम किया । तकनीकी जानकार के रूप में, प्रशिक्षक के रूप में, और विषय-वस्तु तैयार करने का काम भी किया । मै एक व्यावसायिक सलाहकार भी रहा हूँ- योजना और दाँव-पेंच तैयार करता रहा हूँ । और मुझे असंतुष्टि दिखती है अपने अमरीकन और यूरिपियन साथियों में जब वो भारत में काम करते हैं ।

उदाहरण के तौर पर: कृपया हमें बताइये कि हम हॉस्पिटलों को बिल कैसे भेजें । पहले A करें – फ़िर B करें – फ़िर C करें – ज्यादातर ऐसे ही होता है । (हँसी) अब आप ‘ज्यादातर’ की क्या परिभाषा लिखेंगे ? ‘ज्यादातर’ को साफ़्ट्वेयर में कैसे डालेंगे ? नहीं कर सकते ।

मैं उन्हें अपना दृष्टिकोण बताना चाहता था । मगर कोई भी सुनने को तैयार नहीं था, देखिये, जब तक मैं फ़्यूचर समुदाय के किशोर बियानी से नहीं मिला । देखिये, उन्होंने बिग बाजार नामक फुटकर बिक्री की सबसे बडी श्रंखला की स्थापना की है । और इसे कम से कम २०० अलग अलग तरीकों से भारत के करीब ५० शहरों और कस्बों में चलाय जाता है । और वो बहुत ही विविध और सक्रिय बाजारों से काम कर रहे थे । और उन्हें सहजता से पता था, कि उत्कृष्ट कार्य-प्रणालियाँ जो कि जापान, चीन, यूरोप और अमरीका में बनी हैं भारत में काम नहीं करेंगी । उन्हें पता था कि भारत में संस्थागत सोच नहीं चलेगी । यहाँ व्यक्तिगत सोच चलेगी । उन्हें भारत की मिथकीय बनावट की सहज समझ थी ।

तो, उन्होंने मुझसे मुख्य विश्वास अधिकारी बनने को कहा, और ये भी कहा, “मैं चाहता हूँ कि आप सबके विश्वास को एक धुरी पर लाएँ ।” कितना आसान सा लगता है ना । मगर विश्वास को मापा तो नहीं जा सकता । और ना ही उस पर प्रबंधन तकनीके लागू हो सकती हैं । तो आप कैसे विश्वास की आधार-शिला रखेंगे ? कैसे आप लोगों में भारतीयता के प्रति संवेदना बढाएँगे भारतीयों के लिये भी भारतीयता इतनी सहज या नहीं होती है ।

तो, मैनें संस्कृति का एक सर्वव्यापी ढाँचा तैयार करने का प्रयास किया, जो था – कहानियों का विकास करना, चिन्हों का विकास करना, और रीति-रिवाजों का विकास करना । और मैं ऐसे एक रिवाज के बारे में आपको बताता हूँ । देखिये ये हिन्दुओं की ‘दर्शन’ रीति पर आधारित है । हिन्दु धर्म में कोई धर्मादेश नहीं होते हैं । इसलिये जीवन में जो आप करते हैं, उसमें कुछ गलत या सही नहीं होता है । तो आप ईश्वर के सम्मुख पापी हैं या पुण्यात्मा, ये किसी को नहीं पता । तो आप जब मंदिर जाते है, आप सिर्फ़ ईश्वर से मिलना चाहते हैं । बस सिर्फ़ दो मिनट के लिय एक मुलाकात करना । आप सिर्फ़ उनके ‘दर्शन’ करना चाहती है, और इसलिये ईश्वर की बडी बडी आँखें होती हैं, विशाल अपलक टक टक ताकने वाले नेत्र, कभी कभी चाँदी के बने हुए, जिससे वो आप को देख सकें अब क्योंकि आपको भी ये नहीं पता कि आप सही थे या गलत, आप केवल देवता से समानुभूति की उम्मीद करते हैं । “बस जान लीजिये कि मैं कहाँ का हूँ, मैने जुगाड क्यों लगाई ।” (हँसी) “मैने ये सेटिंग क्यों भिडाई, मैं इतना नियम कानून की परवाह क्यों नहीं करता, थोडा समझिये ।”

तो इस आधार पर हमने अगुआ लोगों के लिये कुछ रिवाज बनाए । जब उसका प्रशिक्षण समाप्त होता है, और वो अपने दुकान का दारोमदार लेने वाला होता है, हम उस की आँखों पर पट्टी बाँधते है, और उसे घेर देते हैं, ग्राहकों से, उसके परिवारजनों से, उसके दल से, उसके अफसर से । और हम उसकी जिम्मेदारियों और उससे अपेक्षित प्रदर्शन की बात करके उसे चाबी सौंप देते हैं, और फिर उसकी पट्टी हटाते हैं । और हमेशा, एक आंसू उसकी आँखों में तैरता दिखता है, क्योंकि वो समझ चुका होता है । उसे समझ आ जाता है कि सफल होने के लिये, उसे कोई पेशेवर वयवसायी बनने की जरूरत नहीं है, उसे अपनी भावनाओं को मारने की कतई ज़रूरत नहीं है, उसे बस सब लोगों को साथ ले कर चलना है, उसकी दुनिया के अपने लोगों को, और उन्हें खुश रखना है, अपने अफसर को खुश रखना है, सब लोगों को खुश रखना है । ग्राहक को प्रसन्न रखना ही है, क्योंकि ग्राहक ईश्वर का रूप है ।

इस स्तर की संवेदनशीलता की आवश्यकता है । एक बार ये विश्वास घर कर ले, व्यवहार भी आने लगता है, धंधा भी चलने लगता है । और चला है । वापस सिकंदर की बात करते हैं । और फकीर की । और अक्सर मुझसे पूछा जाता है, “सही रास्ता क्या है – ये य वो ?” और ये बहुत ही खतरनाक प्रश्न है । क्योंकि ये आपको हिंसा और रूढिवादिता के रास्ते पर ले जाता है । इसलिये, मैं इसका उत्तर नहीं दूँगा । मैं आपको इसका भारतीयता-पूर्ण उत्तर दूँगा, हमारा प्रसिद्ध सिर हिलाने का इशारा । (हँसी) (अभिवादन)

संदर्भ के अनुसार, कार्य के परिणाम के हिसाब से, अपना दृष्टिकोण चुनिये । देखिये, क्योंकि दोनो ही नज़रिये इंसानी कल्पनाएँ हैं । सांस्कृतिक कल्पनाएँ हैं, न कि कोई प्राकृतिक सत्य । तो जब अगली बार आप किसी अजनबी से मिलें, एक प्रार्थना है: समझियेगा कि आप संदर्भ-आधारित सत्य में जीवित हैं, और वो अजनबी भी । इसे बिलकुल जहन में उतार लीजिये । और जब आप ये समझ जाएँगे, आप एक शानदार रत्न पा लेंगे । आपको इसका भान होगा कि अनगिनत मिथकों के बीच परम सत्य स्थापित है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड को कौन देखता है ? वरुण हज़ार नेत्रों का स्वामी है । इन्द्र, सौ नेत्रो का । आप और मैं, केवल दो नेत्रों के ये समझने के लिये कि पौराणिक कथाओं का मामला और मुख्य विश्वास अधिकारी का काम क्या है, आपको एक कहानी सुननी होगी भगवान गणेश की कहानी, भगवान गजानन – हाथी के सर वाले भगवान की कहानी जो कि कथावाचकों के सरताज़ हैं, और उनके भाई, देवताओं के सेनापति कार्तिकेय । एक दिन दोनो भाइयों में एक प्रतियोगिता हुई – एक दौड पूरे ब्रह्माण्ड के तीन चक्कर लगाने की दौड कार्तिकेय अपने मोर पर सवार हुए और महाद्वीपों को नाप डाला फिर पहाडों को, फिर सागरों को, उन्होंने ब्रह्माण्ड का पहला चक्कर लगाया, फिर दूसरा और फिर तीसरा चक्कर भी लगा डाला । पर उनके भाई, गणॆश ने मात्र अपने माता-पिता की परिक्रमा की एक बार, दो बार, और तीन बार, और एलान कर डाला, “मैं जीत गया ।” कार्तिकेय ने पूछा, “कैसे ?” और तब गणेश ने कहा, “तुमने ‘ब्रहमाण्ड’ की परिक्रमा की । और मैने ‘अपने ब्रह्माण्ड’ की ।” संसार और मेरे संसार में ज्यादा महत्व किसका है ?

यदि आप ‘संसार’ और ‘मेरे संसार’ के बीच के अंतर को समझ सके, तो आप ‘सही’ और ‘मेरे लिये सही’ के अंतर को समझ सकेंगे । ‘संसार’ लक्ष्य-निर्धारित है, तार्किक है, तथ्यात्मक है, संपूर्ण है, वैज्ञानिक है । ‘मेरा संसार’ व्यक्तिपरक है. यह भावुक है. यह निजी है. इसके अपने दृष्टिकोण, विचार हैं – अपननी भावनाएँ और अपने सपने है । ये जीवन मूल्यों का एक ढाँचा है जिससे अंतर्गत हम जीवन व्यतीत करते हैं । यह मिथक है कि हम तटस्थ हो कर रह रहे हैं ।

‘संसार’ हमें बताता है कि क्या चल रहा है, सूरज उग कैसे रहा है, हम पैदा कैसे होते हैं । ‘मेरा संसार’ बताता है कि सूरज क्यों उग रहा है, हम क्यों पैदा हुए । हर संस्कृति स्वयं को ही समझने की कोशिश कर रही है, “हम अस्तित्व का कारण क्या है ?” और हर संस्कृति ने अपने अपने जवाब ढूँढे हैं, अपनी समझ के अनुरूप पौराणिक गाथाओं के रूप में ।

संस्कृति प्रकृति के प्रति हमारी प्रतिक्रिया है, और इस प्रतिक्रिया की समझ, हमारी पूर्वजों के अनुसार पीढी दर पीढी चलती आ रही है कथाओं, प्रतीकों और अनुष्ठानों के रूप में, जिन्हें तर्क, कारण और विश्लेषणॊं से कोई मतलब नहीं है । और जब आप इसमें गहरे उतरेंगे, तो आपको पता चलेगा कि दुनिया के अलग अलग लोग दुनिया को अपने अलग ढँग से समझते हैं । अलग अलग लोग एक ही चीज़ को : अलग अलग दृष्टिकोणों से देखते हैं ।

एक हुई मेरी दुनिया और एक हुई आपकी दुनिया, और मेरी दुनिया हमेशा मुझे आपकी दुनिया से बेहतर लगती है, क्योंकि देखिये, मेरी दुनिया तर्कसंगत है और आपकी अंधविश्वास पर आधारित, आपकी मात्र विश्वास पर चलती है तर्क पर आधारित नहीं है । यही सभ्यताओं के संघर्ष की जड़ है । 326 ईसा पूर्व में भी यह बहस एक बार हुई थी । सिंधु नदी के तट पर, जो कि अब पाकिस्तान में है । इस नदी से ही इण्डिया को उसका नाम मिला है । सिन्धु – हिन्दु – इन्दु – इन्डिया ।

सिकंदर, युवा मकदूनियन, वहाँ ऐसे व्यक्ति से मिला जिसे उसने ‘जिमनोसोफ़िस्ट’ कहा है, जिसका अर्थ है ‘नंगा फ़कीर’ हम नहीं जानते कि वह कौन था । शायद कोई जैन साधु रहा हो, जैसे कि बाहुबली, यहीं पास में ही, गोमतेश्वर बाहुबली, मैसूर से ज्यादा दूर नहीं है उनकी छवि । या फ़िर शायद वो कोई योगी रहा हो, चट्टान पर बैठा, आसमान को ताकता, और सूरज और चाँद को निहारता ।

सिकंदर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और नंगे फ़कीर ने जवाब दिया, “मैं शून्यता का अनुभव कर रहा हूँ.” फिर फ़कीर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और सिकंदर ने जवाब दिया, “मैं दुनिया पर विजय प्राप्त कर रहा हूँ ।” और फिर वो दोनो हँसने लगे । दोनो एक दूसरे को मूर्ख समझ रहे थे । फ़कीर ने पूछा कि वो दुनिया को जीतने क्यों चाहता है । वो व्यर्थ है । और सिकंदर ने सोचा, “ये साधु यहाँ बैठ कर वक्त क्यों गँवा रहा है?” सारे जीवन को व्यर्थ कर रहा है ।

इन दोनों के विचारों के फ़र्क को समझने के लिये हमें समझना होगा कि सिकंदर का अपना सत्य समझना होगा: और उन मिथकों को, जिन्होने उस सत्य को जन्म दिया । सिकंदर के माँ-बाप और उसके शिक्षक अरस्तु ने उसे होमर के इलियाड की कहानियाँ सुनाई थीं । महान नायक अचिलस की कहानी, जिसका लडाई में होना भर, विजय सुनिश्चित करता था, पर यदि वो लडाई में न हो, तो हार भी निश्नित होती थी । “अचिलस वो व्यक्ति था जो इतिहास बदलने की क्षमता रखता था, नियति को काबू कर लेने वाला, और सिकंदर, तुम्हें उस जैसा बनना चाहिये ।” उसने ये सुना था ।

“और तुम्हें क्या नहीं बनना चाहिये ? तुम्हें सिसिफस नहीं बनना चाहिये, जो कि दिन भर भारी चट्टान को पहाड पर चढाता है और हर रात, चट्टान वापस लुढक जाती है । ऐसा जीवन मत जियो जो साधारण हो, औसत, निरर्थक हो । भव्य बनो ! — ग्रीक नायकों की तरह, जैसे जेसन, जो कि समंदर पार गया अरगोनाट्स के साथ और सुनहरी ऊन ले कर आया । महान बनो जैसे थीसियस, जिसने नर्क में घुस कर भैंसे के सिर वाले राक्षस मिनोटोर को मार गिराया । जब जब प्रतियोगिता में भाग लो, जीतो ! — क्योंकि जीत की प्रसन्नता, उसकी अनुभव देवों के सामीप्य का सबसे प्रत्यक्क्ष अनुभव होगा ।”

देखिय, ग्रीक ये मानते थे कि आप केवल एक बार जीते है और जब आपकी मृत्यु होती है, आप स्टिक्स नदी पार करते हैं, और यदि आपने भव्य जीवन जिया है, तो आपको अलीसियम (स्वर्ग) में आमंत्रित किया जायेगा, या जिसे फ़्रांसीसी लोग ‘शाम्पस-अलीयसीज़’ (पेरिस की प्रसिद्ध बाज़ार) कहते हैं — (हँसी) — महापुरोषों का स्वर्ग ।

पर ये वो कहानियाँ नहीं थी जो हमारे फ़कीर ने सुनी थीं । उसने बहुत अलग कहानियाँ सुनी थीं । उसने भरत नाम के व्यक्ति के बारे में सुना था, जिसकी नाम पर इण्डिया को भारत भी कहते है । भरत ने भी विश्व-विजय प्राप्त की थी । और तब वो संसार के केंन्द्र-बिन्दु पर स्थित सबसे बडे पहाड की सबसे ऊँची चोटी पर गया, जिसका नाम था मेरु । और वो वहाँ अपने नाम का झंडा फहराना चाहता था, “मैं यहाँ आने वाला पहला व्यक्ति था ।” पर जब वो मेरु पर्वत पर पहुँचा, तो उसने उसे अनगिनत झंडों से ढका पाया, उससे पहले आने वाले विश्व-विजयिओं के झंडों से, हर झंडा दाव कर रहा था “मैं यहाँ सबसे पहले आया… …ऐसा मैं सोचता था जब तक मैं यहाँ नहीं आया था ।” और अचानक, अनन्ता की इस पृष्ठभूमि में, भरत ने स्वयं को क्षुद्र, नगण्य़ पाया । ये उस फ़कीर का सुना हुआ मिथक था ।

देखिय, फ़कीर के भी अपने नायक थे, जैसे राम – रघुपति राम और कृष्ण, गोविन्द, हरि । परन्तु वो दो अलग अलग पात्र दो अलग अलग अभियानों पर निकले दो अलग अलग नायक नहीं थे । वो एक ही नायक के दो जन्म थे । जब रामायण काल समाप्त होता है, तो महाभारत काल प्रारंभ होता है । जब राम यमलोक सिधारते है, कृष्ण जन्म लेते है । जब कृष्ण यमलोक जाते है, तो वो पुनः राम के रूप में अवतार लेते हैं ।

भारतीय मिथकों में भी एक नदी है जो कि जीवितों और मृतकों की दुनिया की सीमारेखा है । पर इसे केवल एक बार ही पार नहीं करना होता है । इस के तो आर-पार अनन्ता तक आना जाना होता है । इस नदी का नाम है वैतरणी । आप बार-बार, बारम्बार आते जाते है । क्योंकि, आप देखिये, भारत में कुछ भी हमेशा नहीं टिकता, मृत्यु भी नहीं । इसलिये ही तो, हमारे भव्य आयोजनों में देवियों की महान मूर्तियाँ तैयार की जाती हैं, उन्हें दस दिन तक पूजा जाता है… और दस दिन के बाद क्या होत है ? उसे नदी में विसर्जित कर दिया जाता है । क्योंकि उसका अंत होना ही है । और अगले साल, वो देवी फिर आयेगी । जो जाता है, वो ज़रूर ज़रूर लौटता है और ये सिर्फ़ मानवों पर ही नहीं, बल्कि देवताओं पर भी लागू होता है । देखिये, देवताओं को भी बार बार कई बार अवतार लेना होगा, राम के रूप में , कृष्ण के रूप में न सिर्फ़ वो अनगिनत जन्म लेते हैं, वो उसी जीवन को अनगिनत बार जीते हैं जब तक कि सब कुछ समझ ना आ जाये । ग्राउन्डहॉग डे (इसे विचार पर बनी एक हॉलीवुड फ़िल्म) । (हँसी)

दो अलग मिथयताएँ इसमें सही कौन सी है ? दो अलग समझें, दुनिया को समझने के दो अलग नज़रिये । एक सीधी रेखा में और दूसरा गोलाकार एक मानता है कि केवल यही और सिर्फ़ यही एक जीवन है। और दूसरा मानता है कि यह कई जीवनों में से एक जीवन है । और इसलिये सिकंदर के जीवन की तल-संख्या ‘एक’ थी । और उसके सारी जीवन का मूल्य इस एक जीवन में अर्जित उसकी उपलबधियों के बराबर था । फ़कीर के जीवन की तल-संख्या ‘अनन्त, अनगिनत’ थी । और इसलिये, वो चाहे इस जीवन में जो कर ले, सब जीवनों में बँट कर इस जीवन की उपलब्धियाँ नगण्य थीं । मुझे लगता है कि शायद भारतीय मिथक के इसी पहलू के ज़रिये भारतीय गणितज्ञों ने ‘शून्य’ संख्या की खोज की होगी । क्या पता ?

और अब हम आते है कारोबार के मिथक पर । यदि सिकंदर का विश्वास उसके व्यवहार पर असर डाल सकता है, यदि फ़कीर का विश्वास उसके जीवन पर प्रभाव डालता है, तो निश्चय ही ये उन कारोबारों पर भी प्रभाव डालेगा जिनमें वो लगे थे । देखिये, कारोबार असल में इस बात का ही तो परिणाम है कि बाज़ार ने कैसा व्यवहार किया और संगठनों ने क्या व्यवहार किया ? यदि आप दुनिया भर की संस्कृतियों पर एक नज़र डालें, और उनके अपने अपने मिथकों को समझे, तो आप को उनका व्यवहार और उनका कारोबार का ढँग समझ आ जाएगा ।

धयान से देखिये । अगर आप एक ही जीवन वाली संस्कृति से नाता रखते हैं तो आप देखेंगे कि वो ‘पूर्णतः सही या पूर्णतः गलत’ के विचारधार से आसक्त हैं, निर्धारित पूर्ण सत्य, मानकीकरण, संपूर्णता, सीधी रेखा पर आधारित ढाँचे । पर यदि आप जीवन की पुनरावृत्ति वाली गोलाकार संस्कृति को देखेंगे आप देखेंगे कि वो अस्पष्ठता के सहज हैं, अनुमानों के साथ, विषयक सोच के साथ, ‘लगभग’ के साथ, संदर्भों पर आधारित मानकों के साथ — (हँसी) ज्यादातर । (हँसी)

चलिये, कला पर नज़र डालते हैं । बैले नर्तकी को देखिये । कैसे उसकी जुम्बिश सीधी रेखाकार होती है । और भारतीय सस्कृतिक नर्तकी को देखिये, कुचिपुडि, भरतनाट्यम नर्तकों को देखिये, घुमावदार । (हँसी)

और धंधे के तरीके देखिये । मानकों पर आधारित ढाँचा: अवलोकन, लक्ष्य, मूल्य, विधियाँ लगता है जैसे किसी ऐसे यात्रा की कल्पना है जो कि जंगल से सभ्य समाज तक ले जाती है, एक नेता के दिये गये निर्देशों के अनुसार । यदि आप निर्देशों का पालन करेंगे, स्वर्ग प्राप्त होगा ।

पर भारत में कोई एक स्वर्ग नहीं है, बहुत सारे अपने अपने स्वर्ग हैं, आप समाज के किस हिस्से से हैं, इस के हिसाब से आप जीवन के किस पडाव पर हैं, इस के हिसाब से देखिये, कारोबार संगठनों की तरह नहीं चलाये जाते, किसी एक व्यक्ति के निर्देशानुसार। वो हमेशा पसन्द के अनुसार चलते हैं । मेरे अपनी खास पसंद के अनुसार ।

जैसे, भारतीय संगीत, मिसाल के तौर पर, उसमें अनुरूपता, स्वर-संगति की कोई जगह नहीं है । वादकों के समूह का कोई एक निर्देशक नहीं होता है । एक कलाकार प्रदर्शन करता है, और बाकी सब लोग उसका अनुगमन करते हैं । और आप कभी भी उसके प्रदर्शन को बिलकुल वैसे ही दुबारा प्रस्तुत नहीं कर सकते । यहाँ लिखित प्रमाणों और अनुबंधों का खास महत्व नहीं है । यहाँ बातचीत और विश्वास पर ज्यादा ज़ोर है । यहाँ नियमों के पालन से ज्यादा ज़रूरी है ‘सेटिंग’, बस काम पूरा होना चाहिये, चाहे नियम को मोड कर, या उसे तोड कर – अपने आसपास मौजूद भारतीयों पर नज़र डालिये, देखिये सब मुस्करा रहे हैं, उन्हे पता है मैं क्या कर रहा हूँ। (हँसी) और अब ज़रा उन्हें देखिये जिन्हें भारत में व्यवसाय किया है, उनके चेहरे पर रोष छुपाये नहीं छुप रहा । (हँसी) (अभिवादन)

देखिये, आज का भारत यही है । धरातल की सच्चाई दुनिया को देखने के इसी गोलाकार नज़रिये पर टिकी है । इसीलिये ये लगातार बदल रही है, विविधताओं से परिपूर्ण है, अस्त-व्यस्त है, अनुमान से परे है । और लोगबाग इसे ठीक पाते हैं । और अब तो वैश्वीकरण हो रहा है । आधुनिक संगठननुमा सोच की माँग बढ रही है । जो कि रेखाकार सीधी सभ्यता की जड है । और एक वैचारिक मुठभेड होने वाली है, जैसे कि सिन्धु नदी के तट पर हुई थी । इसे होना ही है ।

मैनें खुद इसका अनुभव किया है । मैं एक प्रशिक्षित चिकित्सक हूँ । मुझे सर्जरी पढने का कतई मन नहीं था, और मत पूछिये क्यों । मुझे मिथक बहुत प्रिय हैं । मैं मिथकों को ही पढना चाहता था । मगर ऐसा कोई जगह नहीं है जहाँ ऐसा होता हो । तो मुझे स्वयं को ही पढाना पडा । और मिथकों से कमाई भी नहीं होती थी, कम से कम अब तक । (हँसी) तो मुझे नौकरी करनी पडी । और मैनें औषधि के उद्योग में काम लिया । फिर मैने स्वास्थय – उद्योग में भी काम किया । मैनें मार्कटिंग में काम किया, सेल्स में काम किया । तकनीकी जानकार के रूप में, प्रशिक्षक के रूप में, और विषय-वस्तु तैयार करने का काम भी किया । मै एक व्यावसायिक सलाहकार भी रहा हूँ- योजना और दाँव-पेंच तैयार करता रहा हूँ । और मुझे असंतुष्टि दिखती है अपने अमरीकन और यूरिपियन साथियों में जब वो भारत में काम करते हैं ।

उदाहरण के तौर पर: कृपया हमें बताइये कि हम हॉस्पिटलों को बिल कैसे भेजें । पहले A करें – फ़िर B करें – फ़िर C करें – ज्यादातर ऐसे ही होता है । (हँसी) अब आप ‘ज्यादातर’ की क्या परिभाषा लिखेंगे ? ‘ज्यादातर’ को साफ़्ट्वेयर में कैसे डालेंगे ? नहीं कर सकते ।

मैं उन्हें अपना दृष्टिकोण बताना चाहता था । मगर कोई भी सुनने को तैयार नहीं था, देखिये, जब तक मैं फ़्यूचर समुदाय के किशोर बियानी से नहीं मिला । देखिये, उन्होंने बिग बाजार नामक फुटकर बिक्री की सबसे बडी श्रंखला की स्थापना की है । और इसे कम से कम २०० अलग अलग तरीकों से भारत के करीब ५० शहरों और कस्बों में चलाय जाता है । और वो बहुत ही विविध और सक्रिय बाजारों से काम कर रहे थे । और उन्हें सहजता से पता था, कि उत्कृष्ट कार्य-प्रणालियाँ जो कि जापान, चीन, यूरोप और अमरीका में बनी हैं भारत में काम नहीं करेंगी । उन्हें पता था कि भारत में संस्थागत सोच नहीं चलेगी । यहाँ व्यक्तिगत सोच चलेगी । उन्हें भारत की मिथकीय बनावट की सहज समझ थी ।

तो, उन्होंने मुझसे मुख्य विश्वास अधिकारी बनने को कहा, और ये भी कहा, “मैं चाहता हूँ कि आप सबके विश्वास को एक धुरी पर लाएँ ।” कितना आसान सा लगता है ना । मगर विश्वास को मापा तो नहीं जा सकता । और ना ही उस पर प्रबंधन तकनीके लागू हो सकती हैं । तो आप कैसे विश्वास की आधार-शिला रखेंगे ? कैसे आप लोगों में भारतीयता के प्रति संवेदना बढाएँगे भारतीयों के लिये भी भारतीयता इतनी सहज या नहीं होती है ।

तो, मैनें संस्कृति का एक सर्वव्यापी ढाँचा तैयार करने का प्रयास किया, जो था – कहानियों का विकास करना, चिन्हों का विकास करना, और रीति-रिवाजों का विकास करना । और मैं ऐसे एक रिवाज के बारे में आपको बताता हूँ । देखिये ये हिन्दुओं की ‘दर्शन’ रीति पर आधारित है । हिन्दु धर्म में कोई धर्मादेश नहीं होते हैं । इसलिये जीवन में जो आप करते हैं, उसमें कुछ गलत या सही नहीं होता है । तो आप ईश्वर के सम्मुख पापी हैं या पुण्यात्मा, ये किसी को नहीं पता । तो आप जब मंदिर जाते है, आप सिर्फ़ ईश्वर से मिलना चाहते हैं । बस सिर्फ़ दो मिनट के लिय एक मुलाकात करना । आप सिर्फ़ उनके ‘दर्शन’ करना चाहती है, और इसलिये ईश्वर की बडी बडी आँखें होती हैं, विशाल अपलक टक टक ताकने वाले नेत्र, कभी कभी चाँदी के बने हुए, जिससे वो आप को देख सकें अब क्योंकि आपको भी ये नहीं पता कि आप सही थे या गलत, आप केवल देवता से समानुभूति की उम्मीद करते हैं । “बस जान लीजिये कि मैं कहाँ का हूँ, मैने जुगाड क्यों लगाई ।” (हँसी) “मैने ये सेटिंग क्यों भिडाई, मैं इतना नियम कानून की परवाह क्यों नहीं करता, थोडा समझिये ।”

तो इस आधार पर हमने अगुआ लोगों के लिये कुछ रिवाज बनाए । जब उसका प्रशिक्षण समाप्त होता है, और वो अपने दुकान का दारोमदार लेने वाला होता है, हम उस की आँखों पर पट्टी बाँधते है, और उसे घेर देते हैं, ग्राहकों से, उसके परिवारजनों से, उसके दल से, उसके अफसर से । और हम उसकी जिम्मेदारियों और उससे अपेक्षित प्रदर्शन की बात करके उसे चाबी सौंप देते हैं, और फिर उसकी पट्टी हटाते हैं । और हमेशा, एक आंसू उसकी आँखों में तैरता दिखता है, क्योंकि वो समझ चुका होता है । उसे समझ आ जाता है कि सफल होने के लिये, उसे कोई पेशेवर वयवसायी बनने की जरूरत नहीं है, उसे अपनी भावनाओं को मारने की कतई ज़रूरत नहीं है, उसे बस सब लोगों को साथ ले कर चलना है, उसकी दुनिया के अपने लोगों को, और उन्हें खुश रखना है, अपने अफसर को खुश रखना है, सब लोगों को खुश रखना है । ग्राहक को प्रसन्न रखना ही है, क्योंकि ग्राहक ईश्वर का रूप है ।

इस स्तर की संवेदनशीलता की आवश्यकता है । एक बार ये विश्वास घर कर ले, व्यवहार भी आने लगता है, धंधा भी चलने लगता है । और चला है । वापस सिकंदर की बात करते हैं । और फकीर की । और अक्सर मुझसे पूछा जाता है, “सही रास्ता क्या है – ये य वो ?” और ये बहुत ही खतरनाक प्रश्न है । क्योंकि ये आपको हिंसा और रूढिवादिता के रास्ते पर ले जाता है । इसलिये, मैं इसका उत्तर नहीं दूँगा । मैं आपको इसका भारतीयता-पूर्ण उत्तर दूँगा, हमारा प्रसिद्ध सिर हिलाने का इशारा । (हँसी) (अभिवादन)

संदर्भ के अनुसार, कार्य के परिणाम के हिसाब से, अपना दृष्टिकोण चुनिये । देखिये, क्योंकि दोनो ही नज़रिये इंसानी कल्पनाएँ हैं । सांस्कृतिक कल्पनाएँ हैं, न कि कोई प्राकृतिक सत्य । तो जब अगली बार आप किसी अजनबी से मिलें, एक प्रार्थना है: समझियेगा कि आप संदर्भ-आधारित सत्य में जीवित हैं, और वो अजनबी भी । इसे बिलकुल जहन में उतार लीजिये । और जब आप ये समझ जाएँगे, आप एक शानदार रत्न पा लेंगे । आपको इसका भान होगा कि अनगिनत मिथकों के बीच परम सत्य स्थापित है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड को कौन देखता है ? वरुण हज़ार नेत्रों का स्वामी है । इन्द्र, सौ नेत्रो का । आप और मैं, केवल दो नेत्रों के .
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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

अच्छे विचार : बुरे विचार

“मुझे कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है. मैं हर समय उन चीज़ों के बारे में सोचता रहता हूँ जिनका निषेध किया गया है. मेरे मन में उन वस्तुओं को प्राप्त करने की इच्छा होती रहती है जो वर्जित हैं. मैं उन कार्यों को करने की योजनायें बनाते रहता हूँ जिन्हें करना मेरे हित में नहीं होगा. मैं क्या करूं?” – शिष्य ने गुरु से उद्विग्नतापूर्वक पूछा.

गुरु ने शिष्य को पास ही गमले में लगे एक पौधे को देखने के लिए कहा और पूछा कि वह क्या है. शिष्य के पास उत्तर नहीं था.

“यह बैलाडोना का विषैला पौधा है. यदि तुम इसकी पत्तियों को खा लो तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी. लेकिन इसे देखने मात्र से यह तुम्हारा कुछ अहित नहीं कर सकता. उसी प्रकार, अधोगति को ले जाने वाले विचार तुम्हें तब तक हानि नहीं पहुंचा सकते जब तक तुम उनमें वास्तविक रूप से प्रवृत्त न हो जाओ”

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

Choti choti baate

Aaj net suffering ke dauran mujhe ek aise site mili jo ke insaan me nai umang aur nai chetna bhar sakti hai. Maine usme kai aise baate jani jo ki karte to hum sabhi hai par shayad hum dhyan nahi dete. Jab ki jingagi ki anmol khushiya un chote chote palo me hi hai jin par hum kabhi bhi dhayan nahi dete. Agar vastaav me khush rahna hai to hame un choti choti baato me dhyan dena hoga. Mujhe lagta hai ki aap logo ko wo choti choti baate yaad aa gai hogi jinki mai yaha par baat kar raha hu. Agar nahi aai ho to kal jab aap so kar uthe to apne dainik jiwan me se un choti baato par dhyan de jin par aap ne kabhi bhi vichar nahi kiya. Aur mujhe baatye.

Choti choti baate

Aaj net suffering ke dauran mujhe ek aise site mili jo ke insaan me nai umang aur nai chetna bhar sakti hai. Maine usme kai aise baate jani jo ki karte to hum sabhi hai par shayad hum dhyan nahi dete. Jab ki jingagi ki anmol khushiya un chote chote palo me hi hai jin par hum kabhi bhi dhayan nahi dete. Agar vastaav me khush rahna hai to hame un choti choti baato me dhyan dena hoga. Mujhe lagta hai ki aap logo ko wo choti choti baate yaad aa gai hogi jinki mai yaha par baat kar raha hu. Agar nahi aai ho to kal jab aap so kar uthe to apne dainik jiwan me se un choti baato par dhyan de jin par aap ne kabhi bhi vichar nahi kiya. Aur mujhe baatye.

Jabalpur visit





ऐसा लगता है की जैसे अब सब खत्म होता जा रहा है मै ये समझ नहीं पा रहा हू, की ये मेरे साथ ही क्यों हो रहा है, मै अब कुछ भी अच्छा क्यों नहीं कर पा रहा हू. लगता है की जो भी मेरा आत्मविश्वाश था वो सब ख़तम होता जा रहा है. मै अपने आप को बहुत ही गिरा हुआ मह्शसुस कर रहा हू . क्रय्पया भगवान इससे मुझे निकालो.

अंधविश्वास या विज्ञान

अंधविश्वास
हिन्दू मान्यता के मुताबित रात में पीपल के पेड़ो पर बुरी आत्माओ या बुरी शक्तियों का वास होता है | और हमें बताया गया है की रात को पीपल के पेड़ पास नही जाना चाहिए खासतौर पर उन स्त्रियों के लिए जो रात में खुले बालो के साथ नही जाना चाहिए और पीपल के पेड़ को घर के आंगन में नही लगाना चाहिए |

इसके पीछे का विज्ञान

पीपल को पेड़ो का राजा माना गया है यह आम पेड़ो के मुकाबले ज्यादा जल्दी बदता है | और अपनी जड़े ज्यादा गहराई तक होती है और इसकी शाखाये भी लम्बी और घनी होती है | ये रात में ज्यादा तेजी से ओक्सिजन लेता है जो की मनुष्य के लिए हानिकारक होती है | इसलिए हमारे बुजुर्गो ने रात के समय

तीन पेड़ो की कथा

यह एक बहुत पुरानी बात है| किसी नगर के समीप एक जंगल तीन वृक्ष थे| वे तीनों अपने सुख-दुःख और सपनों के बारे में एक दूसरे से बातें किया करते थे| एक दिन पहले वृक्ष ने कहा – “मैं खजाना रखने वाला बड़ा सा बक्सा बनना चाहता हूँ| मेरे भीतर हीरे-जवाहरात और दुनिया की सबसे कीमती निधियां भरी जाएँ. मुझे बड़े हुनर और परिश्रम से सजाया जाय, नक्काशीदार बेल-बूटे बनाए जाएँ, सारी दुनिया मेरी खूबसूरती को निहारे, ऐसा मेरा सपना है|”

दूसरे वृक्ष ने कहा – “मैं तो एक विराट जलयान बनना चाहता हूँ| ताकि बड़े-बड़े राजा और रानी मुझपर सवार हों और दूर देश की यात्राएं करें, मैं अथाह समंदर की जलराशि में हिलोरें लूं, मेरे भीतर सभी सुरक्षित महसूस करें और सबका यकीन मेरी शक्ति में हो… मैं यही चाहता हूँ|” अंत में तीसरे वृक्ष ने कहा – “मैं तो इस जंगल का सबसे बड़ा और ऊंचा वृक्ष ही बनना चाहता हूँ| लोग दूर से ही मुझे देखकर पहचान लें, वे मुझे देखकर ईश्वर का स्मरण करें, और मेरी शाखाएँ स्वर्ग तक पहुंचें… मैं संसार का सर्वश्रेष्ठ वृक्ष ही बनना चाहता हूँ|”

ऐसे ही सपने देखते-देखते कुछ साल गुज़र गए. एक दिन उस जंगल में कुछ लकड़हारे आए| उनमें से जब एक ने पहले वृक्ष को देखा तो अपने साथियों से कहा – “ये जबरदस्त वृक्ष देखो! इसे बढ़ई को बेचने पर बहुत पैसे मिलेंगे.” और उसने पहले वृक्ष को काट दिया| वृक्ष तो खुश था, उसे यकीन था कि बढ़ई उससे खजाने का बक्सा बनाएगा|

दूसरे वृक्ष के बारे में लकड़हारे ने कहा – “यह वृक्ष भी लंबा और मजबूत है| मैं इसे जहाज बनाने वालों को बेचूंगा”| दूसरा वृक्ष भी खुश था, उसका चाहा भी पूरा होने वाला था|

लकड़हारे जब तीसरे वृक्ष के पास आए तो वह भयभीत हो गया|वह जानता था कि अगर उसे काट दिया गया तो उसका सपना पूरा नहीं हो पाएगा| एक लकड़हारा बोला – “इस वृक्ष से मुझे कोई खास चीज नहीं बनानी है इसलिए इसे मैं ले लेता हूं”| और उसने तीसरे वृक्ष को काट दिया|

पहले वृक्ष को एक बढ़ई ने खरीद लिया और उससे पशुओं को चारा खिलानेवाला कठौता बनाया|कठौते को एक पशुगृह में रखकर उसमें भूसा भर दिया गया| बेचारे वृक्ष ने तो इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी|दूसरे वृक्ष को काटकर उससे मछली पकड़नेवाली छोटी नौका बना दी गई| भव्य जलयान बनकर राजा-महाराजाओं को लाने-लेजाने का उसका सपना भी चूर-चूर हो गया| तीसरे वृक्ष को लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़ों में काट लिया गया और टुकड़ों को अंधेरी कोठरी में रखकर लोग भूल गए|

एक दिन उस पशुशाला में एक आदमी अपनी पत्नी के साथ आया और स्त्री ने वहां एक बच्चे को जन्म दिया|वे बच्चे को चारा खिलानेवाले कठौते में सुलाने लगे। कठौता अब पालने के काम आने लगा| पहले वृक्ष ने स्वयं को धन्य माना कि अब वह संसार की सबसे मूल्यवान निधि अर्थात एक शिशु को आसरा दे रहा था|

समय बीतता गया और सालों बाद कुछ नवयुवक दूसरे वृक्ष से बनाई गई नौका में बैठकर मछली पकड़ने के लिए गए, उसी समय बड़े जोरों का तूफान उठा और नौका तथा उसमें बैठे युवकों को लगा कि अब कोई भी जीवित नहीं बचेगा। एक युवक नौका में निश्चिंत सा सो रहा था। उसके साथियों ने उसे जगाया और तूफान के बारे में बताया। वह युवक उठा और उसने नौका में खड़े होकर उफनते समुद्र और झंझावाती हवाओं से कहा – “शांत हो जाओ”, और तूफान थम गया| यह देखकर दूसरे वृक्ष को लगा कि उसने दुनिया के परम ऐश्वर्यशाली सम्राट को सागर पार कराया है |

तीसरे वृक्ष के पास भी एक दिन कुछ लोग आये और उन्होंने उसके दो टुकड़ों को जोड़कर एक घायल आदमी के ऊपर लाद दिया। ठोकर खाते, गिरते-पड़ते उस आदमी का सड़क पर तमाशा देखती भीड़ अपमान करती रही। वे जब रुके तब सैनिकों ने लकड़ी के सलीब पर उस आदमी के हाथों-पैरों में कीलें ठोंककर उसे पहाड़ी की चोटी पर खड़ा कर दिया|दो दिनों के बाद रविवार को तीसरे वृक्ष को इसका बोध हुआ कि उस पहाड़ी पर वह स्वर्ग और ईश्वर के सबसे समीप पहुंच गया था क्योंकि ईसा मसीह को उसपर सूली पर चढ़ाया गया था।

निष्कर्ष :-- सब कुछ अच्छा करने के बाद भी जब हमारे काम बिगड़ते जा रहे हों तब हमें यह समझना चाहिए कि शायद ईश्वर ने हमारे लिए कुछ बेहतर सोचा है| यदि आप उसपर यकीन बरक़रार रखेंगे तो वह आपको नियामतों से नवाजेगा|प्रत्येक वृक्ष को वह मिल गया जिसकी उसने ख्वाहिश की थी, लेकिन उस रूप में नहीं मिला जैसा वे चाहते थे। हम नहीं जानते कि ईश्वर ने हमारे लिए क्या सोचा है या ईश्वर का मार्ग हमारा मार्ग है या नहीं… लेकिन उसका मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है|

Jo hoga wo accha hi hoga

सब कुछ अच्छा करने के बाद भी जब हमारे काम बिगड़ते जा रहे हों तब हमें यह समझना चाहिए कि शायद ईश्वर ने हमारे लिए कुछ बेहतर सोचा है| यदि आप उसपर यकीन बरक़रार रखेंगे तो वह आपको नियामतों से नवाजेगा|

God is great

एक परमभक्त को ईश्वर ने दर्शन दिए. भक्त ने ईश्वर से पूछा – “प्रभु, क्या मैं आपसे एक प्रश्न पूछ सकता हूँ?

ईश्वर ने कहा – “अवश्य. जो चाहे पूछो.”

भक्त ने कहा – “प्रभु, आप तो इस सृष्टि में अनादि-अनंत काल से हैं. ऐसे में ‘एक हज़ार साल’ आपके लिए कितना समय होगा?

ईश्वर ने उत्तर दिया – “पुत्र, एक हज़ार साल मेरे लिए पांच मिनट के बराबर हैं.”

भक्त ने पुनः पूछा – “यह तो अद्भुत है! तो फिर आपके लिए दस लाख रूपये कितने रुपयों के बराबर हैं?

ईश्वर ने कहा – “मेरे लिए दस लाख रूपये पांच पैसों के बराबर हैं”

यह सुनकर भक्त ने अतिउत्साह से पूछा – “अच्छा! तो प्रभु क्या आप मुझे पांच पैसे दे सकते हैं?”

ईश्वर ने भक्त की ओर मुस्कुराकर देखा और कहा – “क्यों नहीं पुत्र? तुम सिर्फ पांच मिनट के लिए