छः साल के बालक अल्बर्ट आइंस्टाइन को जर्मनी के म्यूनिख शहर के सबसे अच्छे स्कूल में भरती किया गया। इन स्कूलों को उन दिनों जिम्नेजियम कहा जाता था और उनकी पढ़ाई दस वर्षों में पूरी होती थी।
इस बालक के शिक्षक उससे बहुत परेशान थे। वे उसकी एक आदत के कारन हमेशा उससे नाराज़ रहते थे – प्रश्न पूछने की आदत के कारण। घर हो या स्कूल, अल्बर्ट इतने ज्यादा सवाल पूछता था कि सामनेवाला व्यक्ति अपना सर पकड़ लेता था। एक दिन उसके पिता उसके लिए, एक दिशासूचक यन्त्र खरीद कर लाये तो अल्बर्ट ने उनसे उसके बारे में इतने सवाल पूछे कि वे हैरान हो गए। आज भी स्कूलों के बहुत सारे शिक्षक बहुत ज्यादा सवाल पूछनेवाले बच्चे को हतोत्साहित कर देते हैं, आज से लगभग १२५ साल पहले तो हालात बहुत बुरे थे।
अल्बर्ट इतनी तरह के प्रश्न पूछता था कि उनके जवाब देना तो दूर, शिक्षक यह भी नहीं समझ पते थे कि अल्बर्ट ने वह प्रश्न कैसे बूझ लिया। नतीजतन, वे किसी तरह टालमटोल करके उससे अपना पिंड छुड़ा लेते।
जब अल्बर्ट दस साल का हुआ तो उसके पिता अपना कारोबार समेटकर इटली के मिलान शहर में जा बसे। अल्बर्ट को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए म्यूनिख में ही रुकना पड़ा।
परिवार से अलग हो जाने के कारण अल्बर्ट दुखी था। दूसरी ओर, उसके सवालों से तंग आकर उसके स्कूल के शिक्षक चाहते थे कि वह किसी और स्कूल में चला जाए। हेडमास्टर भी यही चाहता था। उसके अल्बर्ट को बुलाकर कहा – “यहाँ का मौसम तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। इसीलिए हम तुम्हें लम्बी छुट्टी दे रहे हैं। तबीयत ठीक हो जाने पर तुम किसी और स्कूल में दाखिल हो जाना।”
अल्बर्ट को इससे दुःख भी हुआ और खुशी भी हुई।
अपनी पढ़ाई में अल्बर्ट हमेशा औसत विद्यार्थी ही रहे। प्रश्न पूछना और उनके जवाब ढूँढने की आदत ने अल्बर्ट को विश्व का महानतम वैज्ञानिक बनने में सहायता की। सच मानें, आज भी विश्व में उनके सापेक्षता के सिद्धांत को पूरी तरह से समझनेवालों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है।
(यह कहानी http://hindizen.com से ली गयी..
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