सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

देवदत्त पटनायक: पूरब बनाम पश्चिम – मिथकों की मिथ्यता

ये समझने के लिये कि पौराणिक कथाओं का मामला और मुख्य विश्वास अधिकारी का काम क्या है, आपको एक कहानी सुननी होगी भगवान गणेश की कहानी, भगवान गजानन – हाथी के सर वाले भगवान की कहानी जो कि कथावाचकों के सरताज़ हैं, और उनके भाई, देवताओं के सेनापति कार्तिकेय । एक दिन दोनो भाइयों में एक प्रतियोगिता हुई – एक दौड पूरे ब्रह्माण्ड के तीन चक्कर लगाने की दौड कार्तिकेय अपने मोर पर सवार हुए और महाद्वीपों को नाप डाला फिर पहाडों को, फिर सागरों को, उन्होंने ब्रह्माण्ड का पहला चक्कर लगाया, फिर दूसरा और फिर तीसरा चक्कर भी लगा डाला । पर उनके भाई, गणॆश ने मात्र अपने माता-पिता की परिक्रमा की एक बार, दो बार, और तीन बार, और एलान कर डाला, “मैं जीत गया ।” कार्तिकेय ने पूछा, “कैसे ?” और तब गणेश ने कहा, “तुमने ‘ब्रहमाण्ड’ की परिक्रमा की । और मैने ‘अपने ब्रह्माण्ड’ की ।” संसार और मेरे संसार में ज्यादा महत्व किसका है ?

यदि आप ‘संसार’ और ‘मेरे संसार’ के बीच के अंतर को समझ सके, तो आप ‘सही’ और ‘मेरे लिये सही’ के अंतर को समझ सकेंगे । ‘संसार’ लक्ष्य-निर्धारित है, तार्किक है, तथ्यात्मक है, संपूर्ण है, वैज्ञानिक है । ‘मेरा संसार’ व्यक्तिपरक है. यह भावुक है. यह निजी है. इसके अपने दृष्टिकोण, विचार हैं – अपननी भावनाएँ और अपने सपने है । ये जीवन मूल्यों का एक ढाँचा है जिससे अंतर्गत हम जीवन व्यतीत करते हैं । यह मिथक है कि हम तटस्थ हो कर रह रहे हैं ।

‘संसार’ हमें बताता है कि क्या चल रहा है, सूरज उग कैसे रहा है, हम पैदा कैसे होते हैं । ‘मेरा संसार’ बताता है कि सूरज क्यों उग रहा है, हम क्यों पैदा हुए । हर संस्कृति स्वयं को ही समझने की कोशिश कर रही है, “हम अस्तित्व का कारण क्या है ?” और हर संस्कृति ने अपने अपने जवाब ढूँढे हैं, अपनी समझ के अनुरूप पौराणिक गाथाओं के रूप में ।

संस्कृति प्रकृति के प्रति हमारी प्रतिक्रिया है, और इस प्रतिक्रिया की समझ, हमारी पूर्वजों के अनुसार पीढी दर पीढी चलती आ रही है कथाओं, प्रतीकों और अनुष्ठानों के रूप में, जिन्हें तर्क, कारण और विश्लेषणॊं से कोई मतलब नहीं है । और जब आप इसमें गहरे उतरेंगे, तो आपको पता चलेगा कि दुनिया के अलग अलग लोग दुनिया को अपने अलग ढँग से समझते हैं । अलग अलग लोग एक ही चीज़ को : अलग अलग दृष्टिकोणों से देखते हैं ।

एक हुई मेरी दुनिया और एक हुई आपकी दुनिया, और मेरी दुनिया हमेशा मुझे आपकी दुनिया से बेहतर लगती है, क्योंकि देखिये, मेरी दुनिया तर्कसंगत है और आपकी अंधविश्वास पर आधारित, आपकी मात्र विश्वास पर चलती है तर्क पर आधारित नहीं है । यही सभ्यताओं के संघर्ष की जड़ है । 326 ईसा पूर्व में भी यह बहस एक बार हुई थी । सिंधु नदी के तट पर, जो कि अब पाकिस्तान में है । इस नदी से ही इण्डिया को उसका नाम मिला है । सिन्धु – हिन्दु – इन्दु – इन्डिया ।

सिकंदर, युवा मकदूनियन, वहाँ ऐसे व्यक्ति से मिला जिसे उसने ‘जिमनोसोफ़िस्ट’ कहा है, जिसका अर्थ है ‘नंगा फ़कीर’ हम नहीं जानते कि वह कौन था । शायद कोई जैन साधु रहा हो, जैसे कि बाहुबली, यहीं पास में ही, गोमतेश्वर बाहुबली, मैसूर से ज्यादा दूर नहीं है उनकी छवि । या फ़िर शायद वो कोई योगी रहा हो, चट्टान पर बैठा, आसमान को ताकता, और सूरज और चाँद को निहारता ।

सिकंदर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और नंगे फ़कीर ने जवाब दिया, “मैं शून्यता का अनुभव कर रहा हूँ.” फिर फ़कीर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और सिकंदर ने जवाब दिया, “मैं दुनिया पर विजय प्राप्त कर रहा हूँ ।” और फिर वो दोनो हँसने लगे । दोनो एक दूसरे को मूर्ख समझ रहे थे । फ़कीर ने पूछा कि वो दुनिया को जीतने क्यों चाहता है । वो व्यर्थ है । और सिकंदर ने सोचा, “ये साधु यहाँ बैठ कर वक्त क्यों गँवा रहा है?” सारे जीवन को व्यर्थ कर रहा है ।

इन दोनों के विचारों के फ़र्क को समझने के लिये हमें समझना होगा कि सिकंदर का अपना सत्य समझना होगा: और उन मिथकों को, जिन्होने उस सत्य को जन्म दिया । सिकंदर के माँ-बाप और उसके शिक्षक अरस्तु ने उसे होमर के इलियाड की कहानियाँ सुनाई थीं । महान नायक अचिलस की कहानी, जिसका लडाई में होना भर, विजय सुनिश्चित करता था, पर यदि वो लडाई में न हो, तो हार भी निश्नित होती थी । “अचिलस वो व्यक्ति था जो इतिहास बदलने की क्षमता रखता था, नियति को काबू कर लेने वाला, और सिकंदर, तुम्हें उस जैसा बनना चाहिये ।” उसने ये सुना था ।

“और तुम्हें क्या नहीं बनना चाहिये ? तुम्हें सिसिफस नहीं बनना चाहिये, जो कि दिन भर भारी चट्टान को पहाड पर चढाता है और हर रात, चट्टान वापस लुढक जाती है । ऐसा जीवन मत जियो जो साधारण हो, औसत, निरर्थक हो । भव्य बनो ! — ग्रीक नायकों की तरह, जैसे जेसन, जो कि समंदर पार गया अरगोनाट्स के साथ और सुनहरी ऊन ले कर आया । महान बनो जैसे थीसियस, जिसने नर्क में घुस कर भैंसे के सिर वाले राक्षस मिनोटोर को मार गिराया । जब जब प्रतियोगिता में भाग लो, जीतो ! — क्योंकि जीत की प्रसन्नता, उसकी अनुभव देवों के सामीप्य का सबसे प्रत्यक्क्ष अनुभव होगा ।”

देखिय, ग्रीक ये मानते थे कि आप केवल एक बार जीते है और जब आपकी मृत्यु होती है, आप स्टिक्स नदी पार करते हैं, और यदि आपने भव्य जीवन जिया है, तो आपको अलीसियम (स्वर्ग) में आमंत्रित किया जायेगा, या जिसे फ़्रांसीसी लोग ‘शाम्पस-अलीयसीज़’ (पेरिस की प्रसिद्ध बाज़ार) कहते हैं — (हँसी) — महापुरोषों का स्वर्ग ।

पर ये वो कहानियाँ नहीं थी जो हमारे फ़कीर ने सुनी थीं । उसने बहुत अलग कहानियाँ सुनी थीं । उसने भरत नाम के व्यक्ति के बारे में सुना था, जिसकी नाम पर इण्डिया को भारत भी कहते है । भरत ने भी विश्व-विजय प्राप्त की थी । और तब वो संसार के केंन्द्र-बिन्दु पर स्थित सबसे बडे पहाड की सबसे ऊँची चोटी पर गया, जिसका नाम था मेरु । और वो वहाँ अपने नाम का झंडा फहराना चाहता था, “मैं यहाँ आने वाला पहला व्यक्ति था ।” पर जब वो मेरु पर्वत पर पहुँचा, तो उसने उसे अनगिनत झंडों से ढका पाया, उससे पहले आने वाले विश्व-विजयिओं के झंडों से, हर झंडा दाव कर रहा था “मैं यहाँ सबसे पहले आया… …ऐसा मैं सोचता था जब तक मैं यहाँ नहीं आया था ।” और अचानक, अनन्ता की इस पृष्ठभूमि में, भरत ने स्वयं को क्षुद्र, नगण्य़ पाया । ये उस फ़कीर का सुना हुआ मिथक था ।

देखिय, फ़कीर के भी अपने नायक थे, जैसे राम – रघुपति राम और कृष्ण, गोविन्द, हरि । परन्तु वो दो अलग अलग पात्र दो अलग अलग अभियानों पर निकले दो अलग अलग नायक नहीं थे । वो एक ही नायक के दो जन्म थे । जब रामायण काल समाप्त होता है, तो महाभारत काल प्रारंभ होता है । जब राम यमलोक सिधारते है, कृष्ण जन्म लेते है । जब कृष्ण यमलोक जाते है, तो वो पुनः राम के रूप में अवतार लेते हैं ।

भारतीय मिथकों में भी एक नदी है जो कि जीवितों और मृतकों की दुनिया की सीमारेखा है । पर इसे केवल एक बार ही पार नहीं करना होता है । इस के तो आर-पार अनन्ता तक आना जाना होता है । इस नदी का नाम है वैतरणी । आप बार-बार, बारम्बार आते जाते है । क्योंकि, आप देखिये, भारत में कुछ भी हमेशा नहीं टिकता, मृत्यु भी नहीं । इसलिये ही तो, हमारे भव्य आयोजनों में देवियों की महान मूर्तियाँ तैयार की जाती हैं, उन्हें दस दिन तक पूजा जाता है… और दस दिन के बाद क्या होत है ? उसे नदी में विसर्जित कर दिया जाता है । क्योंकि उसका अंत होना ही है । और अगले साल, वो देवी फिर आयेगी । जो जाता है, वो ज़रूर ज़रूर लौटता है और ये सिर्फ़ मानवों पर ही नहीं, बल्कि देवताओं पर भी लागू होता है । देखिये, देवताओं को भी बार बार कई बार अवतार लेना होगा, राम के रूप में , कृष्ण के रूप में न सिर्फ़ वो अनगिनत जन्म लेते हैं, वो उसी जीवन को अनगिनत बार जीते हैं जब तक कि सब कुछ समझ ना आ जाये । ग्राउन्डहॉग डे (इसे विचार पर बनी एक हॉलीवुड फ़िल्म) । (हँसी)

दो अलग मिथयताएँ इसमें सही कौन सी है ? दो अलग समझें, दुनिया को समझने के दो अलग नज़रिये । एक सीधी रेखा में और दूसरा गोलाकार एक मानता है कि केवल यही और सिर्फ़ यही एक जीवन है। और दूसरा मानता है कि यह कई जीवनों में से एक जीवन है । और इसलिये सिकंदर के जीवन की तल-संख्या ‘एक’ थी । और उसके सारी जीवन का मूल्य इस एक जीवन में अर्जित उसकी उपलबधियों के बराबर था । फ़कीर के जीवन की तल-संख्या ‘अनन्त, अनगिनत’ थी । और इसलिये, वो चाहे इस जीवन में जो कर ले, सब जीवनों में बँट कर इस जीवन की उपलब्धियाँ नगण्य थीं । मुझे लगता है कि शायद भारतीय मिथक के इसी पहलू के ज़रिये भारतीय गणितज्ञों ने ‘शून्य’ संख्या की खोज की होगी । क्या पता ?

और अब हम आते है कारोबार के मिथक पर । यदि सिकंदर का विश्वास उसके व्यवहार पर असर डाल सकता है, यदि फ़कीर का विश्वास उसके जीवन पर प्रभाव डालता है, तो निश्चय ही ये उन कारोबारों पर भी प्रभाव डालेगा जिनमें वो लगे थे । देखिये, कारोबार असल में इस बात का ही तो परिणाम है कि बाज़ार ने कैसा व्यवहार किया और संगठनों ने क्या व्यवहार किया ? यदि आप दुनिया भर की संस्कृतियों पर एक नज़र डालें, और उनके अपने अपने मिथकों को समझे, तो आप को उनका व्यवहार और उनका कारोबार का ढँग समझ आ जाएगा ।

धयान से देखिये । अगर आप एक ही जीवन वाली संस्कृति से नाता रखते हैं तो आप देखेंगे कि वो ‘पूर्णतः सही या पूर्णतः गलत’ के विचारधार से आसक्त हैं, निर्धारित पूर्ण सत्य, मानकीकरण, संपूर्णता, सीधी रेखा पर आधारित ढाँचे । पर यदि आप जीवन की पुनरावृत्ति वाली गोलाकार संस्कृति को देखेंगे आप देखेंगे कि वो अस्पष्ठता के सहज हैं, अनुमानों के साथ, विषयक सोच के साथ, ‘लगभग’ के साथ, संदर्भों पर आधारित मानकों के साथ — (हँसी) ज्यादातर । (हँसी)

चलिये, कला पर नज़र डालते हैं । बैले नर्तकी को देखिये । कैसे उसकी जुम्बिश सीधी रेखाकार होती है । और भारतीय सस्कृतिक नर्तकी को देखिये, कुचिपुडि, भरतनाट्यम नर्तकों को देखिये, घुमावदार । (हँसी)

और धंधे के तरीके देखिये । मानकों पर आधारित ढाँचा: अवलोकन, लक्ष्य, मूल्य, विधियाँ लगता है जैसे किसी ऐसे यात्रा की कल्पना है जो कि जंगल से सभ्य समाज तक ले जाती है, एक नेता के दिये गये निर्देशों के अनुसार । यदि आप निर्देशों का पालन करेंगे, स्वर्ग प्राप्त होगा ।

पर भारत में कोई एक स्वर्ग नहीं है, बहुत सारे अपने अपने स्वर्ग हैं, आप समाज के किस हिस्से से हैं, इस के हिसाब से आप जीवन के किस पडाव पर हैं, इस के हिसाब से देखिये, कारोबार संगठनों की तरह नहीं चलाये जाते, किसी एक व्यक्ति के निर्देशानुसार। वो हमेशा पसन्द के अनुसार चलते हैं । मेरे अपनी खास पसंद के अनुसार ।

जैसे, भारतीय संगीत, मिसाल के तौर पर, उसमें अनुरूपता, स्वर-संगति की कोई जगह नहीं है । वादकों के समूह का कोई एक निर्देशक नहीं होता है । एक कलाकार प्रदर्शन करता है, और बाकी सब लोग उसका अनुगमन करते हैं । और आप कभी भी उसके प्रदर्शन को बिलकुल वैसे ही दुबारा प्रस्तुत नहीं कर सकते । यहाँ लिखित प्रमाणों और अनुबंधों का खास महत्व नहीं है । यहाँ बातचीत और विश्वास पर ज्यादा ज़ोर है । यहाँ नियमों के पालन से ज्यादा ज़रूरी है ‘सेटिंग’, बस काम पूरा होना चाहिये, चाहे नियम को मोड कर, या उसे तोड कर – अपने आसपास मौजूद भारतीयों पर नज़र डालिये, देखिये सब मुस्करा रहे हैं, उन्हे पता है मैं क्या कर रहा हूँ। (हँसी) और अब ज़रा उन्हें देखिये जिन्हें भारत में व्यवसाय किया है, उनके चेहरे पर रोष छुपाये नहीं छुप रहा । (हँसी) (अभिवादन)

देखिये, आज का भारत यही है । धरातल की सच्चाई दुनिया को देखने के इसी गोलाकार नज़रिये पर टिकी है । इसीलिये ये लगातार बदल रही है, विविधताओं से परिपूर्ण है, अस्त-व्यस्त है, अनुमान से परे है । और लोगबाग इसे ठीक पाते हैं । और अब तो वैश्वीकरण हो रहा है । आधुनिक संगठननुमा सोच की माँग बढ रही है । जो कि रेखाकार सीधी सभ्यता की जड है । और एक वैचारिक मुठभेड होने वाली है, जैसे कि सिन्धु नदी के तट पर हुई थी । इसे होना ही है ।

मैनें खुद इसका अनुभव किया है । मैं एक प्रशिक्षित चिकित्सक हूँ । मुझे सर्जरी पढने का कतई मन नहीं था, और मत पूछिये क्यों । मुझे मिथक बहुत प्रिय हैं । मैं मिथकों को ही पढना चाहता था । मगर ऐसा कोई जगह नहीं है जहाँ ऐसा होता हो । तो मुझे स्वयं को ही पढाना पडा । और मिथकों से कमाई भी नहीं होती थी, कम से कम अब तक । (हँसी) तो मुझे नौकरी करनी पडी । और मैनें औषधि के उद्योग में काम लिया । फिर मैने स्वास्थय – उद्योग में भी काम किया । मैनें मार्कटिंग में काम किया, सेल्स में काम किया । तकनीकी जानकार के रूप में, प्रशिक्षक के रूप में, और विषय-वस्तु तैयार करने का काम भी किया । मै एक व्यावसायिक सलाहकार भी रहा हूँ- योजना और दाँव-पेंच तैयार करता रहा हूँ । और मुझे असंतुष्टि दिखती है अपने अमरीकन और यूरिपियन साथियों में जब वो भारत में काम करते हैं ।

उदाहरण के तौर पर: कृपया हमें बताइये कि हम हॉस्पिटलों को बिल कैसे भेजें । पहले A करें – फ़िर B करें – फ़िर C करें – ज्यादातर ऐसे ही होता है । (हँसी) अब आप ‘ज्यादातर’ की क्या परिभाषा लिखेंगे ? ‘ज्यादातर’ को साफ़्ट्वेयर में कैसे डालेंगे ? नहीं कर सकते ।

मैं उन्हें अपना दृष्टिकोण बताना चाहता था । मगर कोई भी सुनने को तैयार नहीं था, देखिये, जब तक मैं फ़्यूचर समुदाय के किशोर बियानी से नहीं मिला । देखिये, उन्होंने बिग बाजार नामक फुटकर बिक्री की सबसे बडी श्रंखला की स्थापना की है । और इसे कम से कम २०० अलग अलग तरीकों से भारत के करीब ५० शहरों और कस्बों में चलाय जाता है । और वो बहुत ही विविध और सक्रिय बाजारों से काम कर रहे थे । और उन्हें सहजता से पता था, कि उत्कृष्ट कार्य-प्रणालियाँ जो कि जापान, चीन, यूरोप और अमरीका में बनी हैं भारत में काम नहीं करेंगी । उन्हें पता था कि भारत में संस्थागत सोच नहीं चलेगी । यहाँ व्यक्तिगत सोच चलेगी । उन्हें भारत की मिथकीय बनावट की सहज समझ थी ।

तो, उन्होंने मुझसे मुख्य विश्वास अधिकारी बनने को कहा, और ये भी कहा, “मैं चाहता हूँ कि आप सबके विश्वास को एक धुरी पर लाएँ ।” कितना आसान सा लगता है ना । मगर विश्वास को मापा तो नहीं जा सकता । और ना ही उस पर प्रबंधन तकनीके लागू हो सकती हैं । तो आप कैसे विश्वास की आधार-शिला रखेंगे ? कैसे आप लोगों में भारतीयता के प्रति संवेदना बढाएँगे भारतीयों के लिये भी भारतीयता इतनी सहज या नहीं होती है ।

तो, मैनें संस्कृति का एक सर्वव्यापी ढाँचा तैयार करने का प्रयास किया, जो था – कहानियों का विकास करना, चिन्हों का विकास करना, और रीति-रिवाजों का विकास करना । और मैं ऐसे एक रिवाज के बारे में आपको बताता हूँ । देखिये ये हिन्दुओं की ‘दर्शन’ रीति पर आधारित है । हिन्दु धर्म में कोई धर्मादेश नहीं होते हैं । इसलिये जीवन में जो आप करते हैं, उसमें कुछ गलत या सही नहीं होता है । तो आप ईश्वर के सम्मुख पापी हैं या पुण्यात्मा, ये किसी को नहीं पता । तो आप जब मंदिर जाते है, आप सिर्फ़ ईश्वर से मिलना चाहते हैं । बस सिर्फ़ दो मिनट के लिय एक मुलाकात करना । आप सिर्फ़ उनके ‘दर्शन’ करना चाहती है, और इसलिये ईश्वर की बडी बडी आँखें होती हैं, विशाल अपलक टक टक ताकने वाले नेत्र, कभी कभी चाँदी के बने हुए, जिससे वो आप को देख सकें अब क्योंकि आपको भी ये नहीं पता कि आप सही थे या गलत, आप केवल देवता से समानुभूति की उम्मीद करते हैं । “बस जान लीजिये कि मैं कहाँ का हूँ, मैने जुगाड क्यों लगाई ।” (हँसी) “मैने ये सेटिंग क्यों भिडाई, मैं इतना नियम कानून की परवाह क्यों नहीं करता, थोडा समझिये ।”

तो इस आधार पर हमने अगुआ लोगों के लिये कुछ रिवाज बनाए । जब उसका प्रशिक्षण समाप्त होता है, और वो अपने दुकान का दारोमदार लेने वाला होता है, हम उस की आँखों पर पट्टी बाँधते है, और उसे घेर देते हैं, ग्राहकों से, उसके परिवारजनों से, उसके दल से, उसके अफसर से । और हम उसकी जिम्मेदारियों और उससे अपेक्षित प्रदर्शन की बात करके उसे चाबी सौंप देते हैं, और फिर उसकी पट्टी हटाते हैं । और हमेशा, एक आंसू उसकी आँखों में तैरता दिखता है, क्योंकि वो समझ चुका होता है । उसे समझ आ जाता है कि सफल होने के लिये, उसे कोई पेशेवर वयवसायी बनने की जरूरत नहीं है, उसे अपनी भावनाओं को मारने की कतई ज़रूरत नहीं है, उसे बस सब लोगों को साथ ले कर चलना है, उसकी दुनिया के अपने लोगों को, और उन्हें खुश रखना है, अपने अफसर को खुश रखना है, सब लोगों को खुश रखना है । ग्राहक को प्रसन्न रखना ही है, क्योंकि ग्राहक ईश्वर का रूप है ।

इस स्तर की संवेदनशीलता की आवश्यकता है । एक बार ये विश्वास घर कर ले, व्यवहार भी आने लगता है, धंधा भी चलने लगता है । और चला है । वापस सिकंदर की बात करते हैं । और फकीर की । और अक्सर मुझसे पूछा जाता है, “सही रास्ता क्या है – ये य वो ?” और ये बहुत ही खतरनाक प्रश्न है । क्योंकि ये आपको हिंसा और रूढिवादिता के रास्ते पर ले जाता है । इसलिये, मैं इसका उत्तर नहीं दूँगा । मैं आपको इसका भारतीयता-पूर्ण उत्तर दूँगा, हमारा प्रसिद्ध सिर हिलाने का इशारा । (हँसी) (अभिवादन)

संदर्भ के अनुसार, कार्य के परिणाम के हिसाब से, अपना दृष्टिकोण चुनिये । देखिये, क्योंकि दोनो ही नज़रिये इंसानी कल्पनाएँ हैं । सांस्कृतिक कल्पनाएँ हैं, न कि कोई प्राकृतिक सत्य । तो जब अगली बार आप किसी अजनबी से मिलें, एक प्रार्थना है: समझियेगा कि आप संदर्भ-आधारित सत्य में जीवित हैं, और वो अजनबी भी । इसे बिलकुल जहन में उतार लीजिये । और जब आप ये समझ जाएँगे, आप एक शानदार रत्न पा लेंगे । आपको इसका भान होगा कि अनगिनत मिथकों के बीच परम सत्य स्थापित है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड को कौन देखता है ? वरुण हज़ार नेत्रों का स्वामी है । इन्द्र, सौ नेत्रो का । आप और मैं, केवल दो नेत्रों के ये समझने के लिये कि पौराणिक कथाओं का मामला और मुख्य विश्वास अधिकारी का काम क्या है, आपको एक कहानी सुननी होगी भगवान गणेश की कहानी, भगवान गजानन – हाथी के सर वाले भगवान की कहानी जो कि कथावाचकों के सरताज़ हैं, और उनके भाई, देवताओं के सेनापति कार्तिकेय । एक दिन दोनो भाइयों में एक प्रतियोगिता हुई – एक दौड पूरे ब्रह्माण्ड के तीन चक्कर लगाने की दौड कार्तिकेय अपने मोर पर सवार हुए और महाद्वीपों को नाप डाला फिर पहाडों को, फिर सागरों को, उन्होंने ब्रह्माण्ड का पहला चक्कर लगाया, फिर दूसरा और फिर तीसरा चक्कर भी लगा डाला । पर उनके भाई, गणॆश ने मात्र अपने माता-पिता की परिक्रमा की एक बार, दो बार, और तीन बार, और एलान कर डाला, “मैं जीत गया ।” कार्तिकेय ने पूछा, “कैसे ?” और तब गणेश ने कहा, “तुमने ‘ब्रहमाण्ड’ की परिक्रमा की । और मैने ‘अपने ब्रह्माण्ड’ की ।” संसार और मेरे संसार में ज्यादा महत्व किसका है ?

यदि आप ‘संसार’ और ‘मेरे संसार’ के बीच के अंतर को समझ सके, तो आप ‘सही’ और ‘मेरे लिये सही’ के अंतर को समझ सकेंगे । ‘संसार’ लक्ष्य-निर्धारित है, तार्किक है, तथ्यात्मक है, संपूर्ण है, वैज्ञानिक है । ‘मेरा संसार’ व्यक्तिपरक है. यह भावुक है. यह निजी है. इसके अपने दृष्टिकोण, विचार हैं – अपननी भावनाएँ और अपने सपने है । ये जीवन मूल्यों का एक ढाँचा है जिससे अंतर्गत हम जीवन व्यतीत करते हैं । यह मिथक है कि हम तटस्थ हो कर रह रहे हैं ।

‘संसार’ हमें बताता है कि क्या चल रहा है, सूरज उग कैसे रहा है, हम पैदा कैसे होते हैं । ‘मेरा संसार’ बताता है कि सूरज क्यों उग रहा है, हम क्यों पैदा हुए । हर संस्कृति स्वयं को ही समझने की कोशिश कर रही है, “हम अस्तित्व का कारण क्या है ?” और हर संस्कृति ने अपने अपने जवाब ढूँढे हैं, अपनी समझ के अनुरूप पौराणिक गाथाओं के रूप में ।

संस्कृति प्रकृति के प्रति हमारी प्रतिक्रिया है, और इस प्रतिक्रिया की समझ, हमारी पूर्वजों के अनुसार पीढी दर पीढी चलती आ रही है कथाओं, प्रतीकों और अनुष्ठानों के रूप में, जिन्हें तर्क, कारण और विश्लेषणॊं से कोई मतलब नहीं है । और जब आप इसमें गहरे उतरेंगे, तो आपको पता चलेगा कि दुनिया के अलग अलग लोग दुनिया को अपने अलग ढँग से समझते हैं । अलग अलग लोग एक ही चीज़ को : अलग अलग दृष्टिकोणों से देखते हैं ।

एक हुई मेरी दुनिया और एक हुई आपकी दुनिया, और मेरी दुनिया हमेशा मुझे आपकी दुनिया से बेहतर लगती है, क्योंकि देखिये, मेरी दुनिया तर्कसंगत है और आपकी अंधविश्वास पर आधारित, आपकी मात्र विश्वास पर चलती है तर्क पर आधारित नहीं है । यही सभ्यताओं के संघर्ष की जड़ है । 326 ईसा पूर्व में भी यह बहस एक बार हुई थी । सिंधु नदी के तट पर, जो कि अब पाकिस्तान में है । इस नदी से ही इण्डिया को उसका नाम मिला है । सिन्धु – हिन्दु – इन्दु – इन्डिया ।

सिकंदर, युवा मकदूनियन, वहाँ ऐसे व्यक्ति से मिला जिसे उसने ‘जिमनोसोफ़िस्ट’ कहा है, जिसका अर्थ है ‘नंगा फ़कीर’ हम नहीं जानते कि वह कौन था । शायद कोई जैन साधु रहा हो, जैसे कि बाहुबली, यहीं पास में ही, गोमतेश्वर बाहुबली, मैसूर से ज्यादा दूर नहीं है उनकी छवि । या फ़िर शायद वो कोई योगी रहा हो, चट्टान पर बैठा, आसमान को ताकता, और सूरज और चाँद को निहारता ।

सिकंदर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और नंगे फ़कीर ने जवाब दिया, “मैं शून्यता का अनुभव कर रहा हूँ.” फिर फ़कीर ने पूछा, “आप क्या कर रहे हैं?” और सिकंदर ने जवाब दिया, “मैं दुनिया पर विजय प्राप्त कर रहा हूँ ।” और फिर वो दोनो हँसने लगे । दोनो एक दूसरे को मूर्ख समझ रहे थे । फ़कीर ने पूछा कि वो दुनिया को जीतने क्यों चाहता है । वो व्यर्थ है । और सिकंदर ने सोचा, “ये साधु यहाँ बैठ कर वक्त क्यों गँवा रहा है?” सारे जीवन को व्यर्थ कर रहा है ।

इन दोनों के विचारों के फ़र्क को समझने के लिये हमें समझना होगा कि सिकंदर का अपना सत्य समझना होगा: और उन मिथकों को, जिन्होने उस सत्य को जन्म दिया । सिकंदर के माँ-बाप और उसके शिक्षक अरस्तु ने उसे होमर के इलियाड की कहानियाँ सुनाई थीं । महान नायक अचिलस की कहानी, जिसका लडाई में होना भर, विजय सुनिश्चित करता था, पर यदि वो लडाई में न हो, तो हार भी निश्नित होती थी । “अचिलस वो व्यक्ति था जो इतिहास बदलने की क्षमता रखता था, नियति को काबू कर लेने वाला, और सिकंदर, तुम्हें उस जैसा बनना चाहिये ।” उसने ये सुना था ।

“और तुम्हें क्या नहीं बनना चाहिये ? तुम्हें सिसिफस नहीं बनना चाहिये, जो कि दिन भर भारी चट्टान को पहाड पर चढाता है और हर रात, चट्टान वापस लुढक जाती है । ऐसा जीवन मत जियो जो साधारण हो, औसत, निरर्थक हो । भव्य बनो ! — ग्रीक नायकों की तरह, जैसे जेसन, जो कि समंदर पार गया अरगोनाट्स के साथ और सुनहरी ऊन ले कर आया । महान बनो जैसे थीसियस, जिसने नर्क में घुस कर भैंसे के सिर वाले राक्षस मिनोटोर को मार गिराया । जब जब प्रतियोगिता में भाग लो, जीतो ! — क्योंकि जीत की प्रसन्नता, उसकी अनुभव देवों के सामीप्य का सबसे प्रत्यक्क्ष अनुभव होगा ।”

देखिय, ग्रीक ये मानते थे कि आप केवल एक बार जीते है और जब आपकी मृत्यु होती है, आप स्टिक्स नदी पार करते हैं, और यदि आपने भव्य जीवन जिया है, तो आपको अलीसियम (स्वर्ग) में आमंत्रित किया जायेगा, या जिसे फ़्रांसीसी लोग ‘शाम्पस-अलीयसीज़’ (पेरिस की प्रसिद्ध बाज़ार) कहते हैं — (हँसी) — महापुरोषों का स्वर्ग ।

पर ये वो कहानियाँ नहीं थी जो हमारे फ़कीर ने सुनी थीं । उसने बहुत अलग कहानियाँ सुनी थीं । उसने भरत नाम के व्यक्ति के बारे में सुना था, जिसकी नाम पर इण्डिया को भारत भी कहते है । भरत ने भी विश्व-विजय प्राप्त की थी । और तब वो संसार के केंन्द्र-बिन्दु पर स्थित सबसे बडे पहाड की सबसे ऊँची चोटी पर गया, जिसका नाम था मेरु । और वो वहाँ अपने नाम का झंडा फहराना चाहता था, “मैं यहाँ आने वाला पहला व्यक्ति था ।” पर जब वो मेरु पर्वत पर पहुँचा, तो उसने उसे अनगिनत झंडों से ढका पाया, उससे पहले आने वाले विश्व-विजयिओं के झंडों से, हर झंडा दाव कर रहा था “मैं यहाँ सबसे पहले आया… …ऐसा मैं सोचता था जब तक मैं यहाँ नहीं आया था ।” और अचानक, अनन्ता की इस पृष्ठभूमि में, भरत ने स्वयं को क्षुद्र, नगण्य़ पाया । ये उस फ़कीर का सुना हुआ मिथक था ।

देखिय, फ़कीर के भी अपने नायक थे, जैसे राम – रघुपति राम और कृष्ण, गोविन्द, हरि । परन्तु वो दो अलग अलग पात्र दो अलग अलग अभियानों पर निकले दो अलग अलग नायक नहीं थे । वो एक ही नायक के दो जन्म थे । जब रामायण काल समाप्त होता है, तो महाभारत काल प्रारंभ होता है । जब राम यमलोक सिधारते है, कृष्ण जन्म लेते है । जब कृष्ण यमलोक जाते है, तो वो पुनः राम के रूप में अवतार लेते हैं ।

भारतीय मिथकों में भी एक नदी है जो कि जीवितों और मृतकों की दुनिया की सीमारेखा है । पर इसे केवल एक बार ही पार नहीं करना होता है । इस के तो आर-पार अनन्ता तक आना जाना होता है । इस नदी का नाम है वैतरणी । आप बार-बार, बारम्बार आते जाते है । क्योंकि, आप देखिये, भारत में कुछ भी हमेशा नहीं टिकता, मृत्यु भी नहीं । इसलिये ही तो, हमारे भव्य आयोजनों में देवियों की महान मूर्तियाँ तैयार की जाती हैं, उन्हें दस दिन तक पूजा जाता है… और दस दिन के बाद क्या होत है ? उसे नदी में विसर्जित कर दिया जाता है । क्योंकि उसका अंत होना ही है । और अगले साल, वो देवी फिर आयेगी । जो जाता है, वो ज़रूर ज़रूर लौटता है और ये सिर्फ़ मानवों पर ही नहीं, बल्कि देवताओं पर भी लागू होता है । देखिये, देवताओं को भी बार बार कई बार अवतार लेना होगा, राम के रूप में , कृष्ण के रूप में न सिर्फ़ वो अनगिनत जन्म लेते हैं, वो उसी जीवन को अनगिनत बार जीते हैं जब तक कि सब कुछ समझ ना आ जाये । ग्राउन्डहॉग डे (इसे विचार पर बनी एक हॉलीवुड फ़िल्म) । (हँसी)

दो अलग मिथयताएँ इसमें सही कौन सी है ? दो अलग समझें, दुनिया को समझने के दो अलग नज़रिये । एक सीधी रेखा में और दूसरा गोलाकार एक मानता है कि केवल यही और सिर्फ़ यही एक जीवन है। और दूसरा मानता है कि यह कई जीवनों में से एक जीवन है । और इसलिये सिकंदर के जीवन की तल-संख्या ‘एक’ थी । और उसके सारी जीवन का मूल्य इस एक जीवन में अर्जित उसकी उपलबधियों के बराबर था । फ़कीर के जीवन की तल-संख्या ‘अनन्त, अनगिनत’ थी । और इसलिये, वो चाहे इस जीवन में जो कर ले, सब जीवनों में बँट कर इस जीवन की उपलब्धियाँ नगण्य थीं । मुझे लगता है कि शायद भारतीय मिथक के इसी पहलू के ज़रिये भारतीय गणितज्ञों ने ‘शून्य’ संख्या की खोज की होगी । क्या पता ?

और अब हम आते है कारोबार के मिथक पर । यदि सिकंदर का विश्वास उसके व्यवहार पर असर डाल सकता है, यदि फ़कीर का विश्वास उसके जीवन पर प्रभाव डालता है, तो निश्चय ही ये उन कारोबारों पर भी प्रभाव डालेगा जिनमें वो लगे थे । देखिये, कारोबार असल में इस बात का ही तो परिणाम है कि बाज़ार ने कैसा व्यवहार किया और संगठनों ने क्या व्यवहार किया ? यदि आप दुनिया भर की संस्कृतियों पर एक नज़र डालें, और उनके अपने अपने मिथकों को समझे, तो आप को उनका व्यवहार और उनका कारोबार का ढँग समझ आ जाएगा ।

धयान से देखिये । अगर आप एक ही जीवन वाली संस्कृति से नाता रखते हैं तो आप देखेंगे कि वो ‘पूर्णतः सही या पूर्णतः गलत’ के विचारधार से आसक्त हैं, निर्धारित पूर्ण सत्य, मानकीकरण, संपूर्णता, सीधी रेखा पर आधारित ढाँचे । पर यदि आप जीवन की पुनरावृत्ति वाली गोलाकार संस्कृति को देखेंगे आप देखेंगे कि वो अस्पष्ठता के सहज हैं, अनुमानों के साथ, विषयक सोच के साथ, ‘लगभग’ के साथ, संदर्भों पर आधारित मानकों के साथ — (हँसी) ज्यादातर । (हँसी)

चलिये, कला पर नज़र डालते हैं । बैले नर्तकी को देखिये । कैसे उसकी जुम्बिश सीधी रेखाकार होती है । और भारतीय सस्कृतिक नर्तकी को देखिये, कुचिपुडि, भरतनाट्यम नर्तकों को देखिये, घुमावदार । (हँसी)

और धंधे के तरीके देखिये । मानकों पर आधारित ढाँचा: अवलोकन, लक्ष्य, मूल्य, विधियाँ लगता है जैसे किसी ऐसे यात्रा की कल्पना है जो कि जंगल से सभ्य समाज तक ले जाती है, एक नेता के दिये गये निर्देशों के अनुसार । यदि आप निर्देशों का पालन करेंगे, स्वर्ग प्राप्त होगा ।

पर भारत में कोई एक स्वर्ग नहीं है, बहुत सारे अपने अपने स्वर्ग हैं, आप समाज के किस हिस्से से हैं, इस के हिसाब से आप जीवन के किस पडाव पर हैं, इस के हिसाब से देखिये, कारोबार संगठनों की तरह नहीं चलाये जाते, किसी एक व्यक्ति के निर्देशानुसार। वो हमेशा पसन्द के अनुसार चलते हैं । मेरे अपनी खास पसंद के अनुसार ।

जैसे, भारतीय संगीत, मिसाल के तौर पर, उसमें अनुरूपता, स्वर-संगति की कोई जगह नहीं है । वादकों के समूह का कोई एक निर्देशक नहीं होता है । एक कलाकार प्रदर्शन करता है, और बाकी सब लोग उसका अनुगमन करते हैं । और आप कभी भी उसके प्रदर्शन को बिलकुल वैसे ही दुबारा प्रस्तुत नहीं कर सकते । यहाँ लिखित प्रमाणों और अनुबंधों का खास महत्व नहीं है । यहाँ बातचीत और विश्वास पर ज्यादा ज़ोर है । यहाँ नियमों के पालन से ज्यादा ज़रूरी है ‘सेटिंग’, बस काम पूरा होना चाहिये, चाहे नियम को मोड कर, या उसे तोड कर – अपने आसपास मौजूद भारतीयों पर नज़र डालिये, देखिये सब मुस्करा रहे हैं, उन्हे पता है मैं क्या कर रहा हूँ। (हँसी) और अब ज़रा उन्हें देखिये जिन्हें भारत में व्यवसाय किया है, उनके चेहरे पर रोष छुपाये नहीं छुप रहा । (हँसी) (अभिवादन)

देखिये, आज का भारत यही है । धरातल की सच्चाई दुनिया को देखने के इसी गोलाकार नज़रिये पर टिकी है । इसीलिये ये लगातार बदल रही है, विविधताओं से परिपूर्ण है, अस्त-व्यस्त है, अनुमान से परे है । और लोगबाग इसे ठीक पाते हैं । और अब तो वैश्वीकरण हो रहा है । आधुनिक संगठननुमा सोच की माँग बढ रही है । जो कि रेखाकार सीधी सभ्यता की जड है । और एक वैचारिक मुठभेड होने वाली है, जैसे कि सिन्धु नदी के तट पर हुई थी । इसे होना ही है ।

मैनें खुद इसका अनुभव किया है । मैं एक प्रशिक्षित चिकित्सक हूँ । मुझे सर्जरी पढने का कतई मन नहीं था, और मत पूछिये क्यों । मुझे मिथक बहुत प्रिय हैं । मैं मिथकों को ही पढना चाहता था । मगर ऐसा कोई जगह नहीं है जहाँ ऐसा होता हो । तो मुझे स्वयं को ही पढाना पडा । और मिथकों से कमाई भी नहीं होती थी, कम से कम अब तक । (हँसी) तो मुझे नौकरी करनी पडी । और मैनें औषधि के उद्योग में काम लिया । फिर मैने स्वास्थय – उद्योग में भी काम किया । मैनें मार्कटिंग में काम किया, सेल्स में काम किया । तकनीकी जानकार के रूप में, प्रशिक्षक के रूप में, और विषय-वस्तु तैयार करने का काम भी किया । मै एक व्यावसायिक सलाहकार भी रहा हूँ- योजना और दाँव-पेंच तैयार करता रहा हूँ । और मुझे असंतुष्टि दिखती है अपने अमरीकन और यूरिपियन साथियों में जब वो भारत में काम करते हैं ।

उदाहरण के तौर पर: कृपया हमें बताइये कि हम हॉस्पिटलों को बिल कैसे भेजें । पहले A करें – फ़िर B करें – फ़िर C करें – ज्यादातर ऐसे ही होता है । (हँसी) अब आप ‘ज्यादातर’ की क्या परिभाषा लिखेंगे ? ‘ज्यादातर’ को साफ़्ट्वेयर में कैसे डालेंगे ? नहीं कर सकते ।

मैं उन्हें अपना दृष्टिकोण बताना चाहता था । मगर कोई भी सुनने को तैयार नहीं था, देखिये, जब तक मैं फ़्यूचर समुदाय के किशोर बियानी से नहीं मिला । देखिये, उन्होंने बिग बाजार नामक फुटकर बिक्री की सबसे बडी श्रंखला की स्थापना की है । और इसे कम से कम २०० अलग अलग तरीकों से भारत के करीब ५० शहरों और कस्बों में चलाय जाता है । और वो बहुत ही विविध और सक्रिय बाजारों से काम कर रहे थे । और उन्हें सहजता से पता था, कि उत्कृष्ट कार्य-प्रणालियाँ जो कि जापान, चीन, यूरोप और अमरीका में बनी हैं भारत में काम नहीं करेंगी । उन्हें पता था कि भारत में संस्थागत सोच नहीं चलेगी । यहाँ व्यक्तिगत सोच चलेगी । उन्हें भारत की मिथकीय बनावट की सहज समझ थी ।

तो, उन्होंने मुझसे मुख्य विश्वास अधिकारी बनने को कहा, और ये भी कहा, “मैं चाहता हूँ कि आप सबके विश्वास को एक धुरी पर लाएँ ।” कितना आसान सा लगता है ना । मगर विश्वास को मापा तो नहीं जा सकता । और ना ही उस पर प्रबंधन तकनीके लागू हो सकती हैं । तो आप कैसे विश्वास की आधार-शिला रखेंगे ? कैसे आप लोगों में भारतीयता के प्रति संवेदना बढाएँगे भारतीयों के लिये भी भारतीयता इतनी सहज या नहीं होती है ।

तो, मैनें संस्कृति का एक सर्वव्यापी ढाँचा तैयार करने का प्रयास किया, जो था – कहानियों का विकास करना, चिन्हों का विकास करना, और रीति-रिवाजों का विकास करना । और मैं ऐसे एक रिवाज के बारे में आपको बताता हूँ । देखिये ये हिन्दुओं की ‘दर्शन’ रीति पर आधारित है । हिन्दु धर्म में कोई धर्मादेश नहीं होते हैं । इसलिये जीवन में जो आप करते हैं, उसमें कुछ गलत या सही नहीं होता है । तो आप ईश्वर के सम्मुख पापी हैं या पुण्यात्मा, ये किसी को नहीं पता । तो आप जब मंदिर जाते है, आप सिर्फ़ ईश्वर से मिलना चाहते हैं । बस सिर्फ़ दो मिनट के लिय एक मुलाकात करना । आप सिर्फ़ उनके ‘दर्शन’ करना चाहती है, और इसलिये ईश्वर की बडी बडी आँखें होती हैं, विशाल अपलक टक टक ताकने वाले नेत्र, कभी कभी चाँदी के बने हुए, जिससे वो आप को देख सकें अब क्योंकि आपको भी ये नहीं पता कि आप सही थे या गलत, आप केवल देवता से समानुभूति की उम्मीद करते हैं । “बस जान लीजिये कि मैं कहाँ का हूँ, मैने जुगाड क्यों लगाई ।” (हँसी) “मैने ये सेटिंग क्यों भिडाई, मैं इतना नियम कानून की परवाह क्यों नहीं करता, थोडा समझिये ।”

तो इस आधार पर हमने अगुआ लोगों के लिये कुछ रिवाज बनाए । जब उसका प्रशिक्षण समाप्त होता है, और वो अपने दुकान का दारोमदार लेने वाला होता है, हम उस की आँखों पर पट्टी बाँधते है, और उसे घेर देते हैं, ग्राहकों से, उसके परिवारजनों से, उसके दल से, उसके अफसर से । और हम उसकी जिम्मेदारियों और उससे अपेक्षित प्रदर्शन की बात करके उसे चाबी सौंप देते हैं, और फिर उसकी पट्टी हटाते हैं । और हमेशा, एक आंसू उसकी आँखों में तैरता दिखता है, क्योंकि वो समझ चुका होता है । उसे समझ आ जाता है कि सफल होने के लिये, उसे कोई पेशेवर वयवसायी बनने की जरूरत नहीं है, उसे अपनी भावनाओं को मारने की कतई ज़रूरत नहीं है, उसे बस सब लोगों को साथ ले कर चलना है, उसकी दुनिया के अपने लोगों को, और उन्हें खुश रखना है, अपने अफसर को खुश रखना है, सब लोगों को खुश रखना है । ग्राहक को प्रसन्न रखना ही है, क्योंकि ग्राहक ईश्वर का रूप है ।

इस स्तर की संवेदनशीलता की आवश्यकता है । एक बार ये विश्वास घर कर ले, व्यवहार भी आने लगता है, धंधा भी चलने लगता है । और चला है । वापस सिकंदर की बात करते हैं । और फकीर की । और अक्सर मुझसे पूछा जाता है, “सही रास्ता क्या है – ये य वो ?” और ये बहुत ही खतरनाक प्रश्न है । क्योंकि ये आपको हिंसा और रूढिवादिता के रास्ते पर ले जाता है । इसलिये, मैं इसका उत्तर नहीं दूँगा । मैं आपको इसका भारतीयता-पूर्ण उत्तर दूँगा, हमारा प्रसिद्ध सिर हिलाने का इशारा । (हँसी) (अभिवादन)

संदर्भ के अनुसार, कार्य के परिणाम के हिसाब से, अपना दृष्टिकोण चुनिये । देखिये, क्योंकि दोनो ही नज़रिये इंसानी कल्पनाएँ हैं । सांस्कृतिक कल्पनाएँ हैं, न कि कोई प्राकृतिक सत्य । तो जब अगली बार आप किसी अजनबी से मिलें, एक प्रार्थना है: समझियेगा कि आप संदर्भ-आधारित सत्य में जीवित हैं, और वो अजनबी भी । इसे बिलकुल जहन में उतार लीजिये । और जब आप ये समझ जाएँगे, आप एक शानदार रत्न पा लेंगे । आपको इसका भान होगा कि अनगिनत मिथकों के बीच परम सत्य स्थापित है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड को कौन देखता है ? वरुण हज़ार नेत्रों का स्वामी है । इन्द्र, सौ नेत्रो का । आप और मैं, केवल दो नेत्रों के .
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