भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों में मीराबाई का अनन्तम स्थान है। मीराबाई ने भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति पत्नी-भाव से की। इस भक्ति-पथ पर चलते हुए मीरा ने अनेक असहनीय कष्ट सहे। मीरा के जन्म के संबंध में विद्वान एक मत नहीं हैं। उनका जन्म सं. 1560 के आसपास मेड़ता परगने के कुंडकी गांव में माना जाता है। मीरा जोधपुर के राठौर वंशीय रावजोधा की प्रपौत्री, रावदादू की पौत्री और रतनसिंह की पुत्री थी। बाल्यकाल में ही माता का निधन हो जाने से मीरा का पालन-पोषण रावदादू के संरक्षण में हुआ। मीरा का बचपन अपने चाचा वीरमदेव के पुत्र जसमल के साथ बीता। बाल्यकाल से ही दोनों की वृत्ति भक्तिमयी थी, अत: कालांतर में जयमल प्रसिद्ध भक्त हुआ और मीरा परम कृष्ण भक्तिमती।
मीरा का विवाह महाराणा सांगा के पुत्र राजकुमार भोजराज के साथ हुआ। मेवाड़ की राजरानी बनने पर भी मीरा अपने गिरधर गोपाल की दीवानी बनी रही। भोज की मृत्यु हो जाने पर ससुराल वालों ने मीरा को असहनीय यातनाएं दीं, क्योंकि वे मीरा की भक्ति तथा क्रियाकलापों को राज-परिवार की मर्यादाओं के विरुद्ध समझते थे। अंत में एक दिन मीरा ने लोक-लाज एवं कुल की मर्यादा आदि का त्यागकर राजभवन छोड़ दिया और अपने गिरिधर गोपाल की नगरी की ओर चल पड़ी। कहते हैं कि राजकुल के मिथ्याभिमान के वशीभूत मीरा के देवर विक्रम ने मीरा का जीवनदीप बुझाने के लिए सांप तथा विष का प्याला भी भेजा। किंतु सांप शालिग्राम के रूप में और विष अमृत में परिवर्तित हो गया। क्योंकि मीरा तो हर रूप और हर वस्तु में प्यारे कन्हैया की अनुकंपा का ही अनुभव करती थी।
मीरा अनेक स्थानों और तीर्थों का दर्शन करती हुई, सांवरे की लीलाभूमि ब्रज पहुंची। एक दिन वह प्रसिद्ध भक्त जीवगोस्वामी के दर्शनार्थ उनके पास पहुंची तो जीवगोस्वामी ने मिलने से इंकार करते हुए कहला दिया- 'स्त्रियों से नहीं मिलता।' इसके उत्तर में मीरा ने कहलवाया- 'मैं तो ब्रजभूमि में एक ही पुरुष कृष्ण को जानती हूं, जानती थी, यह दूसरा पुरुष कहां से आ गया।' मीरा के ऐसे तात्विक तथा ज्ञानमय शब्दों को सुनकर जीवगोस्वामी नंगे पैर मीरा से मिलने के दौड़ पड़े।
कुछ समय तक ब्रजभूमि में रहने के पश्चात् मीरा द्वारिकापुरी चली गई और वहीं रणछोड़जी के मंदिर में नृत्य-कीर्तन करने लगी। कहा जाता है कि मीरा के मेवाड़ छोड़ देने पर वहां प्रकृति का प्रबल प्रकोप हुआ और प्रजा के द्वारा विक्रम की भर्त्सना की जाने लगी। दूसरी ओर मीरा की ख्याति चारों ओर शीतल चांदनी के समान लोकप्रिय हो चली थी, अत: एक दिन विक्रम (मीरा के देवर) ने राज्य की ओर से कुछ व्यक्तियों को मीरा को ससम्मान वापस लिवा जाने के लिए भेजा। मीरा अपने सांवरिया से आज्ञा लेने के बहाने रणछोड़जी के सामने नृत्य करने लगी और नृत्य करते हुए रणछोड़जी के विग्रह में समा गई। मूर्ति के बगल में केवल मीरा का वस्त्र अटका हुआ रह गया। गुजरात के प्रसिद्ध डाकोरजी में यह मूर्ति आज भी विद्यमान बताई जाती है।
मीरा कृष्ण-भक्त नारी ही नहीं, एक समर्थ तथा सशक्त कवयित्री भी थी। मीरा की पदावली हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। भाषा,भाव तथा शिल्प-शैली की दृष्टि से भी पदावली एक उत्कृष्ट काव्यकृति है।
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