'' मैं कभी बतलाता नहीं , पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ ,
यूँ तो मैं दिखलाता नहीं , तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ ,
तुझे सब है पता है न माँ , तुझे सब है पता मेरी माँ |''
बहुचर्चित फिल्म 'तारे ज़मीन पर ' का ये गीत हर बच्चे के जीवन का एक एसा सार्वभौमिक सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता | सच है! ' माँ को सब पता होता है' |
जन्म के तुरंत बाद नए नए हांथो का वो पहला स्पर्श जो याद तो शयद किसी को नहीं पर महसूस सब कर सकते हैं | जोर जोर से धड़कता हुआ एक दिल जब इस दुनियां में आता है और उन हांथो में सौपा जाता है जिसकी वजह से वो है , उस वक्त उस दिल की धड़कने अपने आप ही सामान्य हो जाती हैं , मानो एक जड़ से उखाड़े पौधे को फिर से ज़मीन मिल गयी हो | शांत भाव से वो नयी चमकदार ऑंखें उस चेहरे को को देखने और समझने का प्रयास करतीं हैं , जिसे अब तक उसने सिर्फ महसूस किया था | एक अजीब सा एहसास है शायद ! आश्चर्य से भरी वो ऑंखें यही सोचतीं हैं की ये कौन हैं ? कौन है ये, जो नया तो है पर ना जाने क्यूँ जाना पहचाना सा लगता है , ऐसा क्यूँ लगता है की ये तो वही है जो मेरे होने का प्रमाण है , मेरे अस्तित्व की वजह है | क्या अगर ये चेहरा नहीं होता तो मैं भी नहीं होता? न जाने कितने ऐसे सवाल उस नए ह्रदय और मस्तिष्क में चल रहे होते हैं | लेकिन वो अबोध समय दर समय इन सवालों के जवाब खुद ही खोज लेता है |
वक्त बीतता चला जाता है और समय साथ साथ ये रिश्ता और भी मज़बूत होता चला जाता है | याद है स्कूल का वो पहला दिन जब मन इस डर से भरा रहता है की अब माँ को छोड़कर जाना है |
माँ के हांथों को मज़बूती से पकडे वो कोमल हाँथ जैसे अपनी सारी ताकत लगा देतें हैं खुद को उस शरीर से जोड़े रखने के लिए |रात के आंचल में माँ का वो कुछ गुनगुनाकर सुलाना और हमारा ये जिद करना कि 'माँ कोई कहानी सुनाओ ना ' | वो सब कितना पाक़ था कितना खूबसूरत था | उस वक्त वो कहानियाँ कितनी सच्ची लगतीं थीं | मशहूर गीतकार जावेद अख्तर के शब्द सही ही कह रहे हैं कि
' मुझको यकीं है सच कहती थी , जो भी अम्मी कहती थी ,
जब मेरे बचपन के दिन दिन थे चाँद में परियां रहतीं थी |'
वक्त बीतता जाता है और हम बड़े होते जाते हैं | घर से स्कूल , स्कूल से कॉलेज वक्त तो मानो पंख लगा कर भागता है | लेकिन हर बार मन में एक सुकून का एहसास होता है कि हमारी माँ हमारे साथ है | मेरी तरफ आने वाली हर मुसीबत , हर तकलीफ को पहले मेरी माँ के मज़बूत सीने से होकर गुज़ारना पड़ेगा | हम हमेशा सुरक्षित हैं क्यूंकि हमारी माँ है |
' घोंसले में आई चिड़िया से चूजों ने पूंछा ,
माँ आकाश कितना बड़ा है ?
चूजों को पंखों के निचे समेटती बोली चिड़िया ,
सो जाओ , इन पंखों से छोटा है |
सारी माएं ऐसी ही तो होतीं हैं | हर बार रह दिखाती हुयी , हर बार समझाती हुई और हर हमारी गलतियों पर पर्दा डालती हुई |
मशहूर शायर 'मुनव्वर राणा' के अल्फाजों में ----
' जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है |'
दूर होने पर भी एक एहसास हम दोनों को जोड़े रखता है | खास तौर पर उस वक्त जब लगता है कि कोई भी अब साथ नहीं है , हम पूरी तरह से मुसीबत में घिर चुके हैं | तब एक माँ ही तो है जो साथ ना होकर भी हमेशा साथ रहती है | निदा फ़ाज़ली के शब्दों में ---' मैं रोया परदेस में , भीगा माँ का प्यार ,दुःख ने दुःख से बात कि बिन चिठ्ठी बिन तार |'
घनघोर रात के साये में जब हम अकेले बैठे सोच रहे होतें हैं, रो रहे होतें हैं , खुद से सवाल कर रहे होते हैं और माँ को याद कर रहे होते हैं, तभी अचानक फोन कि घंटी बजती है और उस पार से आवाज़ आती है ---------" बेटा कैसे हो , ठीक तो हो ना , कोई तकलीफ तो नहीं है | तबियत तो ठीक है ना , आज जी बहुत घबरा रहा था , एसा लग रहा था कि मानो मेरे कलेजे का टुकड़ा किसी मुसीबत मे है, बोल बेटा तो ठीक तो है ना " ?
जवाब मिलता है ---" मै ठीक हूँ माँ, अब वाकई में ठीक हूँ , तुम मेरे साथ हो ना , तो सब अपने आप ही ठीक हो जायेगा , तुम बिलकुल चिंता मत करो सब ठीक है" |भरे गले से कहा ---" माँ आवाज़ साफ़ नहीं आ रही है बाद में फ़ोन करते है |"
फ़ोन का रिसीवर रखकर अपने आंसू पोंछते हैं और खुद से ये सवाल करते हैं कि माँ के गर्भ से बहार आये हुए तो कई बरस हो गए लेकिन सच तो ये है कि आज भी हम पूरी तरह से अलग नहीं हो पाए हैं |
मुसीबत के ऐसे पलों में माँ के वो चन्द शब्द ऐसा एहसास दिला देते हैं कि लगता है कि एक ही पल में सब कुछ ठीक हो जायेगा | हमारी सारी मुसीबतें अपने आप ही भाग जाएँगी | ऐसा लगता है कि जैसे माँ का ममता और आशीर्वाद भरा हाँथ सिर पर रख दिया और सारी परेशनियाँ छूमंतर |
' माँ ' एक ऐसा रिश्ता जो हर रिश्ते से कम से कम नौ माह पुराना होता है | एक रिश्ता जो पहली धड़कन से शुरू होकर आखिरी साँस तक चलता है | एक ऐसा रिश्ता जो हर वक्त हमारे स्थ होता है चाहे हम जहाँ भी रहें | एक ऐसा रिश्ता जो न जाने कैसे जान जाता है कि आज हम मुसीबत में हैं |
' मेरी तकलीफ को मुझसे पहले कैसे पहचान लेतीं है वो,
कुछ उलझन है मुझे ये कैसे मान लेतीं है वो ,खुद के ग़मों को तो होंठों तक आने देती नहीं हूँ मैं,क्या धड़कन से ही सब कुछ ही जान लेतीं हैं वो |"
सच कहूं तो आज तक समझ नहीं पाई कि कैसे कर लेतीं हैं वो ये सब ? शायद इसीलिए क्यूंकि अभी मैं सिर्फ एक बेटी हूँ माँ नहीं |
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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011
' माँ '
' मेरी तकलीफ को मुझसे पहले कैसे पहचान लेतीं है वो,कुछ उलझन है मुझे ये कैसे मान लेतीं है वो,खुद के ग़मों को तो होंठों तक आने देता नहीं हूँ मैं, क्या धड़कन से ही सब कुछ ही जान लेतीं हैं वो |"
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इतिहास एक याद [काकोरी कांड]
1924 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' चंद युवा क्रांतिकारियों द्वारा बनाया गया एक ऐसा संगठन जो
संगठित सशस्त्र क्रांति पर विश्वास रखता था | 9 अगस्त सन 1925 को इस संगठन ने उत्तर रेलवे के
लखनऊ सहारनपुर संभाग के काकोरी नाम के स्टेशन पर 8 डाउन ट्रेन पर डकैती डाल कर सरकारी खजाने
को लूटा |
यही घटना इतिहास में काकोरी कांड कहलाई| इस पूरे मामले में कुल 29 लोगों की गिरफ़्तारी हुई| जिनमे से
राम प्रसाद बिस्मिल , राजेंद्र लाहिड़ी , रोशन सिंह और अशफाकुल्ला खां को दिसंबर 1927 में फांसी हुई |
शचीन्द्रनाथ सान्याल को आजीवन कारावास की सजा हुई | मन्मथ नाथ गुप्ता को 14 साल की सजा हुई |
कई और क्रांतिकारियों को भी लंबी सजाए हुई |
इस कांड में चंद्रशेखर आजाद भी शामिल थे पर वो अंग्रेजों के
हाँथ नहीं आये | बाद में लाहौर केस में भी वो अपनी चतुराई से बच निकले , लेकिन 27 फरवरी सन 1931
को इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क में पुलिस से हुई मुटभेड में वो शहीद हो गए | इतिहास में युवा क्रांतिकारियों
का ये अध्याय आज भी युवाओं की पहली पसंद है | आज भी ना जाने कितनी फिल्मों में इस क्रांति को बेहद
ही खूबसूरती से दिखाया जाता है |
हम भारतीय है और हमारा ये फ़र्ज़ है की आज हम सब उन शहीदों को एक श्रधांजलि दें , और याद करें उनके
बलिदान | और दुनिया को ये विश्वास दिला दें की क्रांतिकारी आज भी पैदा होते हैं |
राम प्रसाद बिस्मिल
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।
करता नहीं क्यों दुसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफिल मैं है ।
रहबर राहे मौहब्बत रह न जाना राह में
लज्जत-ऐ-सेहरा नवर्दी दूरिये-मंजिल में है ।
यों खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है ।
ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफिल में है ।
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है ।
खींच कर लाई है सब को कत्ल होने की उम्मींद,
आशिकों का जमघट आज कूंचे-ऐ-कातिल में है ।
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।
है लिये हथियार दुश्मन ताक मे बैठा उधर
और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हाथ जिनमें हो जुनून कटते नही तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भडकेगा जो शोला सा हमारे दिल में है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
हम तो घर से निकले ही थे बांधकर सर पे कफ़न
जान हथेली में लिये लो बढ चले हैं ये कदम
जिंदगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल मैं है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
दिल मे तूफानों की टोली और नसों में इन्कलाब
होश दुश्मन के उडा देंगे हमे रोको न आज
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंजिल मे है
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
--राम प्रसाद बिसमिल
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भारत + पाकिस्तान = हिन्दुस्तान= एक ख़्वाब
भारत + पाकिस्तान = हिन्दुस्तान= एक ख़्वाब
इस ब्लॉग को पढ़ने से पहले कृपया कोई देशभक्ति गाना पूरी तरह से डाउनलोड कर ले , यकीं मानिये ये ही आपको असल सोच देगा इस ब्लॉग को पढ़ने की | ब्लॉग को पढ़ते वक़्त वो गीत साथ में सुने |
This is my humble request .
कहते है की प्रेम का धागा अगर टूट जाये तो लाख जोड़ने की कोशिश करो मगर फिर भी एक गांठ हमेशा रह ही जाती है , जो लाख कोशिश के बाद भी नहीं जाती | लेकिन क्या हो अगर हम धागा ही बदल दें तो ? हाँ सही समझा आपने मैंने कहा कि क्या हो अगर धागा ही बदल दें | और एक बार फिर एक नए और लोहे जैसे मज़बूत धागे में फिर से उन बिखरे हुए मोतियों को पिरो दें | थोडा अजीब तो लगा होगा आपको ये पढ़कर पर विश्वास रखिये ये हो सकता है | आप कर सकते हैं , हम कर सकते हैं , हम सब कर सकते हैं |
14 अगस्त सन 1947 पाकिस्तान का नामकरण , 15 अगस्त 1947 भारत का नामकरण | एक खेल जो खेला था उन विदेशी ताक़तों ने जिन्होंने हम हम पर सैकड़ों साल राज किया और हमें तोड़ कर चले गए और आज तक मज़े से हमें लड़ते झगड़ते देख रहे हैं | सोचते होंगे 63-64 साल बाद आज भी देखो भिड़े पड़े हैं या तो वो हमसे ज्यादा समझदार हैं या फिर हम बहुत बड़े मूर्ख जो उनके इस खेल को 64 साल बाद भी समझ नहीं पाए |
वो आज भी हमें नचाते है और हम कभी कश्मीर मुद्दे पर तो कभी परमाणु करार को लेकर नाचते हैं | एक कठपुतली की तरह | ये भूल कर की हममे इतनी ताकत है की हम कठपुतली की उस डोर को तोड़ भी सकते हैं |
सन 1947 के उस विभाजन का दर्द क्या था ये हम और आप कभी समझ ही नहीं सकते हैं | क्यूंकि हम आज आपने परिवारों के साथ हैं | ये दर्द समझ सकते हैं सिर्फ वो लोग जिन्होंने ये झेला है | जिहोने इस बंटवारे में अपनों को खोया है | हमने तो ये सब सिर्फ किताबों में इतिहास की तरह पढ़ा और और भूल गए पर उनका क्या जो ये दर्द आज भी झेल रहे हैं |
दोष केवल विदेशी ताकतों का भी नहीं था | कुछ आपने ही गंदे ज़ेहन वाले लोगों ने भी आग में घी का काम किया | परिस्थितियां इस तरह की बना दी गयीं की ये चोट लगे | और फिर कह दिया गया की बंटवारे के अलावा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं था | एक पल के लिए मान भी लिया जाये की माहौल बहुत बिगड़ गया था , पर क्या तब से अब तक इन 64 सालों में एक बार भी एसा मौका नहीं आया जब हम फिर से एक होने की कोशिश कर सकें | लेकिन नहीं हमने की तो सिर्फ वार्ता , कभी सीमाओं को लेकर तो कभी आर्थिक मसलों को लेकर | पर नतीजा सिफ़र ही रहा | कभी प्रेम का प्रतिक बसें चलीं तो कभी ट्रेने | पर इन बसों और ट्रेनों में प्रेम का ईंधन तो डाला ही नहीं गया | सियासतदान अभी भी ये खेल खेल रहे हैं | दोनों ही लोकतान्त्रिक मुल्कों मे लोक यानि आम आदमी से तो कभी ये पूंछा ही नहीं गया की आखिर वो क्या चाहता है ? दोनों मुल्कों में किसी न किसी मुद्दे पर हर दो माह बाद चुनाव करा लिए जाते हैं | पर क्या इन 64 सालों में एक चुनाव भी एसा हुआ जिसमे आम इंसान से ये पूंछा गया हो की अब भारत और पाकिस्तान को एक बार फिर एक नहीं हो जाना चाहिए ? शायद नहीं | बाहरी लोग हमेशा इस ताक़ में रहते हैं की कब मौका मिले और हम इस सोच का फायदा उठायें |
आने वाली 30 मार्च को मोहाली में भारत और पाकिस्तान का मैच है | ये तो तय है की कोई एक टीम तो हारेगी ही | पर हम किसी जीत के लिए कैसे खुश हो सकते हैं क्यूंकि असल में हम कहीं न कहीं हार भी तो रहे हैं | एक बार सिर्फ एक बार सोचिये अगर वो बंटवारा न हुआ तो क्या आज तस्वीर यही होती | नहीं बिलकुल नहीं , यक़ीनन नहीं | हिन्दुस्तान की ही टीम में तब सचिन और अफरीदी एक साथ ओपनिग करते और सामने होता कोई विदेशी मुल्क | एक मिनट के लिए अपनी आंखे बंद कीजिये और कल्पना कीजिये जो हिन्दुस्तानियों से भरा वो ग्राउंड , उस जोश की तीव्रता को आप आज इसी वक्त आपने दिल के रिक्टर पैमाने पर आंक सकते हैं | तब लाहौर या पेशावर जाने के लिए हमें और दिल्ली और लखनऊ जाने के लिए उन्हें किसी पासपोर्ट की ज़रुरत नहीं होती | वाघा बोर्डर पर हमारे बच्चे
क्रिकेट खेल रहे होते | सब कुछ बेहद खूबसूरत और खुशनुमा होता | चरों तरफ अमन , प्रेम और भाईचारा होता |
बहुत जी लिए हम अपने लिए आपने स्वार्थ के लिए , एक बार सिर्फ एक बार क्यूँ न हम जी लें आपने मुल्क आपने वतन के लिए | शहीदों ने अपनी जान मुल्क को विदेशियों से आज़ादी दिलाने के लिए दी थी ना कि अपनों से |
सन 1857 में एक क्रांति का बिगुल फूंका गया था ताकि देश को विदेशी ताकतों से मुक्ति मिल सके
आज 26 मार्च सन 2011 में क्यूँ ना एक बार फिर बिगुल फूंका जाये , पर इस बार किसी को भागने के लिए नहीं बल्कि बिछड़ों को मिलाने के लिए , अपनो से मिलने के लिए और एक बार फिर भारत + पाकिस्तान = हिन्दुस्तान= एक ख़्वाब को फिर से जीने के लिए और उसे हकीक़त में तब्दील करने के लिए | तो क्या आप तैयार हैं इस मिशन में शामिल होने के लिए | अगर हाँ तो ब्लॉग जगत से जुड़े हर हिन्दुस्तानी [ भारत + पाकिस्तान = हिन्दुस्तान ] के ब्लॉग पर ये सन्देश पहुँचाना चाहिए कि अब हम एक हैं | 1857 में भी इंक़लाब कलम ही लाया था और आज भी अमन कलम ही लायेगा | इस सोच को इतना फैलाइए कि आखिर दोनों मुल्कों में गूँज ही उठे ---------------
' MISSION REMOVE THE PARTITION '
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भारत + पाकिस्तान = हिन्दुस्तान= एक ख़्वाब
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कहते है की प्रेम का धागा अगर टूट जाये तो लाख जोड़ने की कोशिश करो मगर फिर भी एक गांठ हमेशा रह ही जाती है , जो लाख कोशिश के बाद भी नहीं जाती | लेकिन क्या हो अगर हम धागा ही बदल दें तो ? हाँ सही समझा आपने मैंने कहा कि क्या हो अगर धागा ही बदल दें | और एक बार फिर एक नए और लोहे जैसे मज़बूत धागे में फिर से उन बिखरे हुए मोतियों को पिरो दें | थोडा अजीब तो लगा होगा आपको ये पढ़कर पर विश्वास रखिये ये हो सकता है | आप कर सकते हैं , हम कर सकते हैं , हम सब कर सकते हैं |
14 अगस्त सन 1947 पाकिस्तान का नामकरण , 15 अगस्त 1947 भारत का नामकरण | एक खेल जो खेला था उन विदेशी ताक़तों ने जिन्होंने हम हम पर सैकड़ों साल राज किया और हमें तोड़ कर चले गए और आज तक मज़े से हमें लड़ते झगड़ते देख रहे हैं | सोचते होंगे 63-64 साल बाद आज भी देखो भिड़े पड़े हैं या तो वो हमसे ज्यादा समझदार हैं या फिर हम बहुत बड़े मूर्ख जो उनके इस खेल को 64 साल बाद भी समझ नहीं पाए |
वो आज भी हमें नचाते है और हम कभी कश्मीर मुद्दे पर तो कभी परमाणु करार को लेकर नाचते हैं | एक कठपुतली की तरह | ये भूल कर की हममे इतनी ताकत है की हम कठपुतली की उस डोर को तोड़ भी सकते हैं |
सन 1947 के उस विभाजन का दर्द क्या था ये हम और आप कभी समझ ही नहीं सकते हैं | क्यूंकि हम आज आपने परिवारों के साथ हैं | ये दर्द समझ सकते हैं सिर्फ वो लोग जिन्होंने ये झेला है | जिहोने इस बंटवारे में अपनों को खोया है | हमने तो ये सब सिर्फ किताबों में इतिहास की तरह पढ़ा और और भूल गए पर उनका क्या जो ये दर्द आज भी झेल रहे हैं |
दोष केवल विदेशी ताकतों का भी नहीं था | कुछ आपने ही गंदे ज़ेहन वाले लोगों ने भी आग में घी का काम किया | परिस्थितियां इस तरह की बना दी गयीं की ये चोट लगे | और फिर कह दिया गया की बंटवारे के अलावा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं था | एक पल के लिए मान भी लिया जाये की माहौल बहुत बिगड़ गया था , पर क्या तब से अब तक इन 64 सालों में एक बार भी एसा मौका नहीं आया जब हम फिर से एक होने की कोशिश कर सकें | लेकिन नहीं हमने की तो सिर्फ वार्ता , कभी सीमाओं को लेकर तो कभी आर्थिक मसलों को लेकर | पर नतीजा सिफ़र ही रहा | कभी प्रेम का प्रतिक बसें चलीं तो कभी ट्रेने | पर इन बसों और ट्रेनों में प्रेम का ईंधन तो डाला ही नहीं गया | सियासतदान अभी भी ये खेल खेल रहे हैं | दोनों ही लोकतान्त्रिक मुल्कों मे लोक यानि आम आदमी से तो कभी ये पूंछा ही नहीं गया की आखिर वो क्या चाहता है ? दोनों मुल्कों में किसी न किसी मुद्दे पर हर दो माह बाद चुनाव करा लिए जाते हैं | पर क्या इन 64 सालों में एक चुनाव भी एसा हुआ जिसमे आम इंसान से ये पूंछा गया हो की अब भारत और पाकिस्तान को एक बार फिर एक नहीं हो जाना चाहिए ? शायद नहीं | बाहरी लोग हमेशा इस ताक़ में रहते हैं की कब मौका मिले और हम इस सोच का फायदा उठायें |
आने वाली 30 मार्च को मोहाली में भारत और पाकिस्तान का मैच है | ये तो तय है की कोई एक टीम तो हारेगी ही | पर हम किसी जीत के लिए कैसे खुश हो सकते हैं क्यूंकि असल में हम कहीं न कहीं हार भी तो रहे हैं | एक बार सिर्फ एक बार सोचिये अगर वो बंटवारा न हुआ तो क्या आज तस्वीर यही होती | नहीं बिलकुल नहीं , यक़ीनन नहीं | हिन्दुस्तान की ही टीम में तब सचिन और अफरीदी एक साथ ओपनिग करते और सामने होता कोई विदेशी मुल्क | एक मिनट के लिए अपनी आंखे बंद कीजिये और कल्पना कीजिये जो हिन्दुस्तानियों से भरा वो ग्राउंड , उस जोश की तीव्रता को आप आज इसी वक्त आपने दिल के रिक्टर पैमाने पर आंक सकते हैं | तब लाहौर या पेशावर जाने के लिए हमें और दिल्ली और लखनऊ जाने के लिए उन्हें किसी पासपोर्ट की ज़रुरत नहीं होती | वाघा बोर्डर पर हमारे बच्चे
क्रिकेट खेल रहे होते | सब कुछ बेहद खूबसूरत और खुशनुमा होता | चरों तरफ अमन , प्रेम और भाईचारा होता |
बहुत जी लिए हम अपने लिए आपने स्वार्थ के लिए , एक बार सिर्फ एक बार क्यूँ न हम जी लें आपने मुल्क आपने वतन के लिए | शहीदों ने अपनी जान मुल्क को विदेशियों से आज़ादी दिलाने के लिए दी थी ना कि अपनों से |
सन 1857 में एक क्रांति का बिगुल फूंका गया था ताकि देश को विदेशी ताकतों से मुक्ति मिल सके
आज 26 मार्च सन 2011 में क्यूँ ना एक बार फिर बिगुल फूंका जाये , पर इस बार किसी को भागने के लिए नहीं बल्कि बिछड़ों को मिलाने के लिए , अपनो से मिलने के लिए और एक बार फिर भारत + पाकिस्तान = हिन्दुस्तान= एक ख़्वाब को फिर से जीने के लिए और उसे हकीक़त में तब्दील करने के लिए | तो क्या आप तैयार हैं इस मिशन में शामिल होने के लिए | अगर हाँ तो ब्लॉग जगत से जुड़े हर हिन्दुस्तानी [ भारत + पाकिस्तान = हिन्दुस्तान ] के ब्लॉग पर ये सन्देश पहुँचाना चाहिए कि अब हम एक हैं | 1857 में भी इंक़लाब कलम ही लाया था और आज भी अमन कलम ही लायेगा | इस सोच को इतना फैलाइए कि आखिर दोनों मुल्कों में गूँज ही उठे ---------------
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मंगलवार, 20 दिसंबर 2011
दुनिया का सबसे झूठा वाक्य
दुनिया का सबसे ज्यादा झूठ बोलने वाला वाक्य ढूंढ रही थी...दुनिया यानि मेरी या मेरे जैसे और लोगों की दुनिया का सबसेट...आखिर दुनिया उतनी ही तो है न जितनी हम जानते हैं...बाकी दुनिया तो हम तक पहुँचती नहीं. कम्पीटीशन कड़ा है...बहुत से उम्मीदवारों को छांटने के बाद मुझे दो बहुत ही मजबूत उम्मीदवार दिखे...'मैं तुमसे प्यार नहीं करती' और 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. एकदम अलग अलग समय और माहौल में बोले गए ये दो वाक्य अक्सर सबसे ज्यादा जो कहते दिखते हैं ठीक उससे उलट मतलब होता है इनका.
पहला वाला 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ/आई डोंट लव यू' से तो बहुतों का पाला पड़ा होगा...गौर कीजिये कि ये वाक्य लड़कियों की ओर से कहा जा रहा है...ऐसा नहीं है कि लड़के ऐसा झूठ बोलते ही नहीं है पर अगर आप कोई रिसर्च करेंगे तो देखेंगे कि इस मामले में लड़कियां झूठ बोलने में लड़कों को काफी पीछे छोड़ती हैं. रिसर्च जाने दीजिये, अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और लड़की/महिला हैं तो आप जानती हैं उम्र के कितने पड़ाव पर कितनी सहेलियों के किस्से जब उन्हें किसी लड़के ने हिम्मत करके प्रपोज कर दिया था. याद कीजिए...हॉस्टल का कमरा हो कि शाम को मोहल्ले का पार्क जहाँ रोज की गपशप(गोसिप?) होती है.
लड़कियां वैसे भी लड़कों से ज्यादा बातें करती हैं...मुझे अपने हॉस्टल का कमरा याद आता है...जहाँ हर रात खाने के बाद तमीज का सेशन होता था जिसमें मेरे जैसे कुछ लोग होते थे जो अपनाप को बहुत समझदार समझते थे...ख़ास तौर से रिश्तों के मामले में. मुझे हमेशा लगता था कि मुझे दूर की चीज़ें भी महसूस होती हैं. ये लवगुरु टाईप का तमगा अर्न(earn...you have to earn a Bournville types) करना होता है. जब बहुत दिन तक आपकी दी हुयी मुफ्त की सलाह से लोगों का फायदा हो तो सम्मिलित रूप से लोग आपको ये महान उपाधि देते हैं. ये तब भी होता है जब कोई मुश्किल दौर से गुज़र रही हो और आप उसके मन को हूबहू समझ सकें और उसके मन मुताबिक कोई रास्ता निकल सकें. बहुत मुश्किल काम होता है ये...अपने फ्रीटाइम के इस उपयोग के कारण हमेशा से रिश्तों की कई गुत्थियाँ हमने अनुभव से सुलझाई हैं.
खैर...दिल्ली में तो काफी नोर्मल सी चीज़ थी पर पटना में प्यार वगैरह बड़ी आफत हुआ करती थी...किसी को जाने, देखे, मिले, समझे बिना लड़के प्रोपोज कर मारते थे और लड़कियां बेचारी मुश्किल में पड़ जाती थीं. सबको घर से धमकी आलरेडी मिली रहती थी लड़कों से ज्यादा बात वात मत करो टाइप्स...वैसे में कोई लड़का सीधे आ के बोल रहा है कि 'आई लव यू' तो अगर उसको पसंद भी करते हैं तो क्या कर सकते हैं. बेचारी लड़की दिल पर पत्थर रख के कहती थी 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ'.
लड़की के ऐसा कहने के पीछे बहुत सारा लोजिक रहता था...लड़की सबसे पहले सोचती थी लड़के का टाइटिल क्या है...यानि कि हमारे कास्ट का है कि नहीं...पहला न तो वहीं से उपजता था...पटना में उस समय कास्ट का बहुत पंगा चलता था...तो अगर लड़का दूसरी जाति का है तो बिना सोचे समझे, प्यार को मौका दिए न कह दिया जाता था. अगर बमुश्किल लड़का आपकी जाति का निकला(जो कि कभी नहीं होता था...सब आपस में मैच ऑप्शन के टेबल की तरह इधर उधर हुए रहते थे) तो दूसरी परेशानी आती थी कि कोई जान लेगा तो क्या होगा. लड़के से मिलेंगे कैसे, कोचिंग बंद हो जायेगी...भाई रोज छोड़ने आएगा...मम्मी से डांट पड़ेगी...वगैरह. इन सबसे सबसे मुश्किल चीज़ होती थी कि मिलेंगे कहाँ...और दूसरा खतरा...किसी ने देख लिया तो. तो इन सब प्रक्टिकल कारणों से लड़कियां सीधे न कह लेती थीं. एक बार में झंझट ख़तम.
दुनिया का सबसे बड़ा झूठा वाक्य का दूसरा उम्मीदवार है 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. ये वाक्य भी अधिकतर लड़कियां ही कहती हैं. इस वाक्य को कहने का एक और सिर्फ एक आशय होता है...कि मैं एकदम ठीक नहीं हूँ...थोड़ा मेरे और करीब आकर देखो कि मेरा दिल क्यूँ टूटा है...मैं क्यूँ बिखर रही हूँ...मुझे सम्हाल लो...मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ कि तुम्हें किसी तरह की परेशानी या दुःख न हो इसलिए कहती हूँ कि मैं ठीक हूँ. लड़की ऐसी अजीब शय होती है वो भी मुहब्बत में कि जान देने जा रही होगी और आप उससे पूछेंगे कि कैसी हो, मैं आ जाऊं तो कह देगी 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो' इस वाक्य का हमेशा उल्टा मतलब होता है...डेंजर सिग्नल है एकदम ये वाला. इसको कभी भी इग्नोर नहीं करना चाहिए.
कैसा अजीब होता है न प्यार कि खुद मरे जा रहे हैं उसकी चिंता नहीं है मगर महबूब अगर पूछे कि कैसी हो तो एक शब्द नहीं निकलेगा कि आ जाओ, मर रही हूँ. ये कैसी फितरत है...प्यार का ये कौन सा पहलू है मुझे आज तक समझ नहीं आता. कि जब आपको उसकी सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है उस वक़्त आप चाहोगे कि वो खुद समझ जाए...बिना कहे हुए. इसलिए ये वाक्य बहुत खतरनाक है...इसका मतलब है कि आप जाओ, जहाँ भी है वो और उसे बाँहों में भर लो...लड़की बस इतना ही चाहती है.
कैसा होता है ये चाहना कि आप खुद कहो कि हाँ, अब चले जाओ, मैं ठीक हूँ जबकि दिल कहता है कि अभी कुछ देर और ठहर जाओ, दिल के टाँके कच्चे हैं...ज़ख्म थोड़ा भर जाने दो. उसपर जिंदगी ऐसी बेरहम है कि हालात ऐसे पैदा करती है कि वक़्त हमेशा कम पड़ता है...सोचो आप किसी आवाज़ को एक बार सुनने को तरस रहे हो...पर जानते हो कि वो ऑफिस में होगा...आप मेसेज करते हो...उधर से रिप्लाय आता है कि बीजी हूँ, बाद में फ़ोन करूँ...तुम ठीक हो न? लड़की क्या करेगी...करना चाहिए कि फ़ोन कर ले...एक मिनट की आवाज़ सुन कर रख दे...पर वो करेगी नहीं...वो जवाब देगी...कि वो ठीक है...उसकी चिंता एकदम मत करो. उसका दिल चाहेगा कि कहे कि ऑफिस छोड़ के अभी घर आ जाओ...मैं बहुत परेशान हूँ पर वो करेगी क्या...मेसेज करेगी, खाने में क्या बनवा लूं?
इन दोनों वाक्यों के पीछे की पूरी कहानी जानना बेहद जरूरी है...ये वाक्य कभी भी फेस वैल्यू पर नहीं लिए जा सकते. इनके पीछे बहुत कुछ होता है...अक्सर रोती आँखें और खाली, सूना सा दिल होता है...खैर.
तुमसे कुछ कहना था आज...मैं तुमसे प्यार नहीं करती...और मैं ठीक हूँ...मेरी बिलकुल चिंता मत करो! :)
PS: स्माइली से धोखा मत खाइए...वो बस ध्यान भटकाने के लिए है, मैं देख रही थी कि ऊपर के भाषण का कोई असर हुआ भी है कि एक स्माइली से आप भटक जायेंगे
utkarsh-shukla.blogspot.com
पहला वाला 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ/आई डोंट लव यू' से तो बहुतों का पाला पड़ा होगा...गौर कीजिये कि ये वाक्य लड़कियों की ओर से कहा जा रहा है...ऐसा नहीं है कि लड़के ऐसा झूठ बोलते ही नहीं है पर अगर आप कोई रिसर्च करेंगे तो देखेंगे कि इस मामले में लड़कियां झूठ बोलने में लड़कों को काफी पीछे छोड़ती हैं. रिसर्च जाने दीजिये, अगर आप इस पोस्ट को पढ़ रहे हैं और लड़की/महिला हैं तो आप जानती हैं उम्र के कितने पड़ाव पर कितनी सहेलियों के किस्से जब उन्हें किसी लड़के ने हिम्मत करके प्रपोज कर दिया था. याद कीजिए...हॉस्टल का कमरा हो कि शाम को मोहल्ले का पार्क जहाँ रोज की गपशप(गोसिप?) होती है.
लड़कियां वैसे भी लड़कों से ज्यादा बातें करती हैं...मुझे अपने हॉस्टल का कमरा याद आता है...जहाँ हर रात खाने के बाद तमीज का सेशन होता था जिसमें मेरे जैसे कुछ लोग होते थे जो अपनाप को बहुत समझदार समझते थे...ख़ास तौर से रिश्तों के मामले में. मुझे हमेशा लगता था कि मुझे दूर की चीज़ें भी महसूस होती हैं. ये लवगुरु टाईप का तमगा अर्न(earn...you have to earn a Bournville types) करना होता है. जब बहुत दिन तक आपकी दी हुयी मुफ्त की सलाह से लोगों का फायदा हो तो सम्मिलित रूप से लोग आपको ये महान उपाधि देते हैं. ये तब भी होता है जब कोई मुश्किल दौर से गुज़र रही हो और आप उसके मन को हूबहू समझ सकें और उसके मन मुताबिक कोई रास्ता निकल सकें. बहुत मुश्किल काम होता है ये...अपने फ्रीटाइम के इस उपयोग के कारण हमेशा से रिश्तों की कई गुत्थियाँ हमने अनुभव से सुलझाई हैं.
खैर...दिल्ली में तो काफी नोर्मल सी चीज़ थी पर पटना में प्यार वगैरह बड़ी आफत हुआ करती थी...किसी को जाने, देखे, मिले, समझे बिना लड़के प्रोपोज कर मारते थे और लड़कियां बेचारी मुश्किल में पड़ जाती थीं. सबको घर से धमकी आलरेडी मिली रहती थी लड़कों से ज्यादा बात वात मत करो टाइप्स...वैसे में कोई लड़का सीधे आ के बोल रहा है कि 'आई लव यू' तो अगर उसको पसंद भी करते हैं तो क्या कर सकते हैं. बेचारी लड़की दिल पर पत्थर रख के कहती थी 'मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ'.
लड़की के ऐसा कहने के पीछे बहुत सारा लोजिक रहता था...लड़की सबसे पहले सोचती थी लड़के का टाइटिल क्या है...यानि कि हमारे कास्ट का है कि नहीं...पहला न तो वहीं से उपजता था...पटना में उस समय कास्ट का बहुत पंगा चलता था...तो अगर लड़का दूसरी जाति का है तो बिना सोचे समझे, प्यार को मौका दिए न कह दिया जाता था. अगर बमुश्किल लड़का आपकी जाति का निकला(जो कि कभी नहीं होता था...सब आपस में मैच ऑप्शन के टेबल की तरह इधर उधर हुए रहते थे) तो दूसरी परेशानी आती थी कि कोई जान लेगा तो क्या होगा. लड़के से मिलेंगे कैसे, कोचिंग बंद हो जायेगी...भाई रोज छोड़ने आएगा...मम्मी से डांट पड़ेगी...वगैरह. इन सबसे सबसे मुश्किल चीज़ होती थी कि मिलेंगे कहाँ...और दूसरा खतरा...किसी ने देख लिया तो. तो इन सब प्रक्टिकल कारणों से लड़कियां सीधे न कह लेती थीं. एक बार में झंझट ख़तम.
दुनिया का सबसे बड़ा झूठा वाक्य का दूसरा उम्मीदवार है 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो'. ये वाक्य भी अधिकतर लड़कियां ही कहती हैं. इस वाक्य को कहने का एक और सिर्फ एक आशय होता है...कि मैं एकदम ठीक नहीं हूँ...थोड़ा मेरे और करीब आकर देखो कि मेरा दिल क्यूँ टूटा है...मैं क्यूँ बिखर रही हूँ...मुझे सम्हाल लो...मैं तुमसे इतना प्यार करती हूँ कि तुम्हें किसी तरह की परेशानी या दुःख न हो इसलिए कहती हूँ कि मैं ठीक हूँ. लड़की ऐसी अजीब शय होती है वो भी मुहब्बत में कि जान देने जा रही होगी और आप उससे पूछेंगे कि कैसी हो, मैं आ जाऊं तो कह देगी 'मैं एकदम ठीक हूँ, मेरी चिंता मत करो' इस वाक्य का हमेशा उल्टा मतलब होता है...डेंजर सिग्नल है एकदम ये वाला. इसको कभी भी इग्नोर नहीं करना चाहिए.
कैसा अजीब होता है न प्यार कि खुद मरे जा रहे हैं उसकी चिंता नहीं है मगर महबूब अगर पूछे कि कैसी हो तो एक शब्द नहीं निकलेगा कि आ जाओ, मर रही हूँ. ये कैसी फितरत है...प्यार का ये कौन सा पहलू है मुझे आज तक समझ नहीं आता. कि जब आपको उसकी सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है उस वक़्त आप चाहोगे कि वो खुद समझ जाए...बिना कहे हुए. इसलिए ये वाक्य बहुत खतरनाक है...इसका मतलब है कि आप जाओ, जहाँ भी है वो और उसे बाँहों में भर लो...लड़की बस इतना ही चाहती है.
कैसा होता है ये चाहना कि आप खुद कहो कि हाँ, अब चले जाओ, मैं ठीक हूँ जबकि दिल कहता है कि अभी कुछ देर और ठहर जाओ, दिल के टाँके कच्चे हैं...ज़ख्म थोड़ा भर जाने दो. उसपर जिंदगी ऐसी बेरहम है कि हालात ऐसे पैदा करती है कि वक़्त हमेशा कम पड़ता है...सोचो आप किसी आवाज़ को एक बार सुनने को तरस रहे हो...पर जानते हो कि वो ऑफिस में होगा...आप मेसेज करते हो...उधर से रिप्लाय आता है कि बीजी हूँ, बाद में फ़ोन करूँ...तुम ठीक हो न? लड़की क्या करेगी...करना चाहिए कि फ़ोन कर ले...एक मिनट की आवाज़ सुन कर रख दे...पर वो करेगी नहीं...वो जवाब देगी...कि वो ठीक है...उसकी चिंता एकदम मत करो. उसका दिल चाहेगा कि कहे कि ऑफिस छोड़ के अभी घर आ जाओ...मैं बहुत परेशान हूँ पर वो करेगी क्या...मेसेज करेगी, खाने में क्या बनवा लूं?
इन दोनों वाक्यों के पीछे की पूरी कहानी जानना बेहद जरूरी है...ये वाक्य कभी भी फेस वैल्यू पर नहीं लिए जा सकते. इनके पीछे बहुत कुछ होता है...अक्सर रोती आँखें और खाली, सूना सा दिल होता है...खैर.
तुमसे कुछ कहना था आज...मैं तुमसे प्यार नहीं करती...और मैं ठीक हूँ...मेरी बिलकुल चिंता मत करो! :)
PS: स्माइली से धोखा मत खाइए...वो बस ध्यान भटकाने के लिए है, मैं देख रही थी कि ऊपर के भाषण का कोई असर हुआ भी है कि एक स्माइली से आप भटक जायेंगे
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गुरुवार, 8 दिसंबर 2011
झूटी शान और सम्मान चक्कर से बाहर निकले ब्लॉगजगत
सम्मान हर एक को अच्छा लगता है और तिरस्कार हर एक को बुरा ? और यह दोनों हमारे खुद के ही हाथ मैं है. सम्मान और तिरष्कार कर्म के प्रतिफल है. आप जैसा कर्म करेंगे वैसा ही नतीजा आएगा.
इस समाज मैं मिलने वाला सम्मान और तिरस्कार दो के दो अलग अलग प्रकार हैं. एक सम्मान वो होता है जो आप के अच्छे काम ,मेहनत और लगन के नतीजे मैं मिलता है और यह स्थाई हुआ करता है. दूसरा सम्मान वो होता है जो आप को दिया जाता है आप मैं काबलियत ना होने के बाद भी ,केवल आप को खुश करने के लिए या आप से अपना काम निकालने के लिए. यह सम्मान अस्थायी हुआ करता है.
इसी प्रकार तिरस्कार के भी दो प्रकार हुआ करते हैं. एक वो जो आप को आप के बुरे काम के नतीजे मैं मिलता है और यह भी उस समय तक स्थाई हुआ करता है जब तक आप खुद को पूरी तरह से ना बदल लें. और दूसरा तिरस्कार राजनितिक कारणों से हुआ करता है या आप कि अच्छाइयों के डर से कुछ बुरे लोग किया करते हैं. यह अस्थाई हुआ करता है क्यों कि सत्य को अधिक दिनों तक छिपाना संभव नहीं होता.
यदि आप ब्लॉगर हैं और लिखते दिल से हैं तो यकीनन अच्छा ही लिखेंगे. और अच्छा लिखते हैं तो सम्मान आप को देर से ही सही लेकिन खुद लोग देंगे. आप को अपने लेख़ इधर उधर किसी नयी अखबार या पत्रिका में भेजने कि आवश्यकता नहीं पड़ेगी. दूसरे तो आप का लेख़ छाप कर अपनी ना चलने वाली पत्रिका या अखबार चला लेंगे, पैसा भी बना लेंगे, लेकिन आप के हाथ क्या लगा ? कुछ समय कि शान कि इस पत्रिका या अखबार जिसको आपके ब्लॉग से भी कम लोग पढ़ते हैं, उसमें आप का लेख़ छपा? क्या आपने यह कभी सोंचा कि कुछ समय कि झूटी शान के नाम पे आप इस्तेमाल हो रहे हैं?
कल मैंने अपने लेख़ "जब किसी ब्लोगर का लेख़ अखबारों मैं छपता है. : में लिखा था कि बिना पारश्रमिक पाए ब्लॉगर अपने लेख़ अखबार या पत्रिका मैं छपने पे क्यों खुश हो जाता है?
किसी ब्लॉगर से बात चीत के दौरान उन्होंने बताया कि ब्लॉगजगत मैं अधिकतर वो लोग लिखते हैं ,जिनकी लेखनी को जीवन मैं कोई पहचान नहीं मिल सकी. किसी ने उनको नहीं पढ़ा? इस लिए जब उनके लेख़ किसी छोटी भी पत्रिका या अखबार मैं छप जाता है तो वो खुश हो जाते हैं. मैं अपने इन ब्लॉगर कि बात से सहमत भी हूँ और यह भी मानता हूँ कि यकीनन यह इन ब्लॉगर के लिए यह ख़ुशी कि बात है.
मैं इस बात से भी इनकार नहीं करता कि इंसान शान और नाम के लिए बहुत कुछ खोने को भी तैयार रहता है. लेकिन अक़लमंद इस्तेमाल हो कर नाम और शोहरत नहीं कमाता क्यों कि यह जल्द ही भुला दिया जाता है
लेकिन यह सलाह भी देना चाहूँगा कि ..
यदि आप कि लेखनी को अच्छा लिखने के बाद भी अभी तक कोई पहचान नहीं मिली और ब्लॉगजगत का हिस्सा बन गए हैं. तो थोडा और सब्र करें, सम्मान स्वम चल के आप के पास आएगा. और आपके लेखों को बड़ी पत्रिकाओं और अख़बारों मैं पारश्रमिक के साथ स्थान अवश्य मिलेगा.
बड़े अखबार या पत्रिका को केवल लेख़ नहीं बल्कि अच्छे लेखों कि आवश्यकता हुआ करती है और सही लेखक मिलने पे पारश्रमिक भी दिया जाता है. यहाँ तक कि विषय दे के लिखने को भी कहा जाता है.
हाँ यदि आप स्वम जानते हैं कि आप अच्छा नहीं लिखते तो आप के लिए यही सही होगा कि किसी भी नयी या गुमनाम या १-२ महीने मैं बंद हो जाने वाली पत्रिका या अखबार मैं अपने लेख़ अवश्य भेजें. हो सकता है आप को प्रमाण पत्र भी मिल जाए और तस्वीर भी खीच जाए प्रमाण पत्र लेते हुए. .आप का नहीं तो उस बिचारे अखबार या पत्रिका वाले का तो भला होगा और १-२ महीने कि शान भी आप के हाथ लगेगी.
उचित तो यही है कि अच्छे से अच्छा लिखने कि कोशिश करें और स्थाई सम्मान को पाने कि कोशिश करें. इसी मैं आप की भी और ब्लॉगजगत की भी उन्नति है.
अब यह आप के ऊपर है कि आप स्थाई सम्मान पाना चाहते हैं या अस्थाई.
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इस समाज मैं मिलने वाला सम्मान और तिरस्कार दो के दो अलग अलग प्रकार हैं. एक सम्मान वो होता है जो आप के अच्छे काम ,मेहनत और लगन के नतीजे मैं मिलता है और यह स्थाई हुआ करता है. दूसरा सम्मान वो होता है जो आप को दिया जाता है आप मैं काबलियत ना होने के बाद भी ,केवल आप को खुश करने के लिए या आप से अपना काम निकालने के लिए. यह सम्मान अस्थायी हुआ करता है.
इसी प्रकार तिरस्कार के भी दो प्रकार हुआ करते हैं. एक वो जो आप को आप के बुरे काम के नतीजे मैं मिलता है और यह भी उस समय तक स्थाई हुआ करता है जब तक आप खुद को पूरी तरह से ना बदल लें. और दूसरा तिरस्कार राजनितिक कारणों से हुआ करता है या आप कि अच्छाइयों के डर से कुछ बुरे लोग किया करते हैं. यह अस्थाई हुआ करता है क्यों कि सत्य को अधिक दिनों तक छिपाना संभव नहीं होता.
यदि आप ब्लॉगर हैं और लिखते दिल से हैं तो यकीनन अच्छा ही लिखेंगे. और अच्छा लिखते हैं तो सम्मान आप को देर से ही सही लेकिन खुद लोग देंगे. आप को अपने लेख़ इधर उधर किसी नयी अखबार या पत्रिका में भेजने कि आवश्यकता नहीं पड़ेगी. दूसरे तो आप का लेख़ छाप कर अपनी ना चलने वाली पत्रिका या अखबार चला लेंगे, पैसा भी बना लेंगे, लेकिन आप के हाथ क्या लगा ? कुछ समय कि शान कि इस पत्रिका या अखबार जिसको आपके ब्लॉग से भी कम लोग पढ़ते हैं, उसमें आप का लेख़ छपा? क्या आपने यह कभी सोंचा कि कुछ समय कि झूटी शान के नाम पे आप इस्तेमाल हो रहे हैं?
कल मैंने अपने लेख़ "जब किसी ब्लोगर का लेख़ अखबारों मैं छपता है. : में लिखा था कि बिना पारश्रमिक पाए ब्लॉगर अपने लेख़ अखबार या पत्रिका मैं छपने पे क्यों खुश हो जाता है?
किसी ब्लॉगर से बात चीत के दौरान उन्होंने बताया कि ब्लॉगजगत मैं अधिकतर वो लोग लिखते हैं ,जिनकी लेखनी को जीवन मैं कोई पहचान नहीं मिल सकी. किसी ने उनको नहीं पढ़ा? इस लिए जब उनके लेख़ किसी छोटी भी पत्रिका या अखबार मैं छप जाता है तो वो खुश हो जाते हैं. मैं अपने इन ब्लॉगर कि बात से सहमत भी हूँ और यह भी मानता हूँ कि यकीनन यह इन ब्लॉगर के लिए यह ख़ुशी कि बात है.
मैं इस बात से भी इनकार नहीं करता कि इंसान शान और नाम के लिए बहुत कुछ खोने को भी तैयार रहता है. लेकिन अक़लमंद इस्तेमाल हो कर नाम और शोहरत नहीं कमाता क्यों कि यह जल्द ही भुला दिया जाता है
लेकिन यह सलाह भी देना चाहूँगा कि ..
यदि आप कि लेखनी को अच्छा लिखने के बाद भी अभी तक कोई पहचान नहीं मिली और ब्लॉगजगत का हिस्सा बन गए हैं. तो थोडा और सब्र करें, सम्मान स्वम चल के आप के पास आएगा. और आपके लेखों को बड़ी पत्रिकाओं और अख़बारों मैं पारश्रमिक के साथ स्थान अवश्य मिलेगा.
बड़े अखबार या पत्रिका को केवल लेख़ नहीं बल्कि अच्छे लेखों कि आवश्यकता हुआ करती है और सही लेखक मिलने पे पारश्रमिक भी दिया जाता है. यहाँ तक कि विषय दे के लिखने को भी कहा जाता है.
हाँ यदि आप स्वम जानते हैं कि आप अच्छा नहीं लिखते तो आप के लिए यही सही होगा कि किसी भी नयी या गुमनाम या १-२ महीने मैं बंद हो जाने वाली पत्रिका या अखबार मैं अपने लेख़ अवश्य भेजें. हो सकता है आप को प्रमाण पत्र भी मिल जाए और तस्वीर भी खीच जाए प्रमाण पत्र लेते हुए. .आप का नहीं तो उस बिचारे अखबार या पत्रिका वाले का तो भला होगा और १-२ महीने कि शान भी आप के हाथ लगेगी.
उचित तो यही है कि अच्छे से अच्छा लिखने कि कोशिश करें और स्थाई सम्मान को पाने कि कोशिश करें. इसी मैं आप की भी और ब्लॉगजगत की भी उन्नति है.
अब यह आप के ऊपर है कि आप स्थाई सम्मान पाना चाहते हैं या अस्थाई.
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हम क्यों हर चीज़ शार्ट कट से बिना मेहनत पा लेना चाहते हैं
मुझे याद है जब से मैंने होश संभाला तभी से फिल्मों में हीरो और हेरोइन बनाने के नाम पे धोका धडी की खबरें भी सुनता चला आ रहा हूँ. अधिकतर शिकार वही होते हैं जिनमें प्रतिभा कम होती है इसलिए शोर्ट कट की तलाश में लुट जाते हैं. बावजूद इसके की लाखों लोग ऐसे झूटों के चक्कर में बर्बाद हो गए नए शिकार बनने वालों की संख्या में कमी नहीं आयी . आज भी लोग ख़ास कर के लड़कियां हिरोइन बनने के नाम पे बड़ी बर्बाद होती हैं.
चिट फंड के नाम पे, कभी एक लाख दो और हर महीने ८ हज़ार पो ५ साल तक जैसे वादे करने वाली जालसाज़ कम्पनियाँ अरबों रुपये कमा के भाग जाया करती हैं और हम रोते रह जाते हैं. इसी प्रकार नौकरी दिलाने के नाम पर ना जाने कितने लोग लाखों कमा रहे हैं.
shortcutइन्टरनेट आने के बाद से ऐसे धोकेबाज़ों के लिए अधिक लोगों तब पहुँचने के रास्ते आसान होते जा रहे हैं. . आज भी ऑनलाइन कमाने के नाम पे हजारों जाली वेबसाइट बनी हुई हैं जहाँ आप को सब्ज़ बाग दिखाए दिखाए जाते हैं, कमाई के चेक स्कैन कर के डाले जाते हैं, जिन लोगों ने कमाया उनके विडियो भी दिखाए जाते हैं. लेकिन होता सब झूट है. जब आप उनके मेम्बर बनना चाहते हैं तो कहीं ९००/- कहीं ३०००/ रुपये कहीं १०००/- रुपये दे के मेम्बर बनना होता है. आप मेम्बर बने की उनका काम हो गया ,फिर आप मेल भेजते रहें कुछ नहीं होता.
गूगल एडसेंस से आप की अगर कोई अंग्रेजी की वेबसाइट है तो कमाना आसान है लेकिन सवाल यह उठता है की कितना? आप कितना कमा सकते हैं यह निर्भर करता है कि आप अपनी वेबसाइट या ब्लॉग पे कितने पाठक खींच सकते हैं. लेकिन आप को ना जाने कितनी वेबसाइट इस बात का दावा करते हुई क़ि एक महीने में ५०० से अधिक डालर कमाएं आप का जेब हल्का कर लेने कामयाब हैं.
इसी प्रकार आप को इ मेल या मोबाइल पे खबर दी जाती हैं आप के ए मेल या मोबाइल नंबर के करोड़ डोल्लर का इनाम मिला है आप ऐसा करें और अपनी डिटेल भेजें. इनके चक्कर में पड़ा करोड़ पाने की लालच में लाख गँवा देता है.
टेलिविज़न खोलो तो कोई धार्मिक यंत्र बेच रहा है कोई रातों रात आप की मुश्किल हल होने की रंगीन किताब ,कोई रातों रात आपको क़र्ज़ मुक्त हो जाने कि गारंटी दे रहा है तो कोई लखपति बना रहा है, कोई वादा कर रहा है कि आप का परिवार सुखी होगा , तो कोई मुक़दमे में आप कि जीत होगी इस बात का दवा कर रहा है. ऐसा लगता है कि मेहनत की आवश्यकता अब नहीं रह गयी सब कुछ ५-६ हज़ार की तावीज़ और लाल पीली नीली किताबों से मिल सकता है.
अब हिंदी ब्लॉगजगत में भी झूठे वादों और प्रलोभन के सहारे पे आप से एक बड़ी रक़म ऐंठ लेने वालों के बारे में खबरें आने लगी हैं. इनका शिकार अधिकतर नए ब्लॉगर और महिला ब्लॉगर हो रही हैं. आप अगर हिंदी ब्लॉगजगत में नए हैं, या अभी अभी कविता कहना और लिखना शुरू किया है तो अपनी लेखनी को और बेहतर बनाएं यकीन जानिए बहुत जल्द आप के लेख़ और कविताएँ अख़बारों और पत्रिकाओं में भी छपने लगेंगे. कहीं ऐसा ना हो की इन शार्ट कट के चक्करों में पड के आपकी जेब भी हलकी हो जाए और हाथ भी कुछ ना आये.
इनके शिकार दो तरह के लोग होते हैं . एक वो जो आसान रास्ते से अधिक धन या नाम कमाने की इच्छा रखते हैं और दूसरे वो जो किसी कारणवश बेरोजगार हैं. इसमें उस महिलाओं की संख्या अधिक हुआ करती है जो घर में समय का सदुपयोग कर के कुछ कमा लेना चाहती हैं. यह सही है कि ऑन लाइन कमाया जा सकता है लेकिन यह एक मेहनत का काम है.
सवाल उठता है क़ि हम ऐसे क्यों हैं? क्यों हर चीज़ शार्ट कट से बिना मेहनत के पा लेना चाहते हैं और बेक़कूफ़ बनते जाते हैं. याद रखें यह शार्ट कट के रास्ते से शोहरत और पैसा कमाने का शौक बर्बाद ही कर सकता है फायदा कभी नहीं पहुंचा सकता क्यों कि मेहनत और लगन से समय दे के कमाया धन ही टिकाऊ हुआ करता है और यदि कोई अपनी प्रतिभा और मेहनत पे भरोसा करता है तो किसी तरह का प्रलोभन उसपर असर नहीं कर सकता.
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चिट फंड के नाम पे, कभी एक लाख दो और हर महीने ८ हज़ार पो ५ साल तक जैसे वादे करने वाली जालसाज़ कम्पनियाँ अरबों रुपये कमा के भाग जाया करती हैं और हम रोते रह जाते हैं. इसी प्रकार नौकरी दिलाने के नाम पर ना जाने कितने लोग लाखों कमा रहे हैं.
shortcutइन्टरनेट आने के बाद से ऐसे धोकेबाज़ों के लिए अधिक लोगों तब पहुँचने के रास्ते आसान होते जा रहे हैं. . आज भी ऑनलाइन कमाने के नाम पे हजारों जाली वेबसाइट बनी हुई हैं जहाँ आप को सब्ज़ बाग दिखाए दिखाए जाते हैं, कमाई के चेक स्कैन कर के डाले जाते हैं, जिन लोगों ने कमाया उनके विडियो भी दिखाए जाते हैं. लेकिन होता सब झूट है. जब आप उनके मेम्बर बनना चाहते हैं तो कहीं ९००/- कहीं ३०००/ रुपये कहीं १०००/- रुपये दे के मेम्बर बनना होता है. आप मेम्बर बने की उनका काम हो गया ,फिर आप मेल भेजते रहें कुछ नहीं होता.
गूगल एडसेंस से आप की अगर कोई अंग्रेजी की वेबसाइट है तो कमाना आसान है लेकिन सवाल यह उठता है की कितना? आप कितना कमा सकते हैं यह निर्भर करता है कि आप अपनी वेबसाइट या ब्लॉग पे कितने पाठक खींच सकते हैं. लेकिन आप को ना जाने कितनी वेबसाइट इस बात का दावा करते हुई क़ि एक महीने में ५०० से अधिक डालर कमाएं आप का जेब हल्का कर लेने कामयाब हैं.
इसी प्रकार आप को इ मेल या मोबाइल पे खबर दी जाती हैं आप के ए मेल या मोबाइल नंबर के करोड़ डोल्लर का इनाम मिला है आप ऐसा करें और अपनी डिटेल भेजें. इनके चक्कर में पड़ा करोड़ पाने की लालच में लाख गँवा देता है.
टेलिविज़न खोलो तो कोई धार्मिक यंत्र बेच रहा है कोई रातों रात आप की मुश्किल हल होने की रंगीन किताब ,कोई रातों रात आपको क़र्ज़ मुक्त हो जाने कि गारंटी दे रहा है तो कोई लखपति बना रहा है, कोई वादा कर रहा है कि आप का परिवार सुखी होगा , तो कोई मुक़दमे में आप कि जीत होगी इस बात का दवा कर रहा है. ऐसा लगता है कि मेहनत की आवश्यकता अब नहीं रह गयी सब कुछ ५-६ हज़ार की तावीज़ और लाल पीली नीली किताबों से मिल सकता है.
अब हिंदी ब्लॉगजगत में भी झूठे वादों और प्रलोभन के सहारे पे आप से एक बड़ी रक़म ऐंठ लेने वालों के बारे में खबरें आने लगी हैं. इनका शिकार अधिकतर नए ब्लॉगर और महिला ब्लॉगर हो रही हैं. आप अगर हिंदी ब्लॉगजगत में नए हैं, या अभी अभी कविता कहना और लिखना शुरू किया है तो अपनी लेखनी को और बेहतर बनाएं यकीन जानिए बहुत जल्द आप के लेख़ और कविताएँ अख़बारों और पत्रिकाओं में भी छपने लगेंगे. कहीं ऐसा ना हो की इन शार्ट कट के चक्करों में पड के आपकी जेब भी हलकी हो जाए और हाथ भी कुछ ना आये.
इनके शिकार दो तरह के लोग होते हैं . एक वो जो आसान रास्ते से अधिक धन या नाम कमाने की इच्छा रखते हैं और दूसरे वो जो किसी कारणवश बेरोजगार हैं. इसमें उस महिलाओं की संख्या अधिक हुआ करती है जो घर में समय का सदुपयोग कर के कुछ कमा लेना चाहती हैं. यह सही है कि ऑन लाइन कमाया जा सकता है लेकिन यह एक मेहनत का काम है.
सवाल उठता है क़ि हम ऐसे क्यों हैं? क्यों हर चीज़ शार्ट कट से बिना मेहनत के पा लेना चाहते हैं और बेक़कूफ़ बनते जाते हैं. याद रखें यह शार्ट कट के रास्ते से शोहरत और पैसा कमाने का शौक बर्बाद ही कर सकता है फायदा कभी नहीं पहुंचा सकता क्यों कि मेहनत और लगन से समय दे के कमाया धन ही टिकाऊ हुआ करता है और यदि कोई अपनी प्रतिभा और मेहनत पे भरोसा करता है तो किसी तरह का प्रलोभन उसपर असर नहीं कर सकता.
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नारी को आगे बढ़ने में मदद करते हैं पुरूष भी
जो सच में एक नारी होती है वह कहती है कि उसे आगे बढ ने में उसकी मां ने ही नहीं बल्कि उसके बाप ने भी मदद की है। इक्का दुक्का नासमझ औरत-मर्दों ने कभी कभी इस सच्चाई को झुठलाने की कोशिशें भी की हैं लेकिन सच बहरहाल सच होता है और वह बार बार सामने आता रहता है।
यह स्टोरी पढ़ी तो यही सच एक बार फिर हम सबके सामने आ गया है।
पेरेंट्स का भरोसा बनाता है बेटियों को कामयाब
बेटियों की कामयाबी की असल वजह पेरेंट्स का भरोसा होता है। आत्मविश्वास से भरी कनुप्रिया कहती हैं कि पेरेंट्स अगर लड़कियों को प्रोत्साहित करें और उन्हें अपने फैसले लेना सिखाएं तो किसी भी समाज की तकदीर बदल सकती है। कनुप्रिया डिडवानिया (अग्रवाल) देश की पहली टेस्ट टय़ूब बेबी हैं। कलकत्ता में जन्मीं कनुप्रिया ने पुणे से मैनेजमेंट की पढ़ाई की और पिछले दस सालों से साइबर सिटी में रह रही हैं। वो एक नामी कन्फेकशनरी कंपनी में ग्रुप प्रोडक्ट मैनेजर के तौर पर काम कर रही हैं।
बदलते सामाजिक परिदृश्य में बदलती सोच को सही करार देते हुए कनुप्रिया कहती हैं कि अब लड़कियां शादी के बाद पराई नहीं होती। लड़कों की तुलना में लड़कियों का जीवन भी चुनौतीपूर्ण होता है। कनुप्रिया कहती हैं कि नौकरी और ससुराल के बीच सामंजस्य बिठाना लड़कियों के बस की ही बात है। कनुप्रिया कहती हैं कि हरियाणा जैसी जगहों में सेक्स रेशियो के कम होने की वजहों को टटोलना बेहद जरुरी है। आखिर सामाजिक ढांचे में ऐसी क्या कसर है जो बेटियों को बोझ समझा जाता है हालांकि शहरों में और कुछ हद तक गांवों में हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। आज से तैंतीस साल पहले जब मेडिकल जगत में संसाधन बेहद कम थे और सामाजिक सोच भी संकीर्ण थी। मेरा जन्म होना एक बड़ी बात थी।कनुप्रिया कहती हैं कि उन्हें कभी लड़की होने की वजह से बंदिशों में नहीं रखा गया। अच्छी पढ़ाई और परवरिश ने ही उनका आत्मविश्वास बढ़ाया है। घर में अब तक पेरेंट्स से एक ही बार डांट पड़ी है जब उन्होंने बचपने में कहा था कि शायद आप लोगों को भी लड़की होने पर दुख हुआ होगा। देश के नामी मैनेजमेंट कॉलेजों में प्रबंधन के गुर सिखाने वाली कनुप्रिया अपनी कामयाबी का श्रेय अपने अभिभावकों और डॉक्टरों को देती हैं। एक पारंपरिक मारवाड़ी परिवार में जन्मीं कनुप्रिया पिता प्रभात अग्रवाल और मां बेला अग्रवाल के साथ ही डॉक्टरों की उस टीम के भी बेहद करीब हैं जो आईवीएफ तकनीक के लिए एडवांस रिसर्च से जुड़ा रहा है। स्वर्गीय डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय का बेहद सम्मान करने वाली कनुप्रिया कहती हैं कि पेरेंट्स के साथ ही उनके साहस और विश्वास की वजह से ही मेरा अस्तित्व है। डॉक्टर सुनीत मुखर्जी और आनंद कुमार को भी परिवार का हिस्सा बताती हैं।
पूरी तरह सामान्य जीवन जी रही कनुप्रिया कहती हैं कि टेस्ट टय़ूब बेबी भी आम बच्चों की तरह ही होते हैं। तीन अक्टूबर 1978 को जन्मीं कनुप्रिया अब 33 साल की हो चुकी हैं। कनुप्रिया की शादी को भी अब पांच साल हो गए हैं। कनुप्रिया को घर में सब दुर्गा बुलाते हैं। उनका कहना है कि दुर्गा महज देवी नही हैं। बुराई या गलत के खिलाफ आवाज उठाने की प्रवृत्ति भी है जो सभी लड़कियों में छुपी होती है।
Source
http://www.livehindustan.com/news/desh/deshlocalnews/article1-story-39-0-192473.html&locatiopnvalue=1
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यह स्टोरी पढ़ी तो यही सच एक बार फिर हम सबके सामने आ गया है।
पेरेंट्स का भरोसा बनाता है बेटियों को कामयाब
बेटियों की कामयाबी की असल वजह पेरेंट्स का भरोसा होता है। आत्मविश्वास से भरी कनुप्रिया कहती हैं कि पेरेंट्स अगर लड़कियों को प्रोत्साहित करें और उन्हें अपने फैसले लेना सिखाएं तो किसी भी समाज की तकदीर बदल सकती है। कनुप्रिया डिडवानिया (अग्रवाल) देश की पहली टेस्ट टय़ूब बेबी हैं। कलकत्ता में जन्मीं कनुप्रिया ने पुणे से मैनेजमेंट की पढ़ाई की और पिछले दस सालों से साइबर सिटी में रह रही हैं। वो एक नामी कन्फेकशनरी कंपनी में ग्रुप प्रोडक्ट मैनेजर के तौर पर काम कर रही हैं।
बदलते सामाजिक परिदृश्य में बदलती सोच को सही करार देते हुए कनुप्रिया कहती हैं कि अब लड़कियां शादी के बाद पराई नहीं होती। लड़कों की तुलना में लड़कियों का जीवन भी चुनौतीपूर्ण होता है। कनुप्रिया कहती हैं कि नौकरी और ससुराल के बीच सामंजस्य बिठाना लड़कियों के बस की ही बात है। कनुप्रिया कहती हैं कि हरियाणा जैसी जगहों में सेक्स रेशियो के कम होने की वजहों को टटोलना बेहद जरुरी है। आखिर सामाजिक ढांचे में ऐसी क्या कसर है जो बेटियों को बोझ समझा जाता है हालांकि शहरों में और कुछ हद तक गांवों में हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। आज से तैंतीस साल पहले जब मेडिकल जगत में संसाधन बेहद कम थे और सामाजिक सोच भी संकीर्ण थी। मेरा जन्म होना एक बड़ी बात थी।कनुप्रिया कहती हैं कि उन्हें कभी लड़की होने की वजह से बंदिशों में नहीं रखा गया। अच्छी पढ़ाई और परवरिश ने ही उनका आत्मविश्वास बढ़ाया है। घर में अब तक पेरेंट्स से एक ही बार डांट पड़ी है जब उन्होंने बचपने में कहा था कि शायद आप लोगों को भी लड़की होने पर दुख हुआ होगा। देश के नामी मैनेजमेंट कॉलेजों में प्रबंधन के गुर सिखाने वाली कनुप्रिया अपनी कामयाबी का श्रेय अपने अभिभावकों और डॉक्टरों को देती हैं। एक पारंपरिक मारवाड़ी परिवार में जन्मीं कनुप्रिया पिता प्रभात अग्रवाल और मां बेला अग्रवाल के साथ ही डॉक्टरों की उस टीम के भी बेहद करीब हैं जो आईवीएफ तकनीक के लिए एडवांस रिसर्च से जुड़ा रहा है। स्वर्गीय डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय का बेहद सम्मान करने वाली कनुप्रिया कहती हैं कि पेरेंट्स के साथ ही उनके साहस और विश्वास की वजह से ही मेरा अस्तित्व है। डॉक्टर सुनीत मुखर्जी और आनंद कुमार को भी परिवार का हिस्सा बताती हैं।
पूरी तरह सामान्य जीवन जी रही कनुप्रिया कहती हैं कि टेस्ट टय़ूब बेबी भी आम बच्चों की तरह ही होते हैं। तीन अक्टूबर 1978 को जन्मीं कनुप्रिया अब 33 साल की हो चुकी हैं। कनुप्रिया की शादी को भी अब पांच साल हो गए हैं। कनुप्रिया को घर में सब दुर्गा बुलाते हैं। उनका कहना है कि दुर्गा महज देवी नही हैं। बुराई या गलत के खिलाफ आवाज उठाने की प्रवृत्ति भी है जो सभी लड़कियों में छुपी होती है।
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माँ ऐसे कपूत को क्यों माफ़ करेगी ?
बेटे ने अपनी 75 वर्षीय बूढी माँ से पूछा "माँ चल तुझे तीर्थ करा लाता हूँ" बूढी माँ बोली इससे ज्यादा भली बात और क्या होगी, मन ही मन सोचती है आखिर संस्कारी पिता का संस्कारी पुत्र है मेरा बेटा. इस तरह माँ बेटे माँ वैष्णो देवी की यात्रा पर निकल पड़ते है, ट्रेन के सफ़र के थकेहारो ने कटरा की धर्मशाला में शरण ली. बेटा माँ से बोला माँ तुम तो वैसे भी बहुत थकी हो, माँ वैष्णो की चढाई नहीं कर सकोगी तुम यही ठहरो मैं मईया का प्रसाद चढ़ा के आता हूँ.
माँ की आँखों में वात्सल्य की बूंदे छलक आई, मेरा बेटा कितना लायक है, भगवान् सबको ऐसा ही सपूत दे. बेटा कटरा से वैष्णो देवी निकल पड़ा. जब 2 दिन तक नहीं लौटा तो माँ को चिंता होने लगी, मन में बेटे की कुशलता की प्रार्थना करने लगी. वह धर्मशाला के मेनेजर के पास जा पहुंची और बोली "बेटा मेरा बेटा वैष्णो देवी से नहीं लौटा, आज दो दिन पूरे हो गए. मेनेजर बोला "अम्मा तेरा बेटा अब वैष्णो देवी से नहीं लौटेगा. वह तेरे खर्चे के पैसे हमें दे गया है, और हमें 1500 रुपए हर महीने भेज दिया करेगा". माँ सन्न रह गयी, कुछ देर बाद बोली, बेटा तुम मुझे 200 रुपये दे कर मेरी जरा मदद कर सकते हो, तुम्हारा अहसान मानूंगी. मैनेजर ने उसके पैसो में से 200 रुपये दे दिए.
वह उन 200 रुपये की मदद से अपने घर वापस लौट आई और अपने पति के रैक में रखी अपने नाम की वसीयत लेकर चली गयी, उस वसीयत की जानकारी सिवा उस बुडिया के किसी को नहीं थी. उसने अपने पति का डुप्लेक्स बेच दिया जिससे आज उसका बेटा बेघर हो गया. माँ को बेघर करने वाला आज खुद बेघर हो गया.
अब बहु बेटा माँ से माफ़ी मांग रहे है.
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माँ की आँखों में वात्सल्य की बूंदे छलक आई, मेरा बेटा कितना लायक है, भगवान् सबको ऐसा ही सपूत दे. बेटा कटरा से वैष्णो देवी निकल पड़ा. जब 2 दिन तक नहीं लौटा तो माँ को चिंता होने लगी, मन में बेटे की कुशलता की प्रार्थना करने लगी. वह धर्मशाला के मेनेजर के पास जा पहुंची और बोली "बेटा मेरा बेटा वैष्णो देवी से नहीं लौटा, आज दो दिन पूरे हो गए. मेनेजर बोला "अम्मा तेरा बेटा अब वैष्णो देवी से नहीं लौटेगा. वह तेरे खर्चे के पैसे हमें दे गया है, और हमें 1500 रुपए हर महीने भेज दिया करेगा". माँ सन्न रह गयी, कुछ देर बाद बोली, बेटा तुम मुझे 200 रुपये दे कर मेरी जरा मदद कर सकते हो, तुम्हारा अहसान मानूंगी. मैनेजर ने उसके पैसो में से 200 रुपये दे दिए.
वह उन 200 रुपये की मदद से अपने घर वापस लौट आई और अपने पति के रैक में रखी अपने नाम की वसीयत लेकर चली गयी, उस वसीयत की जानकारी सिवा उस बुडिया के किसी को नहीं थी. उसने अपने पति का डुप्लेक्स बेच दिया जिससे आज उसका बेटा बेघर हो गया. माँ को बेघर करने वाला आज खुद बेघर हो गया.
अब बहु बेटा माँ से माफ़ी मांग रहे है.
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'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक...'
बचपन से ही बड़ा उत्साह सा रहा है इसके प्रति. सुबह-सुबह नहा-धोकर स्कूल के लिए निकल पड़ना..उस दिन स्कूल ज्यादा आनंद दायक लगता था, क्योंकि उस दिन बस्ता ले जाने की पाबन्दी नहीं होती थी, ना ही पढने की और ज्यादा प्रतीक्षित तो वो लड्डू थे जो झंडा फहराने के बाद मिलते थे. थोडा बड़ा होते-होते भाषण देने की लत भी लग गयी थी, इसलिए ऐसे अवसरों का और भी बेसब्री से इंतजार रहने लगा था.
उन दिनों भाषण की तैयारी के बहाने ही सही, बड़े-बड़े देशभक्तों की कहानियां ध्यान से पढ़ा करता था. आश्चर्य होता था भगत सिंह, राजगुरु जैसे दीवानों के किस्से पढ़कर. और गांधीजी के 'सत्य के प्रयोग' ने तो मन ही मोह लिया था. मन में वही क्रांतिकारी तेवर करवट लिया करते थे और 15 अगस्त, 26 जनवरी के आसपास कुछ ज्यादा ही.
बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है ये सब, यही कोई आठ-दस साल ही तो हुए हैं उस देशभक्त बचपन को बीते हुए. शनै-शनै अन्दर का देशभक्त खोने लग गया था, भाषण की आदत तो नहीं छूटी थी, मगर अब भाषण में मेरी आत्मा ना होकर एक लोकेशना का मोह ज्यादा रहने लगा था. धीरे-धीरे भाषण का मंच भी खो गया और मोह भी.
लेकिन आज अचानक सड़क पर पुलिस की बढ़ी हुई चहलकदमी देखकर याद आया कि 'दिवस' आने वाला है. एक अजीब सा तुलनात्मक भाव आ रहा है मन में.
खुद की तुलना खुद से करते हुए भी एक अंतर लग रहा है. आज में रह कर देखता हूँ तो वह देशभक्त सा बचपन स्वप्न लगता है और उस बचपन में जाकर देखता हूँ तो आज का सच वहशी लगता है.
और जब ये तुलना बाहर समाज में निकलती है तो दृश्य और भी भयावह हो जाता है. याद आ रही है वो 'मेरा रंग दे बसंती चोला' वाली किताबों में पढ़ी हुई पीढी. विश्वास नहीं होता कि कैसे हमारी ही उम्र के वो नौजवान इतना कष्ट झेल लेते थे देश के लिए?
जाने कैसे देश के लिए जान देने जैसी तत्परता थी उनके भीतर?
उतावलापन सा रहता था उनके मन में देश की स्थिति पर चिंतन करने और उसे सुधारने के लिए.
बेचैन रहते हर वक़्त आम मानुष के लिए. गाते तो देश, नाचते तो देश. खाते-पीते, सोते-जागते सिर्फ देश की बात......बचपन में उनकी कहानी पढ़ते-पढ़ते जोश में आकर गाया करता था 'मेरा रंग दे बसंती चोला,ओ माये रंग दे बसंती चोला....' और फिर मुझ जैसे कई देशभक्त गाने लगते थे अपनी-अपनी आवाज में.
अपनी देशभक्ति के अवसान काल में भी "LOC kargil" फिल्म देखने का जज्बा सा जाग पड़ा. हाल पहुँच कर बड़ा सुकून मिला था. अच्छी खासी भीड़ थी देखने वालों की. लगा कि चलो देश मरा नहीं है. दर्शकों में ज्यादातर युवा ही थे, मेरी ही उम्र के आसपास के.
फिल्म चल पड़ी थी, मेरा उत्साह जोर मार रहा था. लेकिन युवा साथी कुछ शांत से लग रहे थे, लड़ाई का सीन शुरू होते ही सबकी चेतना वापस आने लगी थी. लेकिन अचानक हुए शोर से (हूटिंग कहते हैं) मैं थोडा सा चौंक गया था, कारण समझ नहीं आया था शोर का. फिर थोडी देर में पता लगा कि शोर कही गयी बातों पर नहीं हो रहा था, बल्कि तालियाँ तो उन शब्दों पर बज रही थीं जिन्हें "बीप-बीप" की आवाज में डायरेक्टर ने छुपा दिया था, शायद सेंसर के चलते. मगर मैं सोच रहा था कि अब सेंसर कहाँ गया..ना कहते हुए भी कह देने का तरीका भी तो है.
शोध कहते हैं कि सोशल नेट्वर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर युवा इनके जरिये ऐसे ही नए चलन में आये हुए स्टाइलिश शब्दों का आदान प्रदान करते हैं. "डेल्ही बेली" और "देव डी" की तारीफ इनकी जबान पर है.
बातें तो LOC की भी होती थी, लेकिन "बीप-बीप" की चर्चा ज्यादा थी.
ऐसे ही एक शोध के मुताबिक इन्टरनेट का इस्तेमाल कर रही पीढी का एक बड़ा हिस्सा अश्लील साइट्स के सर्च को प्राथमिकता में रखता है. अछूता मैं खुद भी नहीं रहा इस से. मगर इस सच ने अचानक झकझोर दिया है. मैं सोच रहा हूँ कि हम सब किस ओर बढ़ रहे हैं?
यह युवा पीढी, जिसके कन्धों पर आगे देश की बागडोर होगी, वह कहाँ खोयी हुई है?
पिछले सालों में और भी ऐसा ही बवाल मचा हुआ था 'सच का सामना', स्वयंवर और बिग बॉस जैसे धारावाहिकों को लेकर.
जितनी निर्लज्जता के साथ निर्देशकों ने इन्हें पेश किया था, प्रतिभागी हिस्सा ले रहे थे, उतनी ही निर्लज्जता के साथ कुछ बुद्धिजीवी इसके समर्थन का राग भी अलाप रहे थे. तर्क दिया जा रहा था कि आखिर अमेरिका में भी तो यह धारावाहिक चलता है.
भैया अमेरिका में तो शादी की पाँचवीं सालगिरह मनाने की नौबत ही नहीं आती, लेकिन भारत में सात जन्मों का साथ निभता है.
तासीर का फर्क तो समझो अमेरिका और भारत की. वहां "माँ सिर्फ पिता की पत्नी होती है."
इया साल भी कहीं कुछ नया नहीं दिख रहा है. आज भी 'डेल्ही बेली' जैसी फिल्मो के समर्थन में ऐसे ही बेहूदा तर्क दिए जा रहे हैं.
आश्चर्य है अब देश की चर्चा, मूलभूत समस्यायों की चर्चा करने के लिए किसी के पास समय ही नहीं बचा है.
हर साल की तरह फिर एक बार स्वतंत्रता दिवस आने वाला है. उत्साह हर रोज घटता जा रहा है. अब भगत सिंह पैदा तो होना चाहिए लेकिन हमारे घर में नहीं पडोसी के घर में.
'सरदार भगत सिंह के आखिरी उदगार' पढ़ रहा था, यकीन ही नहीं होता कि जिस उम्र में साला हम एक खरोंच से डर जाते हैं, उसी उम्र का वो बन्दा कितनी बेफिक्री से अपने मरने के तरीके सुझा रहा था ब्रिटिश सल्तनत को. हमें बेकार की लफ्फाजियों से फुर्सत नहीं और भगत सिंह पूरी दुनिया को अर्थशास्त्र सिखा रहे थे.
जब सारा देश महात्मा गाँधी का पूजा की हद तक सम्मान कर रहा था तब कैसी बेबाकी और साफगोई से सुखदेव ने उन्हें पत्र लिखकर अपना और क्रांतिकारियों का पक्ष रखा और अपने लिए माफ़ी की बात खारिज कर दी..
पता नहीं किस मिटटी के बने थे वो? या शायद इस पीढी की मिट्टी ख़राब हो गयी है. !!
मंहगाई, भूख, बेरोजगारी, लूट, बलात्कार सब कुछ तो है, बस अगर कुछ नहीं है तो वो है इन बातों पर चिंतन करने और इन्हें ख़त्म करने वाली जमात. 'डेल्ही बेली' पर तो बहस है लेकिन इन जमीनी मुद्दों पर कहीं चूं भी नहीं है.
सब खोजने में लगे हुए हैं चोली के पीछे के राज को..
'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक के इस सफ़र में देश कहाँ चला गया और कब चला गया, पता ही नहीं चला.
कब मेरे भीतर का भारत मर गया, मैं सोचकर अनुत्तरित हूँ.
कैसे "वन्दे मातरम" की सेज बनने वाले होंठ "गालियों का गलीचा" बन गए?
कैसे चोले को उस रंग में रंगने की जिद में अड़ा हुआ मन चोली के पीछे का सच खोजने निकल पड़ा?
स्वतंत्रता दिवस कैसे पर्व से जयंती बन गया?
कौन जिम्मेदार है इस वैचारिक और नैतिक पतन का?
है कोई जवाब आपके पास मेरी इस उलझन का?
हो तो जरूर बताइयेगा.....
पड़ताल अभी जारी है..
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उन दिनों भाषण की तैयारी के बहाने ही सही, बड़े-बड़े देशभक्तों की कहानियां ध्यान से पढ़ा करता था. आश्चर्य होता था भगत सिंह, राजगुरु जैसे दीवानों के किस्से पढ़कर. और गांधीजी के 'सत्य के प्रयोग' ने तो मन ही मोह लिया था. मन में वही क्रांतिकारी तेवर करवट लिया करते थे और 15 अगस्त, 26 जनवरी के आसपास कुछ ज्यादा ही.
बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है ये सब, यही कोई आठ-दस साल ही तो हुए हैं उस देशभक्त बचपन को बीते हुए. शनै-शनै अन्दर का देशभक्त खोने लग गया था, भाषण की आदत तो नहीं छूटी थी, मगर अब भाषण में मेरी आत्मा ना होकर एक लोकेशना का मोह ज्यादा रहने लगा था. धीरे-धीरे भाषण का मंच भी खो गया और मोह भी.
लेकिन आज अचानक सड़क पर पुलिस की बढ़ी हुई चहलकदमी देखकर याद आया कि 'दिवस' आने वाला है. एक अजीब सा तुलनात्मक भाव आ रहा है मन में.
खुद की तुलना खुद से करते हुए भी एक अंतर लग रहा है. आज में रह कर देखता हूँ तो वह देशभक्त सा बचपन स्वप्न लगता है और उस बचपन में जाकर देखता हूँ तो आज का सच वहशी लगता है.
और जब ये तुलना बाहर समाज में निकलती है तो दृश्य और भी भयावह हो जाता है. याद आ रही है वो 'मेरा रंग दे बसंती चोला' वाली किताबों में पढ़ी हुई पीढी. विश्वास नहीं होता कि कैसे हमारी ही उम्र के वो नौजवान इतना कष्ट झेल लेते थे देश के लिए?
जाने कैसे देश के लिए जान देने जैसी तत्परता थी उनके भीतर?
उतावलापन सा रहता था उनके मन में देश की स्थिति पर चिंतन करने और उसे सुधारने के लिए.
बेचैन रहते हर वक़्त आम मानुष के लिए. गाते तो देश, नाचते तो देश. खाते-पीते, सोते-जागते सिर्फ देश की बात......बचपन में उनकी कहानी पढ़ते-पढ़ते जोश में आकर गाया करता था 'मेरा रंग दे बसंती चोला,ओ माये रंग दे बसंती चोला....' और फिर मुझ जैसे कई देशभक्त गाने लगते थे अपनी-अपनी आवाज में.
अपनी देशभक्ति के अवसान काल में भी "LOC kargil" फिल्म देखने का जज्बा सा जाग पड़ा. हाल पहुँच कर बड़ा सुकून मिला था. अच्छी खासी भीड़ थी देखने वालों की. लगा कि चलो देश मरा नहीं है. दर्शकों में ज्यादातर युवा ही थे, मेरी ही उम्र के आसपास के.
फिल्म चल पड़ी थी, मेरा उत्साह जोर मार रहा था. लेकिन युवा साथी कुछ शांत से लग रहे थे, लड़ाई का सीन शुरू होते ही सबकी चेतना वापस आने लगी थी. लेकिन अचानक हुए शोर से (हूटिंग कहते हैं) मैं थोडा सा चौंक गया था, कारण समझ नहीं आया था शोर का. फिर थोडी देर में पता लगा कि शोर कही गयी बातों पर नहीं हो रहा था, बल्कि तालियाँ तो उन शब्दों पर बज रही थीं जिन्हें "बीप-बीप" की आवाज में डायरेक्टर ने छुपा दिया था, शायद सेंसर के चलते. मगर मैं सोच रहा था कि अब सेंसर कहाँ गया..ना कहते हुए भी कह देने का तरीका भी तो है.
शोध कहते हैं कि सोशल नेट्वर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर युवा इनके जरिये ऐसे ही नए चलन में आये हुए स्टाइलिश शब्दों का आदान प्रदान करते हैं. "डेल्ही बेली" और "देव डी" की तारीफ इनकी जबान पर है.
बातें तो LOC की भी होती थी, लेकिन "बीप-बीप" की चर्चा ज्यादा थी.
ऐसे ही एक शोध के मुताबिक इन्टरनेट का इस्तेमाल कर रही पीढी का एक बड़ा हिस्सा अश्लील साइट्स के सर्च को प्राथमिकता में रखता है. अछूता मैं खुद भी नहीं रहा इस से. मगर इस सच ने अचानक झकझोर दिया है. मैं सोच रहा हूँ कि हम सब किस ओर बढ़ रहे हैं?
यह युवा पीढी, जिसके कन्धों पर आगे देश की बागडोर होगी, वह कहाँ खोयी हुई है?
पिछले सालों में और भी ऐसा ही बवाल मचा हुआ था 'सच का सामना', स्वयंवर और बिग बॉस जैसे धारावाहिकों को लेकर.
जितनी निर्लज्जता के साथ निर्देशकों ने इन्हें पेश किया था, प्रतिभागी हिस्सा ले रहे थे, उतनी ही निर्लज्जता के साथ कुछ बुद्धिजीवी इसके समर्थन का राग भी अलाप रहे थे. तर्क दिया जा रहा था कि आखिर अमेरिका में भी तो यह धारावाहिक चलता है.
भैया अमेरिका में तो शादी की पाँचवीं सालगिरह मनाने की नौबत ही नहीं आती, लेकिन भारत में सात जन्मों का साथ निभता है.
तासीर का फर्क तो समझो अमेरिका और भारत की. वहां "माँ सिर्फ पिता की पत्नी होती है."
इया साल भी कहीं कुछ नया नहीं दिख रहा है. आज भी 'डेल्ही बेली' जैसी फिल्मो के समर्थन में ऐसे ही बेहूदा तर्क दिए जा रहे हैं.
आश्चर्य है अब देश की चर्चा, मूलभूत समस्यायों की चर्चा करने के लिए किसी के पास समय ही नहीं बचा है.
हर साल की तरह फिर एक बार स्वतंत्रता दिवस आने वाला है. उत्साह हर रोज घटता जा रहा है. अब भगत सिंह पैदा तो होना चाहिए लेकिन हमारे घर में नहीं पडोसी के घर में.
'सरदार भगत सिंह के आखिरी उदगार' पढ़ रहा था, यकीन ही नहीं होता कि जिस उम्र में साला हम एक खरोंच से डर जाते हैं, उसी उम्र का वो बन्दा कितनी बेफिक्री से अपने मरने के तरीके सुझा रहा था ब्रिटिश सल्तनत को. हमें बेकार की लफ्फाजियों से फुर्सत नहीं और भगत सिंह पूरी दुनिया को अर्थशास्त्र सिखा रहे थे.
जब सारा देश महात्मा गाँधी का पूजा की हद तक सम्मान कर रहा था तब कैसी बेबाकी और साफगोई से सुखदेव ने उन्हें पत्र लिखकर अपना और क्रांतिकारियों का पक्ष रखा और अपने लिए माफ़ी की बात खारिज कर दी..
पता नहीं किस मिटटी के बने थे वो? या शायद इस पीढी की मिट्टी ख़राब हो गयी है. !!
मंहगाई, भूख, बेरोजगारी, लूट, बलात्कार सब कुछ तो है, बस अगर कुछ नहीं है तो वो है इन बातों पर चिंतन करने और इन्हें ख़त्म करने वाली जमात. 'डेल्ही बेली' पर तो बहस है लेकिन इन जमीनी मुद्दों पर कहीं चूं भी नहीं है.
सब खोजने में लगे हुए हैं चोली के पीछे के राज को..
'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक के इस सफ़र में देश कहाँ चला गया और कब चला गया, पता ही नहीं चला.
कब मेरे भीतर का भारत मर गया, मैं सोचकर अनुत्तरित हूँ.
कैसे "वन्दे मातरम" की सेज बनने वाले होंठ "गालियों का गलीचा" बन गए?
कैसे चोले को उस रंग में रंगने की जिद में अड़ा हुआ मन चोली के पीछे का सच खोजने निकल पड़ा?
स्वतंत्रता दिवस कैसे पर्व से जयंती बन गया?
कौन जिम्मेदार है इस वैचारिक और नैतिक पतन का?
है कोई जवाब आपके पास मेरी इस उलझन का?
हो तो जरूर बताइयेगा.....
पड़ताल अभी जारी है..
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