'' मैं कभी बतलाता नहीं , पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ ,
यूँ तो मैं दिखलाता नहीं , तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ ,
तुझे सब है पता है न माँ , तुझे सब है पता मेरी माँ |''
बहुचर्चित फिल्म 'तारे ज़मीन पर ' का ये गीत हर बच्चे के जीवन का एक एसा सार्वभौमिक सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता | सच है! ' माँ को सब पता होता है' |
जन्म के तुरंत बाद नए नए हांथो का वो पहला स्पर्श जो याद तो शयद किसी को नहीं पर महसूस सब कर सकते हैं | जोर जोर से धड़कता हुआ एक दिल जब इस दुनियां में आता है और उन हांथो में सौपा जाता है जिसकी वजह से वो है , उस वक्त उस दिल की धड़कने अपने आप ही सामान्य हो जाती हैं , मानो एक जड़ से उखाड़े पौधे को फिर से ज़मीन मिल गयी हो | शांत भाव से वो नयी चमकदार ऑंखें उस चेहरे को को देखने और समझने का प्रयास करतीं हैं , जिसे अब तक उसने सिर्फ महसूस किया था | एक अजीब सा एहसास है शायद ! आश्चर्य से भरी वो ऑंखें यही सोचतीं हैं की ये कौन हैं ? कौन है ये, जो नया तो है पर ना जाने क्यूँ जाना पहचाना सा लगता है , ऐसा क्यूँ लगता है की ये तो वही है जो मेरे होने का प्रमाण है , मेरे अस्तित्व की वजह है | क्या अगर ये चेहरा नहीं होता तो मैं भी नहीं होता? न जाने कितने ऐसे सवाल उस नए ह्रदय और मस्तिष्क में चल रहे होते हैं | लेकिन वो अबोध समय दर समय इन सवालों के जवाब खुद ही खोज लेता है |
वक्त बीतता चला जाता है और समय साथ साथ ये रिश्ता और भी मज़बूत होता चला जाता है | याद है स्कूल का वो पहला दिन जब मन इस डर से भरा रहता है की अब माँ को छोड़कर जाना है |
माँ के हांथों को मज़बूती से पकडे वो कोमल हाँथ जैसे अपनी सारी ताकत लगा देतें हैं खुद को उस शरीर से जोड़े रखने के लिए |रात के आंचल में माँ का वो कुछ गुनगुनाकर सुलाना और हमारा ये जिद करना कि 'माँ कोई कहानी सुनाओ ना ' | वो सब कितना पाक़ था कितना खूबसूरत था | उस वक्त वो कहानियाँ कितनी सच्ची लगतीं थीं | मशहूर गीतकार जावेद अख्तर के शब्द सही ही कह रहे हैं कि
' मुझको यकीं है सच कहती थी , जो भी अम्मी कहती थी ,
जब मेरे बचपन के दिन दिन थे चाँद में परियां रहतीं थी |'
वक्त बीतता जाता है और हम बड़े होते जाते हैं | घर से स्कूल , स्कूल से कॉलेज वक्त तो मानो पंख लगा कर भागता है | लेकिन हर बार मन में एक सुकून का एहसास होता है कि हमारी माँ हमारे साथ है | मेरी तरफ आने वाली हर मुसीबत , हर तकलीफ को पहले मेरी माँ के मज़बूत सीने से होकर गुज़ारना पड़ेगा | हम हमेशा सुरक्षित हैं क्यूंकि हमारी माँ है |
' घोंसले में आई चिड़िया से चूजों ने पूंछा ,
माँ आकाश कितना बड़ा है ?
चूजों को पंखों के निचे समेटती बोली चिड़िया ,
सो जाओ , इन पंखों से छोटा है |
सारी माएं ऐसी ही तो होतीं हैं | हर बार रह दिखाती हुयी , हर बार समझाती हुई और हर हमारी गलतियों पर पर्दा डालती हुई |
मशहूर शायर 'मुनव्वर राणा' के अल्फाजों में ----
' जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है |'
दूर होने पर भी एक एहसास हम दोनों को जोड़े रखता है | खास तौर पर उस वक्त जब लगता है कि कोई भी अब साथ नहीं है , हम पूरी तरह से मुसीबत में घिर चुके हैं | तब एक माँ ही तो है जो साथ ना होकर भी हमेशा साथ रहती है | निदा फ़ाज़ली के शब्दों में ---' मैं रोया परदेस में , भीगा माँ का प्यार ,दुःख ने दुःख से बात कि बिन चिठ्ठी बिन तार |'
घनघोर रात के साये में जब हम अकेले बैठे सोच रहे होतें हैं, रो रहे होतें हैं , खुद से सवाल कर रहे होते हैं और माँ को याद कर रहे होते हैं, तभी अचानक फोन कि घंटी बजती है और उस पार से आवाज़ आती है ---------" बेटा कैसे हो , ठीक तो हो ना , कोई तकलीफ तो नहीं है | तबियत तो ठीक है ना , आज जी बहुत घबरा रहा था , एसा लग रहा था कि मानो मेरे कलेजे का टुकड़ा किसी मुसीबत मे है, बोल बेटा तो ठीक तो है ना " ?
जवाब मिलता है ---" मै ठीक हूँ माँ, अब वाकई में ठीक हूँ , तुम मेरे साथ हो ना , तो सब अपने आप ही ठीक हो जायेगा , तुम बिलकुल चिंता मत करो सब ठीक है" |भरे गले से कहा ---" माँ आवाज़ साफ़ नहीं आ रही है बाद में फ़ोन करते है |"
फ़ोन का रिसीवर रखकर अपने आंसू पोंछते हैं और खुद से ये सवाल करते हैं कि माँ के गर्भ से बहार आये हुए तो कई बरस हो गए लेकिन सच तो ये है कि आज भी हम पूरी तरह से अलग नहीं हो पाए हैं |
मुसीबत के ऐसे पलों में माँ के वो चन्द शब्द ऐसा एहसास दिला देते हैं कि लगता है कि एक ही पल में सब कुछ ठीक हो जायेगा | हमारी सारी मुसीबतें अपने आप ही भाग जाएँगी | ऐसा लगता है कि जैसे माँ का ममता और आशीर्वाद भरा हाँथ सिर पर रख दिया और सारी परेशनियाँ छूमंतर |
' माँ ' एक ऐसा रिश्ता जो हर रिश्ते से कम से कम नौ माह पुराना होता है | एक रिश्ता जो पहली धड़कन से शुरू होकर आखिरी साँस तक चलता है | एक ऐसा रिश्ता जो हर वक्त हमारे स्थ होता है चाहे हम जहाँ भी रहें | एक ऐसा रिश्ता जो न जाने कैसे जान जाता है कि आज हम मुसीबत में हैं |
' मेरी तकलीफ को मुझसे पहले कैसे पहचान लेतीं है वो,
कुछ उलझन है मुझे ये कैसे मान लेतीं है वो ,खुद के ग़मों को तो होंठों तक आने देती नहीं हूँ मैं,क्या धड़कन से ही सब कुछ ही जान लेतीं हैं वो |"
सच कहूं तो आज तक समझ नहीं पाई कि कैसे कर लेतीं हैं वो ये सब ? शायद इसीलिए क्यूंकि अभी मैं सिर्फ एक बेटी हूँ माँ नहीं |
utkarsh-shukla.blogspot.com
http://krati-fourthpillar.blogspot.com/2011/03/blog-post.html se liya gatya hai
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