बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देशप्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है-झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई।
रानी लक्ष्मीबाई ने नारी के उस रूप को शाश्वत किया, जिसमें उसमें महिषासुरमर्दिनी और रणचंडी माना जाता है। उनके हृदय में देशभक्ति रत्नद्वीप की भांति प्रकाशमय थी। एक ओर जहां वे युद्धकौशल में निपुण, घ़ुडसवारी में असाधारण, तलवारबाजी में अद्वितीय थी, तो दूसरी ओर नारी के स्वाभाविक स्वभाव, त्याग, प्रेम, उदारता, समर्पण उनमें कूटकूटकर भरा था।
19 नवम्बर 1835 को मोरोपंत व भागीरथीबाई की संतान रूप में एक बालिका ने जन्म लिया। काशी में जन्मी इस बालिका का नाम मणिकर्णिका रखा गया। प्यार से इस बालिका को सभी मनु पुकारने लगे। मोरोपंत एक मराठी ब्राह्मण थे और मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की म्रत्यु हो गयी।
चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन 1842 में इनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया।
यह वह समय था, जब मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए भारतीय वीर अपनी जान की भी परवाह किये बिना पराये शासकों के दमन के विरुद्ध बग़ावत करने पर तुल गये और लड़ाई शुरू कर दी। वह 1857 का वर्ष था। तब तक अंदर ही अंदर सुलगती हुई विद्रोह की ज्वाला एकदम ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ी।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन 1853 में राजा गंगाधर राव का बहुत अधिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु 21 नवंबर 1853 में हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।
डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के अन्तर्गत ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव जो उस समय बालक ही थे, को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया, तथा झाँसी राज्य को ब्रितानी राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया। तब रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया।
इसके साथ ही रानी को झाँसी के किले को छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय कर लिया था। झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया।
1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1857 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।
झांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिन्सा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया। 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया।
1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झांसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अन्ग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झांसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली। 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर उनके विरूद्ध संघर्ष करना उचित समझा । वे अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ी और अन्त में वीरगति को प्राप्त हुईं। वह 17 जून 1858 का दिन था जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी।
इस प्रकार महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन का लक्ष्य पूर्ण किया, उन्होंने एक ऐसा जीवन जिया जो संपूर्ण राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करता है, एक महिला जिसने अपने जीवन के मात्र तेइस वसंत ही देखे अपने काया से इतिहास में अमर हो गई। जब तक भारत का अस्तित्व रहेगा, १८५७ की क्रांति की याद रहेगी ,तब तक महारानी लक्ष्मीबाई की स्मृति भी जीवित रहेगी।
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