साधु-संतों के मार्गदर्शन में समाज की मनीषा के मिलन और एकत्रीकरण का उत्सव है कुम्भ महापर्व। पौराणिक काल से चली आ रही कुम्भ महोत्सव की परम्परा आज भी जारी है। समाज के उत्थान के लिए क्या अनुकरणीय है, इस पर कुम्भ में आए संत और मनीषी हमेशा से विचार करते आए है। हरिद्वार में हुए कुम्भ पर्वों की श्रृंखला में 1855 और 1915 के कुम्भ पर्वों का विशेष महत्व है।
1855 का कुम्भ भारतीय स्वाधीनता के आन्दोलन में मील का पत्थर साबित हुआ, जहां प्रथम स्वाधीनता संग्राम की नींव रखी गई। वहीं 1915 के कुम्भ पर आजादी की लड़ाई के महानायक मोहनदास करमचंद गांधी को ''महात्मा'' की उपाधि से विभूषित किया गया। 1915 के कुम्भ पर ही गांधीजी ने आहार में दिन में केवल पांच वस्तुएं लेने तथा सूर्यास्त के पश्चात् भोजन न करने का व्रत भी लिया था।
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1857 में हुए प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों का विद्रोह कहा। मात्र कुछ सिपाहियों का अंग्रेजी अफसरों के खिलाफ विद्रोह नहीं बल्कि एक सुनियोजित आन्दोलन की शुरूआत थी, जिसकी रूपरेखा 1855 के हरिद्वार के कुम्भ में बनाई गई थी। 1857 की यह चिंगारी बाद में शोला बनकर आजादी की लड़ाई के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई।
1855 के कुम्भ में हरिद्वार में चंडी पर्वत की उपत्यका में दशनाम संन्यासियों के एक डेरे पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की अगुवाई करने वाले प्रमुख नेता हुए थे। इन नेताओं में नाना साहब धुंधुपंत, बाला साहब पेशवा, तांत्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब के सहायक अजीमुल्ला खां तथा जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह शामिल थे। इन सभी ने डेरे पर मौजूद ''दस्स बाबा''(स्वामी पूर्णानन्द) की प्रेरणा और मार्गदर्शन में स्वाधीनता संग्राम की योजना बनाई थी। यहीं पर सैनिकों में गुप्त संदेश पहुंचाने के लिए ''कमल का फूल'' तथा आम जनता के बीच इसी कार्य के लिए ''रोटी'' को प्रतीक रूप में अपनाने का निर्णय हुआ था।
कुम्भ के अवसर पर हजारों साधु-संन्यासी हरिद्वार में एकत्रित थे। जिनकी श्रद्धा और समर्पण वयोवृद्ध दस्स बाबा के प्रति थी। अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह की योजना बनाने में इनकी प्रमुख भूमिका थी। स्वामी पूर्णानन्द को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने की प्रेरणा उन्हें उनके गुरू स्वामी ओमानन्द से मिली थी। विद्रोह की योजना के निर्धारण के समय स्वामी विरजानन्द तथा उनके शिष्य दयानंद जो उस समय दशनाम संन्यासी थे और जिन्होंने बाद में आर्य समाज की स्थापना की, भी मौजूद थे।
इसी कुम्भ में तय हुआ था कि साधु-संत योजनाबद्ध तरीके से समाज के बीच जाकर संगठन और स्वाधीनता का मंत्र फूंकने का काम करेंगे ताकि अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष करने में नाना साहब आदि नायकों की सहायता हो सके। इस योजना का क्रियात्मक रूप यह था कि साधु-संत अंग्रेजी छावनियों में जाकर ''कमल'' पुष्प के द्वारा भारतीय सैनिकों में तथा ''रोटी'' के द्वारा आम जनता में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का संदेश पहुंचाएं और उन्हें क्रूर ब्रिटिश हुकूमत का अंत करने की प्रेरणा दें। गुप्त बैठक में स्वामीजी ने साधुओं से कहा था कि वे उत्तर में मेरठ, दक्षिण में मेल्लोर तथा पूरब में बारिकपुर की तरफ तत्काल कूच कर दें और दिल्ली में त्रिशूल बाबा से सम्पर्क बनाए रखें।
दस्स बाबा ने अपने संन्यासी शिष्यों को कई पत्र भी दिए थे। देश के अनेक राजा-रजवाड़ों को लिखे इन पत्रों में संदेश था कि वे अंग्रेजों के खिलाफ शुरू होने वाले आन्दोलन में सहकार करें। विद्रोह की अलख जगाने वाले साधु-संन्यासियों में स्वामी दयानन्द, सीताराम बाबा, दीनदयाल, त्रिपति के शिवराम बाबा तथा त्रिशूल बाबा आदि का प्रमुख स्थान है। इनके नेतृत्व में अनेक संन्यासी देश के लिए अलग-अलग भागों में घूमकर स्वाधीनता के लिए समर्पण का मंत्र सिपाहियों और आम लोगों को आजादी के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देते थे।
यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि स्वाधीनता संग्राम को लेकर हिन्दू, मुसलमान को लेकर कहीं कोई भेद-भाव नहीं था। ऐसी एक पंचायत 1855 कुम्भ के बाद हरिद्वार में हुई थी जिसमें बहादुर शाह जफर के पुत्र फिरोज शाह, राव साहब मराठा (नाना साहब), बाला साहब मराठा, रंग बाबू, अजीमुल्ला खां तथा रमजान बेग की उपस्थिति का जिक्र है।
कुम्भ में बनी योजना का विस्फोट 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में हुआ। इस संग्राम में नाना साहब, तांत्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई के अलावा दशनाम परम्परा के अखाड़ों के नागा संन्यासी भी अंग्रेजी फौजों से जूझे थे।
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