गुरुवार, 1 सितंबर 2011



क्या आप मितव्ययता और अपरिग्रह के पाठ ग्रहण करना चाहते हैं?

गांधीजी के जीवन और दर्शन में मितव्ययता और अपरिग्रह के सर्वश्रेष्ठ सूत्रों का सार मिलता है. उन्होंने अपने जीवन के हर पक्ष में सादगी और मितव्ययता को अपनाया और इन्हीं के कारण उनका जीवन एक अनुकरणीय उदाहरण है.

गांधीजी के जैसा जीवन जीनेवाला और कोई व्यक्ति दोबारा न होगा. अपनी मृत्यु के समय वे उसी दरिद्रनारायण की प्रतिमूर्ति थे जिनके श्रेय के लिए उन्होंने अपने शरीर को भी ढंकना उचित न जाना. उनके जीवन प्रसंग युगों-युगों तक सभी को प्रेरणा देते रहेंगे.

अपने अंतिम दिनों में गांधीजी के पास कुल जमा दस-बारह वस्तुएं ही रह गईं थीं जो उनके निजी उपयोग में आती थीं. ये थीं उनका चश्मा, घड़ी, चप्पलें, लाठी और खाने के बर्तन. अपना घर और फ़ार्म आदि वे बहुत पहले ही लोक को अर्पित कर चुके थे.

“सांसारिक वस्तुओं के उपभोग और स्वामित्व से कौन दूर रह सकता है? लेकिन जीवन का रहस्य इसमें है कि उनकी कमी कभी न खले” – महात्मा गांधी

यह तो हम जानते ही हैं कि गांधीजी का जन्म धनाढ्य परिवार में हुआ था और उन्हें वे सभी सुख-सुविधाएँ मिलीं जो आज भी अधिकांश भारतीयों को दुर्लभ हैं. उन दिनों क़ानून की पढ़ाई के लिए लन्दन जाने में कई सप्ताह लग जाते थे. बचपन में धन-संपत्ति के बीच पले-बढ़े युवा मोहनदास ने जीवन के हर मोड़ पर सबक सीखे और अंततः स्वयं को व्यय और अर्जन के जंजाल से मुक्त कर दिया. जिस अवस्था में युवाओं को नित-नूतनता आकर्षित करती है उसमें उन्होंने कठोरतापूर्वक न केवल स्वयं को बल्कि अपने सानिध्य में आनेवाले हर व्यक्ति को सादगी पूर्ण जीवन जीने में प्रवृत्त किया. इसके महत्वपूर्ण सूत्र ये थे:-

1. कम संचित करें - अपने पहनने के दो जोड़ी कपड़ों और बनाने-खाने के बर्तनों के अलावा उन्होंने किसी चीज़ की चाह नहीं की. उन्हें प्रतिदिन कई उपहार मिलते थे जिन्हें वे दूसरों को दे देते थे या उनकी नीलामी कर देते थे. हमारे लिए आज यह संभव नहीं है कि हम भी अपनी आवश्यकताओं को इतना कम कर लें. एक बार मैंने उन चीज़ों की सूची बनाने का सोचा जिनके बिना मेरा जीना दुश्वार हो जायेगा और सूची में चालीस-पचास आइटम आ गए. फिर भी, कम वस्तुओं का संचय ही संतुष्टिकारक होता है. आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को ऐसे व्यक्तियों को दे देना चाहिए जिन्हें उसकी आवश्यकता है या जो उन्हें खरीद नहीं सकते.


आप भी 100 वस्तुओं का चैलेन्ज लेकर देखें कि क्या आप 100 से कम या 50 से भी कम वस्तुओं से अपना काम चला सकते हैं?

हम सभी अपने संचय को बढ़ाने और उसे व्यवस्थित रखने में बहुत सी ऊर्जा और बहुत सारा समय लगाते हैं. कम वस्तुओं को रखने और उनकी देखभाल करने से जीवन सरल और सहज हो जाता है.

2. सादा भोजन करें - गांधीजी को कभी भी मोटापे के डर ने नहीं सताया. वे अपना शाकाहारी भोजन स्वयं उगाते और बनाते थे. धातु के एक ही पात्र में वे भोजन करते थे. इस प्रकार भोजन संतुलित मात्रा में ग्रहण कर लिया जाता है. भोजन के पहले और बाद में वे प्रार्थना भी करते थे.

3. सादे वस्त्र पहनें - गांधीजी के सादे वस्त्रों में कपडा तो कम होता था पर उनका सन्देश बड़ा था. जब वे लन्दन में किंग से मिलने गए तब भी उन्होंने छोटी धोती और शाल पहना हुआ था. इस बारे में एक पत्रकार ने उनसे पूछा – “मिस्टर गांधी, किंग से मिलते समय आपको यह नहीं लगा कि आपने वास्तव में लगभग कुछ-नहीं पहना हुआ था?” गांधीजी ने इसका उत्तर दिया – “नहीं. किंग ने इतने वस्त्र पहने थे जो हम दोनों के लिए पर्याप्त थे.”

आज के समय में खुद अपने हाथों से करघा चलाकर सूत कातकर कपड़ा बुनना अप्रासंगिक हो चला है. वैसे भी, करघा चलाकर वस्त्र बुनना प्रतीकात्मक अधिक था, आज यह व्यावहारिक नहीं है. जो भी हो, सादे-सरल वस्त्रों में जो गरिमा है वह दिखावटी और तड़क-भड़क वाले डिजायनर कपड़ों में नहीं है.

4. तनावमुक्त जीवन जियें - गांधीजी को कभी किसी ने तनावग्रस्त नहीं देखा. कई अवसरों पर वे विषादग्रस्त और व्यथित ज़रूर हुए लेकिन दुःख के क्षणों में उन्होंने आत्ममंथन और प्रार्थना का ही सहारा लिया.

गांधीजी वैश्विक स्तर के नेता थे भले ही वे किसी राजनैतिक पद पर कभी नहीं रहे. करोड़ों व्यक्ति आज भी उन्हें पूजते हैं और उनके प्रति असीम श्रद्धा रखते हैं. अपने सरल जीवन में उन्होंने किसी भटकाव या वचनबद्धता को नहीं आने दिया. बच्चों के साथ समय बिताने के लिए वे अपनी राजनैतिक बैठकें भी निरस्त कर दिया करते थे.

गांधीजी के आसपास हर समय उपस्थित रहनेवाले लोग उनकी हर ज़रुरत और सुविधा का ध्यान रखते थे लेकिन उन्होंने हमेशा अपने हाथों से ही सभी काम करने को तरजीह दी. आत्मनिर्भरता उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण सद्गुण था.

आप भी जीवन को गंभीरता से लें पर इसका भी ध्यान रखें कि जीवन-यापन के कार्य और रोज़मर्रा की प्रतिबद्धताएं सुखी और संतोषी जीवन का विकल्प नहीं हैं.

5. अपने जीवन को अपना सन्देश बनायें - गांधीजी बहुत अच्छे लेखक और प्रभावशाली वक्ता थे पर निजी माहौल में वे शांत ही रहा करते थे और उतना ही बोलते थे जितना ज़रूरी हो. उनका लेखन टु-द-पॉइंट होता था. अपनी लेखनी से अधिक शब्द उन्होंने अपने जीवन के मार्फ़त दिए.

सरल-सहज जीवन जीने की योग्यता ने गांधीजी को सदैव महत्तर उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए गतिमान रखा. जनता और विश्व के प्रति उनकी प्रतिबद्धताएं उनकी प्राथमिकता थीं.

गांधीजी जैसा न तो कोई दोबारा कभी होगा और न ही कोई हो सकता है. हम सिर्फ इतना ही कर सकते हैं कि उनके जीवन का कुछ अनुकरण करने का प्रयास करें ताकि हमारा जीवन भी शांति और संतुष्टि से युक्त हो जाये.

“धन-दौलत की बहुतायत हो तो इसका परित्याग करके परिजनों को बेघर कर देने का कोई औचित्य नहीं है. महत्वपूर्ण केवल यह है कि इन सांसारिक विषयों से आसक्ति न हो” – महात्मा गांधी.

अपने जीवन में सरलता को उतार कर देखें. आप पाएंगे कि आपके लिए समय और ऊर्जा में बढ़ोतरी हो रही है. इससे आपको अवसर मिलेगा कि आप परिपूर्ण और प्रेरणास्पद जीवन जी सकें.

आओ जानें संजीवनी विद्या

प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक उमाकांत केशव आपटे उपाख्य बाबासाहेब आपटे की विचारशीलता अद्भूत थी। उनका जन्म 28 अगस्त, सन् 1903 में हुआ था। सन् 1920 में वे संघ के संपर्क में आए और सन् 1931 में संघ के प्रथम प्रचारक बने। उनके अंदर पढने और उसे ह्दयंगम् कर उसका कुशल विवेचन करने की अनूठी ईश्वर प्रदत्त विशेषता थी जिसका उपयोग कर न केवल उन्होंने रा.स्व.संघ के कार्य को गति प्रदान की वरन् भारतीय जीवन-परंपरा के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने गजब का समाज-प्रबोधन किया। 26 जुलाई, सन् 1972 को उनका निधन हो गया। रा. स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह के अनुसार, भौतिक जीवन के 70 वर्ष वह पूर्ण नहीं कर पाए लेकिन कार्य इतना कर गए कि कोई 100 वर्ष में भी न कर सके।
ऐसी महान प्रतिभा की स्मृति में हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके प्रबोधनकारी विचारों को वेबपोर्टल के माध्यम से पुनर्प्रकाशित कर आधुनिक पीढ़ी को उनसे परिचित कराने में हमें अपार प्रसन्नता हो रही है। ये विचार कालजयी हैं, हमें न सिर्फ हमारे गौरवमयी अतीत से परिचित कराते हैं वरन् ये हमारा भविष्यपथ भी निर्धारित कर सकने में सक्षम हैं। प्रस्तुत है उनकी विचार श्रंखला पर आधारित आलेख-माला की पहली कड़ी-संपादक


पौराणिक ग्रंथों में संजीवनी विद्या का उल्लेख बार-बार किया गया है। राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य को यह विद्या प्राप्त थी। देवों एवं राक्षसों के युद्ध में जब-जब राक्षस मारे जाते, तब-तब उनके ये गुरु अपनी संजीवनी विद्या के सामर्थ्य से उन्हें फिर जीवित कर देते थे। यह संजीवनी विद्या देवपक्ष में किसी को भी ज्ञात नहीं थी। अतः उसे हस्तगत करने के लिये देवगुरु बृहस्पति का पुत्रा कवच शुक्राचार्य के पास किस प्रकार गया और वहां रहकर भी शुक्रकन्या देवयानी के प्रेमपाश में न फंसते हुए उसने अपना हेतु किस प्रकार सिद्ध किया, यह वृत्तांत महाभारत में अत्यन्त सुन्दर एवं विस्तृत ढंग से वर्णित है। इस कथा से अपने देश के वृद्ध इतने अधिक परिचित हैं कि आज भी जब कोई युवक यूरोप-अमेरिका में विद्यार्जन के लिए जाता है तो वह किस प्रकार से मोहजाल में न फंसकर अपना स्वाभिमान और संस्कृति कायम रखकर स्वदेश वापस आ जाय; इस दृष्टि से उसे इस प्राचीन काल के कच की उपमा देकर, उसका गौरव करके, उसे उसके कर्तव्य का बोध कराया जाता है।

परंतु जिस विद्या को संपादित करने के लिए कच को इतनी लोकोत्तर कीर्ति प्राप्त हुई, उस संजीवनी विद्या के समग्र विस्तृत वर्णन की तो बात ही क्या, उसके अंशमात्र का किंचित वर्णन भी पुराणों में या अन्य किसी ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। एक शुक्राचार्य के अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा इस विद्या का प्रयोग किये जाने का उल्लेख तक भी नहीं मिलता। तो क्या अन्य अनेक विद्याओं के समान ही यह संजीवनी विद्या भी सदासर्वदा के लिए विनष्ट हो गई?

संजीवनी का स्वरूप
इस संजीवनी विद्या के स्वरूप के संबंध में इन दिनों कई विचित्र कल्पनाएं प्रकट की गई हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह जड़ी-बूटी जैसी ही कोई वस्तु होगी। कई लोग कहते हैं कि यह एक मंत्र है। यह स्पष्ट है कि उनका यह मत महाभारत के वर्णन पर आधारित है। कई लोगों ने यह भी तर्क प्रस्तुत किया है कि संजीवनी एक विशिष्ट राज्यपद्धति का नाम था एवं राक्षसों के बीच शुक्राचार्य ने यह पद्धति प्रारंभ की थी और उसमें भी वर्तमान लोकसत्तात्मक राज्यपद्धति के अनुसार ही व्यवस्था थी। तो कुछ लोगों का तर्क है कि औषधि, मंत्र एवं विद्युत प्रयोग के सम्मिश्रण से बनी एक प्रक्रिया ही संजीवनी है।
परंतु संजीवनी कोई जड़-मूल या किसी पेड़-पत्ती की औषधि होगी, यह असंभव ही लगता है, क्योंकि प्रथम बार तो कच के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के लकड़बग्घों को खिला दिए गए थे। दूसरी बार उसकी मृत देह जलाकर उसकी राख समुद्र में फेंक दी गई थी और तीसरी बार तो उस राख को मद्य में मिलाकर उसे स्वयं शुक्राचार्य को ही प्राशन करने को दे दिया गया था। अब संजीवनी को यदि एक मंत्र माने तो शुक्राचार्य ने वह मंत्र कच को जब दिया, उस समय उसकी परंपरा भी बताई गई हो, ऐसा उल्लेख कहीं भी दिखाई नहीं देता। ऐसा क्यों? फिर यह प्रभावशाली मंत्र नष्ट न हो, ऐसी कोई व्यवस्था आचार्यों ने क्यों नहीं की? तीसरा तर्क यह है कि संजीवनी राज्यपद्धति का ही एक प्रकार था। परंतु कच की कहानी के संदर्भ से यह तर्क मेल नहीं खाता और औषधि, मंत्र एवं विद्युत प्रयोग के सम्मिश्रण की प्रक्रिया अर्थात् संजीवनी, यह तो कल्पना की मात्र एक उड़ान सी लगती है। इस प्रकार जितना अधिक विचार करते जायें उतना ही संजीवनी विद्या के स्वरूप् का रहस्य गहरा होता जाता है और फिर इस विषय पर चुप्पी साध लेनी पड़ती है।
पुराण, रामायण, महाभारत आदि धर्मग्रंथों का एक-एक अक्षर सत्य है- यह लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से सत्य है, ऐसा मानने वालों की संख्या भारतवर्ष में आज भी बहुत बड़ी है। फिर भी जिनके मन में अब तक इस प्रकार की श्रद्धा स्थिर नहीं हुई है तथा कार्य-कारणभाव एवं योग्यायोग्यता के विचार के आधार पर ही प्रत्येक बात की सत्यासत्यता निर्णीत करने की जिनकी इच्छा रहती है, ऐसे लोगों का भी तो समाधान होना ही चाहिए।

जीवन और मृत्यु
संजीवनी विद्या का स्वरूप ठीक से ध्यान में आने के लिए प्रथम एक बात अच्छी तरह से समझ लेना आवश्यक है कि जीवन या मृत्यु के संबंध में तत्कालीन लोगों की धारणा क्या थी? 'मात्र अग्नक्षय करते हुए पालित-पोषित शरीर अर्थात् जीवन या जीवितावस्था', एवं 'शरीर नष्ट होने पर वह मृत्यु है'' यह कल्पना उन दिनों प्रचलित नहीं थी। उन दिनों पूज्य व्यक्तियों का अपमान करना उन व्यक्तियों के वध के समान ही माना जाता था। सज्जन पुरुष यदि स्वयं ही अपनी स्तुति करें तो वह आत्मवध कहलाता था। ये कल्पनाएं अपने धर्मग्रंथों में कई स्थानों पर मिलती है। अमरकोश में वध करना या मार डालना इसके पर्यायवाचक जो अनेक शब्द दिये गये हैं, उनमें से तीन शब्दों का विचार यहां आवश्यक है। ये शब्द- प्रवासन, निर्वासन तथा परिवर्जन। दीर्घकाल तक स्वकीयों से दूर रहना अर्थात् प्रवासन, सीमापर किया जाना यानि निर्वासन एवं जो कार्य करने की अपनी पात्रता हो उस काम के करने पर प्रतिबंध का अर्थ है परिवर्जन।

किसी शूरवीर सिपाही को युद्धक्षेत्र में जाने से वंचित कर घर बैठने के लिए बाध्य करना या किसी विद्वान पंडित को विद्वत्सभा में भाग लेने से रोकने को भी परिवर्जन की संज्ञा दी गई है। इन तीनों प्रकारों में कारण रूप से अवहेलना या तिरस्कार की भावना है, अत: इन शब्दों को वध का पर्यायवाची माना गया। इसमें शरीरनाश का कुछ भी संबंध नहीं है। गुणहीन पुत्र की माता स्वयं अपने आपको पुत्रवती नहीं, बांझ समझे; इस कल्पना के पीछे भी 'कीर्तियस्य स जीवति' की ही धारणा थी। तात्पर्य यह कि उत्साहमय, सद्गुणसंपन्न और इस कारण गौरवास्पद जीवन जीना ही जीवित होने का लक्षण माना जाता रहा तथा निराशा से युक्त, अकर्मण्य और अपमानजनक जीवन को ही मृत्यु के समान समझा जाता रहा। यही तत्कालीन निश्चित धारणा थी।
और आज भी इस धारणा में कोई अंतर नहीं हुआ है। उसका शरीर श्वसनक्षम है एवं नित्यप्रति जो अन्नक्षय करता है, परंतु जिसमें आशा, कर्तृत्व या तेजस्विता का नामोनिशान न हो, ऐसे पुरुष को आज भी मृतवत् ही माना जाता है। व्यक्ति के संबंध में विचार करने पर इस धारणा का लाक्षणिक अर्थ ही अपने मन में मुख्यत: रहता है। परंतु समाज के संबंध में विचार करते समय भी जब हम इसी कसौटी पर उसे कसते हैं तब उक्त धारणा का लाक्षणिक अर्थ लगाने की आवश्यकता का भी हमें अनुभव नहीं होता। समाज-शरीर के विनाश की कल्पना भी असंभव सी होने के कारण स्वाभिमानी, आशायुक्त और तेजस्वी समाज हो तो वह जीवित एवं उक्त गुणों से हीन समाज सर्वत्र मृत माना जाता है।

आत्मज्ञान ही संजीवनी
इस प्रकार से जो समाज मृत है उसको गत-वैभव का स्मरण कराकर उसमें कर्तृत्व, साहस आदि सुप्त गुण जागृत करने से वह पुन: जीवित समाज कहला सकता है। यह बात इतिहास के पाठकों को अज्ञात नहीं है।
शुक्राचार्य द्वारा जिन स्थानों पर संजीवनी विद्या का प्रयोग किये जाने संबंधी वर्णन पुराणों में है, उनमें से एक कच का अपवाद छोड़कर, प्रत्येक बार उस विद्या का प्रयोग उन्होंने सामुदायिक रीति से किया है। कोई राक्षस नैसर्गिक रूप से मृत हुआ हो या दुर्घटना से या फिर आपस की झगड़ा-लड़ाई में ही, उसे संजीवनी की सहायता से शुक्राचार्य द्वारा जीवित कर दिया गया हो, ऐसा एक भी उल्लेख पुराणों में प्रापत नहीं है। यह बात ध्यान में रखें तो संजीवनी विद्या के संबंध में शंका करने का कारण ही शेष नहीं रहता।
परंतु किसी समाज के स्वाभिमान को जगाकर उसमें पराक्रमयुक्त तेजस्वी जीवन जीने का साहस उत्पन्न करना हो एवं उसे संजीवित करना हो तो इसके लिए आवश्यक है कि उस समाज का भूतकाल भी वैभवशाली और स्वाभिमानपूर्ण रहा है। जिन पर शुक्राचार्य संजीवनी विद्या का प्रयोग करते थे, वे राक्षस इस दृष्टि से भी सर्वथा योग्य ही थे। उस समय का उपलब्ध उनका भूतकालीन इतिहास पराक्रम एवं कर्तृत्व से परिपूर्ण था। पुराणों में वर्णन मिलता है कि वे बड़े निर्भय, अत्यन्त प्रयत्नवादी तथा स्वाभिमानी थे। प्रारंभ में पृथ्वी पर उन्हीं का शासन था। पश्चात् देवों ने उसमें हिस्सा मांगा। अत: सुर-असुरों के युद्ध हुए। पुराणों की इस उक्ति की पुष्टि वर्तमान शास्त्रों द्वारा भी की गई है।
भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार आज जहां आर्यावर्त का उपजाऊ एवं मैदानी क्षेत्र है, वहां प्राचीन काल में समुद्र था और दक्षिण का पठार अफ्रिका से संलग्न था। पश्चात् आर्यावर्त का भूभाग ऊपर आया एवं वहां का पानी अफ्रिका की ओर फैल गया। इस कारण भारत नाम का एक नवीन महादेश प्रकट हुआ। हिमालय के ढलान पर रहने वाले लोगों ने दक्षिण के कृष्णवर्ण लोगों को पराभूत कर संपूर्ण देश पर अपना प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न प्रारंभ किया। परंतु वे बहुसंख्यक थे तथा दक्षिण के पठारी प्रदेश में ही उनका राज्य था, अत: इस देश पर का प्रभुत्व आसानी एवं सरलता से भूल जाना उनके लिए कैसे संभव होता? उन्हें अपने वैभवशाली भूतकाल की ओर देखकर स्फूर्ति प्राप्त होती रहती है, इसकी कल्पना देवों को पहिले नहीं हो सकी। इस कारण एक बार पराभूत होकर भी वे अपनी सेना में नए लोग भर्ती कर दुगुने उत्साह से इतने शीघ्र कैसे तैयार हो जाते हैं, इस पर उन्हें बड़ा आश्चर्य होता था। इसको वे संजीवनी विद्या का प्रभाव मानते थे।
इसी रीति से अनेक वर्ष बीत गए तथा देवों, मानवों एवं राक्षसों ने भारतवर्ष को अपने मानबिन्दु का केन्द्र मानना प्रारंभ किया, इस कारण स्वाभाविक ही राक्षसों की गणना उनके श्रेष्ठ गुणों के कारण, देवयोनि में की जाने लगी और संजीवनी विद्या का प्रयोग अनावश्यक हो जाने के कारण बंद हो गया।
संजीवनी विद्या का जो लाक्षणिक अर्थ ऊपर की पंक्तियों में बताया गया है और साथ ही जिस प्रकार उसका ऐतिहासिक संबंध भी स्पष्ट किया गया है; उसी प्रकार इसी संदर्भ मे कच-कथा का भी स्पष्टीकरण करना आवश्यक है। अत: अब हम इसका विचार करें।

कच की कथा का लाक्षणिक अर्थ
शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या हस्तगत कर लेने के उद्देश्य से जब कच घर छोड़कर निकला तो देवों ने उसे गुप्त संकेत दिया कि शुक्राचार्य की कन्या देवयानी को प्रसन्न कर लेने से तुम्हारा काम बनेगा। कच ने यह बात ध्यान में रखी और वह शुक्राचार्य के घर पर पहुंच गया। उन्होंने उसे शिष्य के रूप में रख लिया। शिष्य के नाते कच ने गुरु-सेवा व्रत का निष्ठापूर्वक पालन प्रारंभ किया।
मधुर, मितभाषी, सेवापरायण होने के कारण वह शुक्राचार्य का स्नेह पात्र बन गया। परंतु देवयानी पर उसकी छाप उसके व्यसनहीन होने के कारण ही पड़ी। देवयानी की माता उसके बचपन में ही चल बसी थी। कच ने उस घर में रहना प्रारंभ किया तो एक समान आयु के मित्र-लाभ से उसे आनंद हुआ और कच को वह मन:पूर्वक चाहने लगी। कुछ दिन बीते तब कच के ध्यान में आया कि संजीवनी विद्या के संबंध में तो राक्षस कुछ बात तक नहीं करते। संभवत: वे इस बात को छिपाना चाहते हैं। ऐसा विचार कर राक्षसों का विश्वास संपादन करने हेतु वह उनके साथ अधिक घुलमिल कर रहने लगा। उनके साथ उसने मद्यपान भी प्रारंभ कर दिया। वह मानों उन्हीं का हो गया। ''मैं स्वर्गलोक का वासी हूं, कुछ विशेष उद्देश्य मन में रखकर यहां आया हूं,'' इसका भी मानों उसे पूर्ण विस्मरण हो गया। एक प्रकार से यह उसकी मृत्यु ही थी। मद्य की एक बूंद का भी स्पर्श न करने वाले इस विप्रकुमार द्वारा इतने थोड़े समय में ही, प्रत्येक बैठक में, जलसे मे एक के बाद एक मद्य के चषक रिक्त करते जाने का उस प्राचीनकाल में मृत्यु के अतिरिक्त और कोई अर्थ हो ही नहीं सकता था। इस कारण राक्षसगण मन ही मन अत्यधिक प्रसन्न थे। वे ऐसा सोचने लगे कि इस घटना से तो देवगुरु वृहस्पति की तो नाक ही कट गई।




प्रथम संजीवन
परंतु देवयानी पर कच के इस व्यवहार का विपरीत परिणाम हुआ। मन ही मन वह कच को भावी पति के रूप में वरण कर चुकी थी। फिर व्यसनहीन कच का एक मद्यपी में रूपान्तर हो जाना उसे कैसे रुचता। उसने स्वयं उसे सावधान करने का प्रयास किया। परंतु अपने नए मित्रों की बैठकों मे कच बिल्कुल ही रंग गया था। अंत में देवयानी ने यह बात आचार्य से कही। देवगुरु बृहस्पति के पुत्र को स्वयं अपने घर शिष्य के रूप में रख लिया और उसने इस प्रकार आचरण प्रारंभ कर दिया, यह आचार्य को कदापि पसंद नहीं था। उन्होंने कच को अपने पास बुलाया एवं उसकी प्रताड़ना की। कच ने भी विचार किया कि सचमुच ही मद्यपान का अंत में भीषण परिणाम होगा। साथ ही उसने मन में यह विचार आया कि राक्षसों के साथ इतनी मित्रता करके एकरूप हो जाने पर भी अपना उद्देश्य साध्य होने की दृष्टि से तिल मात्र भी लाभ नहीं हुआ। इस विचार से वह भी सावधान हो गया। वह पुनश्च पूर्ववत् व्यवहार करने वाला निर्व्यसनी कच बन गया। राक्षसों का गप मारने का एक-एक अड्डा मानों एक एक लोमड़ी। इन अड्डों से कच एकरूप हो चुका था। अत: आचार्य द्वारा प्रताड़ना प्राप्त होने पर जैसे वह इन लोमड़ियों के पेट फाड़कर ही बाहर आ गया हो।
यद्यपि कच ने इस प्रकार से मद्यपान से छुट्टी पा ली तथापि उसके राक्षस मित्र उसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं थे। कच उनका साथ छोड़ने जा रहा है, यह ध्यान में आते ही उन्होंने उल्टे उसे कोसना और उसकी निंदा तथा मजाक उड़ाना प्रारंभ कर दिया। वे कहने लगे कि विप्रकुमार होकर भी मद्यपान करने के कारण वह अब भ्रष्ट हो गया है, उसका जीना अब व्यर्थ है और वह कायर है, उसे प्राणों का मोह हो गया है आदि। कुछ राक्षस कहने लगे कि वह देवयानी पर मुग्ध हो गया है, इसी से ऐसी उल्टी सीधी बातें कर रहा है। एक राक्षस ने तो उसे उसके मुंह पर स्पष्ट शब्दों में कह डाला कि जिस शुक्राचार्य को तू इतना पूजता मानता है, वे एक दिन भी मद्य के बिना रह नहीं सकते। अत: एक प्रकार से तुम्हारा मद्यपान-त्याग गुरुनिन्दा या गुरुद्रोह के समान ही है।
इस प्रकार के कटु वचन बार-बार सुनकर कच चिन्ताग्रस्त हो गया। उसकी हिम्मत पस्त हो गई। संजीवनी विद्या की प्राप्ति के संबंध में उसके मन में संदेह उत्पन्न हो गया। वह सोचने लगा कि अपशय एवं अपकीर्ति लेकर देवलोक में वापस जाने से क्या लाभ? ऐसी अशांत मन:स्थिति में समुद्र के किनारे वह अपना अधिकांश समय बिताने लगा। इसका परिणाम उसके शरीर पर होना स्वाभाविक था। मानो मृत्यु ने ही उसे ग्रसित कर डाला है। इस प्रकार उसकी मुद्रा फीकी पड़ गई। खाने-पीने में भी उसका मन नहीं लगता था। इसी स्थिति में कुछ दिन बीत जायें तो मन:ताप की पीड़ा से ग्रस्त होकर कच किसी दिन स्वयं ही समुद्र में कूद कर प्राणत्याग कर देगा, यह सोचकर राक्षस बहुत ही प्रसन्न हुए।
द्वितीय संजीवन
परंतु, देवयानी पर इसका बिल्कुल ही विपरीत परिणाम हुआ। कच की यह अवस्था देखकर वह चिंतित हो गयी। शुक्राचार्य के पास जाकर उसने कच की स्थिति से उन्हें पुन: अवगत कराया। देवयानी के मन का भाव आचार्य समझ चुके थे। परंतु वैसा कुछ प्रकट न करते हुए उन्होंने कच को फिर अपने पास बुलाया और कर्माकर्म मीमांसा का स्पष्ट विवेचन कर अंत में उससे कहा कि हाथ में लिया सत्कार्य कभी न छोड़ना और कभी निराश न होना, यही वास्तविक पुरुषार्थ का लक्षण है। उनके इस आश्वासन एवं उपदेश का कच पर योग्य और अपेक्षित परिणाम हुआ। उसमें फिर उत्साह का संचार हो गया। नैराश्य रूपी समुद्र में डूबा हुआ कच फिर होश में आ गया। मानों उसका जीवन उसे पुन: प्राप्त हो गया। देवयानी के कारण ही उसका यह दूसरी बार पुनर्जन्म हुआ।

उदर प्रवेश
इसके पश्चात् कच ने अपना संपूर्ण समय शुक्राचार्य के सान्निध्य में ही बिताना प्रारंभ किया। अब तो आचार्य को मद्यपान उसकी नजर से कैसे छूटता? परंतु कच की उपस्थिति में मद्यपान करना वे टालते थे। इस कारण प्रमुख राक्षसगण उनके पास जाते एवं महत्वपूर्ण विषयों पर बातचीत होती तो कच किसी काम के बहाने आचार्य बाहर भेज देते। कच ने जब देखा कि आचार्य के सान्निध्य में सदा रह सके, ऐसा और कोई मार्ग बचा नहीं है तो उसने पुन: मद्यपान प्रारंभ किया। वह मात्र आचार्य की बैठकों में एवं केवल प्रसाद स्वरूप् थोड़ा-सा मद्य लेने लगा। अब तक अपनी सेवा तथा चतुरता से उसने आचार्य का स्नेह संपादित कर लिया था। बीच के काल में उसके द्वारा मद्य का बहिष्कार कर दिये जाने के बाद से दोनों के बीच जो कुछ दूरी उत्पन्न हो गई थी वह भी अब नष्ट हो गई और वह फिर से आचार्य का विश्वासभाजन बन गया। मानो वह आचार्य के प्रत्यक्ष पेट में ही प्रवेश कर गया। उपनयन संस्कार की विधि में बताया गया है कि गुरु अपने शिष्य को तीन दिनों तक अपने गर्भ में धारण करता है। लाक्षणिक वर्णन तो प्रसिद्ध ही है। किसी का पूर्ण विश्वास संपादित करने के अर्थ में 'पेट में घुसना' वाक्प्रचार आज भी रूढ़ है। उस दृष्टि से 'कच का शुक्राचार्य के उदर में प्रवेश' में ये शब्द पढ़े जायें एवं मद्य के माध्यम से ही उसने उदर में प्रवेश किया, इस वर्णन की ओर ध्यान दिया जाय तो उक्त अर्थ के संबंध में किसी के मन में संशय उठने का कारण नहीं रहेगा।
इसके पश्चात् कच की उपस्थिति में ही राक्षसों की गुप्त मंत्रणाएं चलने लगीं। आचार्य भी कच के सामने ही राक्षसों का अभिमान जागृत करने वाले ओजस्वी तथा उग्र भाषण देते। कच इन बातों को बड़ी ही गंभीरतापूर्वक दत्तचित्त होकर सुनता। उसका वह मनन भी करता। उसका मद्यपान तो इन दिनों नाममात्र का ही था। परंतु कच ने थोड़ा सा ही क्यों न हो, मद्यपान प्रारंभ किया, इस कल्पना से ही देवयानी परेशान हो गई। मद्यपी पति के सहवास में उसे संपूर्ण वैवाहिक जीवन बिताना होगा, यह दुश्चिन्ता मन में उत्पन्न होने के कारण उसने फिर पिता के पास जाकर अपना दुखड़ा सुनाया।
शुक्राचार्य ने उसे समझाने का प्रयास किया। वे बोले 'कच अब कोई नवागंतुक तो रहा नहीं उसे यहां का सारा व्यवहार ज्ञात हो चुका है। इस अवस्था में मैं यदि उसे मद्यपान बंद करने को कहूं तो प्रथम मुझे भी वह बंद करना होगा, तभी इष्ट और अपेक्षित परिणाम होगा, परंतु इस वृद्धावस्था में मैं मद्य के बिना एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता। मद्यपान करना अब मेरा स्वभाव तथा प्रकृति बन चुकी है। इन बातों का विचार करके तू सोच ले कि क्या करना उचित होगा।'
तब देवयानी अत्यंत दीन वाणी से कहने लगी- ''बाबा, मुझे तो आप एवं कच दोनों ही चाहिए। आपने तो बचपन से ही माता के समान मेरा पालन-पोषण किया है और अब आपके इस लाडली बेटी का भावी जीवन मंगलमय होने का समय निकट आ चुका है। फिर इस अड़चन से मुक्त होने का कोई मार्ग क्या आप ढूंढ नहीं निकालेंगे?''
शुक्राचार्य फिर पिघल गए। उन्होंने अपने मन में कुछ निश्चय किया। कच को पास बुलाकर उसे पुनश्च प्रारंभ से सब बातों का स्मरण करा दिया। उन्होंने कच से प्रश्न किया- ''यदि कोई यह कहे कि व्यसनहीन बृहस्पति पुत्र कच मेरे यहां रहकर मद्यपी बन गया तो क्या वह मेरी अपकीर्ति नहीं होगी?" प्रश्न सुनकर कच ने फिर एक बार भीषण प्रतिज्ञा की एवं ''अपने व्यवहार के कारण आचार्य की अपकीर्ति होने देने की अपेक्षा मैं प्राणत्याग भी सहर्ष स्वीकार करूंगा'' यह कहते हुए उसने आचार्य के चरणों पर मस्तक रखकर संकल्प किया कि इसके पश्चात् वह मद्य की एक बूंद का भी स्पर्श नहीं करेगा। शुक्राचार्य प्रसन्न हो गए। उन्होंने कच से कहा कि तुम्हारी सेवा एवं निष्ठा से मैं प्रसन्न हुआ हूं, अत: तुम्हें जो कुछ वरदान चाहिए, मांग लो।

संजीवनी - साक्षात्कार
कच ने अपना मनोगत स्पष्ट किया और कहा कि संजीवनी विद्या की प्राप्ति की एकमात्र लालसा को छोड़कर उसकी अन्य कुछ भी इच्छा नहीं है। शुक्राचार्य बोले- 'हे वत्स, संजीवनी की प्राप्ति तो तुम्हें बहुत पहले ही हो चुकी है। अपने सामर्थ्य एवं कर्त्तव्य का ज्ञान हो जाने पर उत्पन्न होने वाले आत्मविश्वास और आशावाद को ही संजीवनी कहा जाता है। इनकी प्राप्ति हो जाने पर कितनी भी असफलता मिले मनुष्य ध्येय-सिध्दि का प्रयत्न छोड़ता नहीं। इन राक्षसों का भूतकाल का इतिहास वैभवसंपन्न एवं पराक्रमयुक्त है। उसका पुनश्च स्मरण करा देने पर, पराजय के प्रसंग उपस्थित होने पर भी वे निराश नहीं होते, सदा उद्योगरत ही रहते हैं। यही बात देवलोक में संजीवनी के नाम से प्रसिद्ध है। इस संजीवनी का प्रयोग प्रत्यक्ष तुम पर भी मैंने तीन बार किया। क्या तुम्हारे ध्यान में यह बात नहीं आई? हे बृहस्पति-पुत्र! मैं भी तुम्हारा अत्यंत ऋणी हूं। यहां आने पर मद्यासक्त होकर पुनश्च तुम सावधान हो गए एवं पूर्णत: मद्यमुक्त हो गए। ब्राह्मण होने के कारण ही यह लोकोत्तर कर्म करना तुम्हारे लिए संभव हुआ। प्रत्यक्ष इन्द्र के लिए भी असंभव कर्म तुमने करके दिखा दिया। दो-दो बार तुम्हें मद्यपी बनना पड़ा था, वह मेरे कारण। इस मद्यपान का परिणाम कितना भयंकर तथा हानिकर होता है, इसकी पूर्ण कल्पना मुझे है। मैं भी ब्राह्मण हूं, इस बात का लगभग मुझे विस्मरण ही हो गया था। यहां तुम्हारे रहने से एक प्रकार से मुझे भी संजीवन ही प्राप्त हुआ है। मैं भी इस क्षण से मद्य का त्याग कर रहा हूं। इतना ही नहीं, यदि कोई ब्राह्मण मोहवश मद्यपान करे तो वह निंदा का पात्र है एवं मृत्यु के पश्चात् भी उसे सद्गति प्राप्त न हो, यह निर्बन्ध मैं डाल रहा हूं। यहां आने का तुम्हारा जो उद्देश्य था, वह अब सफल हो चुका है। अब चाहो तो तुम स्वर्गलोक वापस लौटकर इस विद्या का यथेच्छ उपयोग करो।''
कच बड़ा ही बुद्धिमान था। उसने आचार्य की मन:स्थिति एवं परिस्थिति अच्छी तरह से भांप ली थी। आचार्य ने मुझे शिष्य के रूप में ग्रहण कर ब्राह्मणत्व का जो आदर्श मेरे सामने रखा, उसी कारण मुझे इस विद्या की प्राप्ति हो सकी। ''आपकी यह उदारता निष्फल या व्यर्थ हुई, ऐसा अनुभव करने का मौका मैं आपको कभी न दूंगा।'' यह कहते हुए उसने आचार्य से बिदा ली।

शुक्राचार्य का पुनरुज्जीवन
शुक्राचार्य ने कच को मद्यमुक्त करने के लिए स्वयं वृद्धावस्था में भी मद्य पान-त्याग कर संकल्प लेकर मानों मृत्यु का ही आह्वान किया। उनके इस कृत्य को ध्यान में रखकर कच ने उनमें भी ब्राह्मणत्व का अभिमान जागृत किया एवं आमरण उन्हीं का शिष्यत्व कायम रखने का संकल्प घोषित किया और शुक्राचार्य में भी स्वजीवन सफल करने की भावना उत्पन्न करके मानों कच ने उन्हें मद्य के बिना भी जीवन धारण करने का सामर्थ्य प्राप्त करा दिया।
अपने घर वापस लौटने की अनुमति आचार्य से प्राप्त करके देवयानी से बिदा लेने कच उसके पास गया। तब देवयानी ने अपना मनोगत स्पष्ट रूप से कच के सम्मुख रखा। कच ने पूर्ण निर्विकार वृत्ति से दृढ़निश्चय के स्वर में उससे कहा कि ''गुरु-कन्या प्रत्यक्ष बहन के समान होती है, अत: मेरे द्वारा ऐसा अयोग्य और अधर्म्य व्यवहार नहीं हो सकता।'' यह सुनते ही देवयानी आपे से बाहर हो गई। क्रोधित होकर वह अनाप-शनाप बातें कहकर कच को कोसने लगी। उसने कहा -'हे कच, आज तक तुम यहां जीवित रह सके, वह मात्र मेरे कारण ही। क्या तुम इसे भूल गए? संजीवनी की प्राप्ति तुम्हें आचार्य द्वारा हुई, वह भी मेरी ही मध्यस्थता का फल है। यह सब जानकर भी क्या जानबूझ कर तुम उस ओर दुर्लक्ष्य कर रहे हो? परंतु ध्यान रहे कि यह संजीवन विद्या देवलोक में काम नहीं आएगी, क्योंकि इन देवों का भूतकाल राक्षसों के अनुसार उज्ज्वल या वैभवपूर्ण और पराक्रमयुक्त नहीं है।''

शाप और अभिशाप
कच ने कुछ क्षण विचार कर कहा- 'राक्षसों का सारा भावी उत्कर्ष उनके उज्ज्वल भूतकाल पर निर्भर है, अत: उसके बल पर वे उछलकूद करें, यह स्वाभाविक ही है। यह भी सही है कि देवों को यह अनुकूलता प्राप्त नहीं है, अत: संभवत: संजीवनी विद्या का ऐसा उपयोग वे न भी कर सकें। परंतु देवों में बुद्धि है एवं 'बुद्धिर्यस्य बलम् तस्य' यह त्रिकालाबाधित सिद्धान्त है। अत: हमें 'भविष्यत् में उर्जितावस्था प्राप्त होगी ही' ऐसी दुर्दम्य आशा-आकांक्षा रखकर तदर्थ उद्योग करने में, अर्थात् संजीवनी का उपयोग सफलता से कर सकने में, कोई बाधा या अड़चन आने का कारण नहीं। हे गुरुपुत्री, तूने जिस प्रकार मुझे प्राप्त संजीवनी विद्या के भविष्यत् में उपयोग के संबंध में शंका प्रदर्शित की है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे भवितव्य के संबंध में अपना प्रामाणिक विचार तुम्हें बता रहा हूं। अत: तुम मुझ पर नाराज न होना। एक विशेष उद्देश्य मन में रखकर मैं यहां आया था। वह साध्य करके मैं अब वापस जा रहा हूं। तूने स्वयं ही मुझ पर अनंत उपकार किए हैं, उसके लिए मैं सर्वदा तुम्हारा ऋणी रहूंगा। परंतु एक बात ध्यान में रहे कि अपने किये सुकृत्य या उपकारों की वाच्यता स्वमुख से करना सज्जनों को शोभा नहीं देता। दूसरी बात यह है कि शास्त्रों ने विधि-निषेध एवं मर्यादाओं की जो व्यवस्था बताई है, उसके विपरीत कर्म करने का आग्रह तू मुझ से कर रही है। यह तुम्हारा व्यवहार विप्र-कुलोचित नहीं। अत: मुझे ऐसा लगता है कि विप्रकुमार से विवाह करने का सौभाग्य तुम्हें प्राप्त नहीं होगा।
इतना कहकर अपनी सफलता प्रसन्न हास्य द्वारा मुख पर झलकाते हुए कच घर की ओर चल पड़ा। वह स्वर्गलोक पहुंचा तो देवों की सभा में उसका बड़ा सत्कार हुआ तथा यज्ञ में हविर्भाग लेने का अधिकार भी उसे प्राप्त हो गया।

शर्मिष्ठा का समर्पण
फिर अनुकूल समय पाकर देवों ने राक्षसों पर चढ़ाई करने की तैयारी की। कच के मुख से वृषपर्जन्य के राज्य की सारी परिस्थिति वे सुन चुके थे। उस जानकारी के आधार पर देवों ने वृषपर्जन्य की कन्या शर्मिष्ठा एवं शुक्रकन्या देवयानी में कलह उत्पन्न करा दिया। अपनी कन्या के अपमान से शुक्राचार्य क्रोधित हो गये और राक्षसों का त्याग करने के लिए उद्यत हुए। परंतु शर्मिष्ठा ने देवयानी का दासत्व स्वीकार कर लिया और अपनी समाज संबंधी कर्तव्यनिष्ठा प्रकट करके स्वजाति को संकटमुक्त किया। यह कथा भी प्रसिद्ध है।

सच्ची संजीवनी

एक बार शरीर मृत होने पर यदि उसमें पुनश्च प्राणसंचार करने की सामर्थ्य संजीवनी विद्या में होती तो ऐसी संजीवनी विद्या सीखकर जबकि कच स्वर्गलोक लौटा था, देवों को उक्त प्रकार की कूटनीति का सहारा लेने की आवश्यकता ही नहीं होती। वे राक्षसों पर सीधा-सीधा आक्रमण करते। मृत राक्षसों को शुक्राचार्य एवं मृत देवों को कच या उसका कोई शिष्य जीवित करता, यही क्रम चलता रहता। परंतु देवों ने ऐसा कुछ न करके कूटनीति का ही सहारा लिया। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि संजीवनी विद्या मृत शरीर को फिर से सजीव करने वाली या चैतन्य देने वाली विद्या नहीं है अपितु उसका जो स्वरूप यहां वर्णित है, वही सत्य है। उसका यही अर्थ लेने से कच-कथा के वर्णन से उसकी संगति बैठती है।

घर-घर का मंगल करने वाले गणपति 'बप्पा मोरया'

प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक उमाकांत केशव आपटे उपाख्य बाबासाहेब आपटे की विचारशीलता अद्भूत थी। उनका जन्म 28 अगस्त, सन् 1903 में हुआ था। सन् 1920 में वे संघ के संपर्क में आए और सन् 1931 में संघ के प्रथम प्रचारक बने। उनके अंदर पढने और उसे ह्दयंगम् कर उसका कुशल विवेचन करने की अनूठी ईश्वर प्रदत्त विशेषता थी जिसका उपयोग कर न केवल उन्होंने रा.स्व.संघ के कार्य को गति प्रदान की वरन् भारतीय जीवन-परंपरा के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने गजब का समाज-प्रबोधन किया। 26 जुलाई, सन् 1972 को उनका निधन हो गया। रा. स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह के अनुसार, भौतिक जीवन के 70 वर्ष वह पूर्ण नहीं कर पाए लेकिन कार्य इतना कर गए कि कोई 100 वर्ष में भी न कर सके।
ऐसी महान प्रतिभा की स्मृति में हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके प्रबोधनकारी विचारों को वेबपोर्टल के माध्यम से पुनर्प्रकाशित कर आधुनिक पीढ़ी को उनसे परिचित कराने में हमें अपार प्रसन्नता हो रही है। ये विचार कालजयी हैं, हमें न सिर्फ हमारे गौरवमयी अतीत से परिचित कराते हैं वरन् ये हमारा भविष्यपथ भी निर्धारित कर सकने में सक्षम हैं। प्रस्तुत है उनकी विचार श्रंखला पर आधारित आलेख-माला “भावार्थ चिन्तन-गणपति”- संपादक


भावार्थ चिन्तन-गणपति
हिन्दू समाज में अनंत देवी- देवताओं की उपासना प्रचलित है। हिन्दुओं के धार्मिक कार्यों का प्रारंभ गणेश-पूजन के द्वारा ही किया जाता है, क्योंकि गणेश जी मंगलमूर्ति हैं। वे विघ्न-विनाशक हैं। उनका पूजन न करने वाला हिन्दू ढूंढे से भी मिलना कठिन है। विशाल हिन्दु समाज के भिन्न-भिन्न मतावलंबियों में विभाजित होते हुए भी उसको एकत्व मे बांधकर रखने वाले जो कई सामर्थ्यशाली सूत्र हैं, उनमे गणेशपूजा भी एक प्रधानसूत्र है। गणेशजी को यह स्थान कैसे प्राप्त हुआ? इसके भीतर कौन सा रहस्य छिपा हुआ है? इन्हीं बातों पर हम विचार करेंगे।

शिव-पार्वती और उनके पुत्र गणेश व कार्तिकेय
गजमुख गणेश और षडानन कार्तिकेय, ये दोनों शिव-पार्वती के पुत्र हैं। शिव का अर्थ है कल्याण और पार्वती मूर्तिमती ज्ञान-लालसा हैं। अपने प्राचीन संस्कृत साहित्य में कितनी ही विद्याओं का और शास्त्रों का विवेचन शिव-पार्वती के संवादों के माध्यम से हुआ है। पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उसका उत्तर देते हैं।

शिवजी का जीवन तपस्यामय है। भूतमात्र की कल्याण-कामना से वे सर्वदा तप में लीन रहते हैं। बाह्य वेष की ओर उनका तनिक भी ध्यान नहीं हैं। अहर्निश कर्मरत रहने के कारण उनके पास सब प्रकार के ज्ञान का भण्डार हैं। वे बहुत भोले हैं। ठंडे दिमाग से सोचकर काम करना और सतर्कता से काम लेना वे जानते ही नहीं। उसी प्रकार हर बात में मर्यादापालन एवं तारतम्य के महत्त्व की वे तनिक भी चिंता नहीं करते। इसलिए कपटी शत्रुओं का बंदोबस्त वे कभी नहीं कर पाते। उसी प्रकार वे कई बार अन्तर्गत विकारों के अधीन भी हो जाते हैं। फिर भी उनके वैराग्य तथा ज्ञान पर मुग्ध होकर पार्वती उनको पाने के लिए तरसती हैं और अंत में उनको पाकर अपने को धन्य समझती हैं। उनकी भक्ति से संतुष्ट होकर शिवजी उनकी सब शंकाओं का समाधान करते हैं।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि शिव तत्व हैं और पार्वती व्यवहार। इस शिव-पार्वती मिलन का ही परिणाम है षडानन कार्तिकेय एवं गजानन गणेशजी का जन्म।


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कार्तिकेय और गणेशजी के वाहन
कार्तिकेय अपनी सतर्कता के कारण देवताओं के सबसे श्रेष्ठ सेनापति हुए हैं। गणनापूर्वक व्यवस्थित कार्य करना गणेशजी का सहज स्वभाव हैं। किंतु शिवजी को वह पसंद नहीं। ध्येय-सिद्धि के लिए काम करने की शीघ्रता में व्यवस्थित काम करने के लिए सोचने और लोगों को अनुशासन सिखाने में समय बिताना वे आवश्यक तथा इष्ट नहीं समझते। अंततोगत्वा उस पद्धति से अधिक कार्य हो सकेगा, इस बात पर उनकी श्रद्धा ही नहीं है। परंतु पार्वती गणेशजी का पक्ष लेकर उनको बचाती हैं। फलत: गणेशजी अपने मार्ग पर आगे बढ़ पाते हैं। गणेशजी के कारण अंतर्गत परिस्थिति काबू में की जाती है और कार्तिकेय द्वारा कपटी शत्रुओं का बंदोबस्त किया जाता है। उनके वाहन उसका प्रमाण हैं। कार्तिकेय का वाहन मयूर है और गणेशजी का मूषक।

विशेष गुण दोषों के प्रतीक हैं वाहन
हमारे यहां भिन्न-भिन्न देवताओं के बड़े विचित्र-विचित्र वाहन बताए गये हैं। ब्रह्मदेव का वाहन हंस है। सरस्वती भी हंस-वाहिनी और मयूर-वाहिनी हैं। शिव का वाहन वृषभ है। काली या दुर्गा सिंहवासिनी हैं। विष्णु का वाहन गरुड़ है। इन्द्र हाथी पर सवारी करते हैं और लक्ष्मी का वाहन उलूक माना गया है।

सामान्य अनुभव से भी कहा जा सकता है कि कोई अपना वाहन उसी को निश्चित करेगा जिस पर वह पूरा नियंत्रण रख सके। जिसका नियमन करने की योग्यता तथा सिद्धता नहीं होगी, उसको वाहन बनाना व्यर्थ ही है।

यद्यपि उपरोक्त सारे वाहन जानवर ही बताये गये हैं। तथापि वे केवल जानवर ही नहीं है, वे विशेष गुणों या दोषों के प्रतीक भी हैं। दूसरे, वे सवारी करने वालों की उस योग्यता की ओर भी इशारा करते हैं जिसके अनुसार वे वाहनों से संबंधित गुणों और दोषों का नियमन और निराकरण करते हैं। वाहन में जो दोष हैं, उससे मुक्त, और जो गुण हैं उन्हीं को अधिक तत्परता से प्रकट करने वाला यदि कोई हो तभी वह वाहन पर सवारी कर सकेगा अन्यथा नहीं, यह बात स्पष्ट है। अर्थात् संबंधित गुण दोषों से युक्त मनुष्यों का नियमन और सुधार करना तथा उनके द्वारा सबकी उन्नति का कार्य करा लेना, यह भाव भी प्रकट होता है।

पुराणों मे कहा गया है कि ''जो कर्त्तव्य भावना से अनभिज्ञ तथा सब प्रकार के कर्मों से अपरिचित है, जिसको समयोचित सदाचार का भी ज्ञान नहीं है, वह मूर्ख वास्तव में पशु ही है। शिवजी को पशुपति कहते हैं, वह भी इसी अर्थ में। उनको महादेव भी कहते हैं। वह भी इसलिए कि समाज में प्राय: अधिकांश मनुष्य उपरोक्त परिभाषा के अंतर्गत गणना करने लायक ही होते हैं, जो महादेवी जी के सीधे- सादे तपस्यायुक्त किंतु अव्यवस्थित जीवन से प्रभावित तथा नियंत्रित होते रहते हैं। परिचित पशु-सृष्टि में इन गुणदोषों से युक्त बैल ही है। इसीलिए महादेवजी के वाहन के रूप में उसकी कल्पना की गई है।

हाथी अदूरदर्शी एवं बड़ा ताकतवर होता है। इन गुणों वाले लोगों से काम लेने वाला तथा उनका नियमन करने वला इन्द्र सहस्त्राक्ष है, राजा है। 'चारै: पश्यंति राजानो' इस वचन के अनुसार उसकी सहस्त्र आंखें उसके सहस्त्रों गुप्तचरों की सूचक हैं। गुप्तचरों से सर्वत्र के समाचार पाकर तदनुसार दक्षता एवं सतर्कता का व्यवहार इन्द्र रखता है। तभी तो वह अपने बलशाली किंतु अदूरदर्शी अनुयायियों को नेतृत्व कर सकता है और यशस्वी बन सकता है।

सिंह बड़ा साहसी एवं तेजस्वी होता है। ऐसे लोगो पर नियंत्रण रखकर उनका उपयोग करने वाली काली स्वयं भगवती-शक्ति कहलाती हैं। ‘सैनिक शक्ति का स्वामी बनना चाहते हो तो तेजस्वी लोगों का नियंत्रण करने की योग्यता संपादन करो’ यही भाव मानो उससे प्रकट होता है।

कार्तिकेय का वाहन मयूर है और सरस्वती भी मयूरवाहिनी है। जो लोग अनेक आंखों वाले अर्थात अतीव चतुर एवं दक्ष होते हैं तथा जो बहुत आकर्षक बहिरंग रखते हैं, ऐसे लोगों के भी हृदयों के भाव को तोड़कर उनका बंदोबस्त करना हो तो सब प्रकार के शस्त्र तथा शास्त्रों का ज्ञान होना आवश्यक है। ऐसा दक्ष एवं चतुर स्त्री-पुरुष ही सेनानी कहला सकता है तथा वही ऊंचे दर्जे का साहित्य-सेवी और कलोपासक भी हो सकता है। जो एकांगी ही नहीं वरन् सर्वांगीण ज्ञान रखता है वही प्रमुख कहलाने का अधिकारी है। यही भाव अंग्रेजी में सेनापति को 'जनरल' कहकर व्यक्त किया जाता है।

गरुड़ वेगवान होता है और उसकी दृष्टि अति तीक्ष्ण होती है। वह अपना घोंसला बहुत ऊंचे स्थान में बनाता है। दूर दृष्टि, उच्च-आकांक्षा रखने वाले एवं उत्कट भावना वाले लोगों पर जो नियंत्रण रखेगा ऐसा ही पुरुष इस संसार में लोकपालक राजा बन सकता हैं। यही तत्व 'नाविष्णु: पृथिवीपति:' इस वचन में प्रकट किया गया है।

भगवान् विष्णु अपना लोकपालन का कर्त्तव्य पूर्ण करने के निमित्त ही गणेश के रूप में प्रकट होकर मंगलमूर्ति और विघ्नहर्ता कहलाते हैं। इस रूप में उनका वाहन चूहा है जो बहुत क्रियाशील बुद्धिमान किंतु चौर्यकुशल होता है। समाज में जो चोर, डाकू, लुटेरे आदि दुर्वृत्ति के लोग होते हैं, उनका नियमन किये बिना समाज में सुख या संस्कृति का विकास कदापि संभव नहीं हो सकता।

सभ्य जीवन का प्रारंभ ही कानून और व्यवस्था से होता है। इसीलिए उस विभाग के अधिपति गणेशजी को मंगलमूर्ति, विघ्न-विनाशक कहते हैं और सभी सत्कर्मों के प्रारंभ में उनकी पूजा करने का विघ्न हमारे शास्त्रकारों ने बताया है। लोकपालन जिसका मुख्य कर्त्तव्य है, उस राजशक्ति का आविष्कार और परिचय, प्रधानत: नियम व सुव्यवस्था विभाग के रूप में ही सर्वत्र होता आया है। इसलिए गणेशजी को श्री विष्णु का अवतार कहना युक्तिसंगत ही हैं 'मूषक-वाहन' नाम की सार्थकता इसी प्रसंग में है।




गणपति-गजमुख का इतिहास
अब 'गण+पति' और 'गज+मुख' एवं तत्सम शब्दों का विचार कर लें। 'गण' धातु का अर्थ है गिनती करना। हर बात में बारीकी से सोचना हो, दक्षता के साथ काम करना हो, नाप-तौल कर बर्ताव करना हो तो बार-बार गिनती करनी पड़ेगी। इस प्रकार गणना करने का जिनको अभ्यास हो गया हो, ऐसे लोगों में संघ-भावना, परस्पर विश्वास, समानता, शील, अनुशासन आदि गुणों का होना स्वाभाविक है। इसलिए इन गुणों से युक्त व्यक्ति समूह को प्राचीन समय में 'गण' कहा जाता था।

ये गण बड़े कार्यक्षम और दुर्धर्ष होते हैं। इसीलिए चोर, लुटेरे आदि दुर्वृत्ति के लोगों का नियमन करते हुए समाज में शांतता एवं सुव्यवस्था बनाये रखने का काम इन गणों को सौंपा जाता था। गण अपना नायक चुनते थे। अपने में से कोई भी नायक हुआ, तो भी उसकी आज्ञा का पालन असूयारहित भाव से करना ही उनकी आदत थी। उनका चुनाव करने का अजीब ढंग था। गण के सब सदस्य एकत्र होते थे और हथिनी की सूंड में माला देकर उसको सभा में घुमाते थे। जिस किसी के गले में वह माला पड़ जाती थी, उसी को नायक माना जाता था। उसको गजमुख, गणनायक कहा जाता था। गजानन, गजवदन इत्यादि उसी के पर्यायवाची शब्द हैं।

गजानन गणपति का चरित्र गणेश पुराणादि ग्रंथों में सविस्तार वर्णित है। उसको पढ़ने से यह ध्यान में जाता है कि प्रत्येक अवतार में गणपति ने अतीव निर्लीभता और भोग विमुखता का ही परिचय दिया। अवतार-कार्य समाप्त होते ही उन्होंने अपना जीवन समाप्त कर लिया और अपने धाम को चले गये। इस कारण उसी प्रकार की एक परंपरा निर्माण हो गई। फलत: यह धारणा भी बढ़ने लगी कि गणेश केवल एक व्यक्ति ही नहीं वरन् एक तत्व है, एक विद्या है। उसका नाम गणेशविद्या रखा गया और उसके द्वारा समाज का प्रत्येक व्यक्ति चारित्र्यवान, निर्लोभी, अनुशासनबद्ध एवं कार्यक्षम बनाया जाने लगा। आज की परिभाषा में हम इसी को 'संगठन-शास्त्र' भी कह सकते हैं।

गणपति के द्वारा चलाई गई उक्त प्रथा प्राचीन काल में इतनी सर्वमान्य हो गई थी कि किसी को कोई गद्य या पद्य ग्रंथ भी लिखना हो तो उसके आरंभ में 'श्रीगणेशाय नम:' लिखा जाता था। यदि लड़कों की पढ़ाई प्रारंभ करनी हो तो उससे पहले 'श्रीगणेशाय नम:' लिखाया जाता था। संघटन-शास्त्र के मूल तत्वों का परिचय प्राप्त करने के बाद ही अन्यान्य शास्त्रों का अध्ययन तथा अध्यापन योग्य और उपयुक्त हो सकता है, यह भाव इससे स्पष्ट हो जाता है। इस संगठन शक्ति की प्रशंसा में स्तोत्र रचे गये जिनका सारांश है- ''यह सारा जीवन तुम्हारे कारण ही उत्पन्न होता है, तुम्हारे आधार पर ही चलता है, तुम्हीं सबके चैतन्य हो, तुम्हारे कारण ही ज्ञान-विज्ञान बढ़ सकते हैं, तुम्हीं हमारे रक्षक हो, तुम्हीं सब की रक्षा करने वाले हो। यही शाश्वत सत्य है, इसका ही हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं, संतति, संपत्ति, संस्कृति इन सब का मूल आधार तुम्हीं हो, इत्यादि।'' यह स्तोत्र आज भी प्रचलित है।



गणपति पूजा अर्थात् समाज-संगठन
इस प्रकार गणेशोपासना जब अखिल भारतवर्ष में सर्वत्र प्रचलित हो गयी और आधारभूत, प्राणभूत तत्व के रूप में देखी जाने लगी तब फिर उसका प्रचार बाहर भी होने लगा। इतिहास बतलाता है कि तुर्किस्तान, तिब्बत, चीन, जापान, लंका, जावा, सुमात्रा, श्याम, ब्रह्मदेश और सुदूर अमेरिका में भी पुराने समय में गणेशोपासना प्रचलित हो गयी थी। उन सभी स्थानों पर गणेशजी की मूर्तियां अब भी प्राप्त होती हैं। इससे यही दिखाई देता है कि उपरोक्त देशों में हमारे भारतीय विद्वानों ने जाकर सभ्य-जीवन की आदिस्वरूप यह गणेशपूजा उनको सिखाई होगी या उन देशों के लोग भारत में आकर सभ्य-जीवन के पाठ पढ़ते होंगे और उसकी प्रथम सीढ़ी, जो गणेशपूजा है, उसको साथ लेकर अपने देश में उसका प्रचार करते होंगे। आज भारत गणराज्य कहलाता है। अपने गुणों के कारण समाज में सब के श्रद्धापात्र बनने वाले गजमुख गणपति का आदर्श यदि आज हमारे सामने रहेगा तो ही भारत पहले जैसा कर्त्तव्य-परायण बनकर, तपस्या के बल पर पुनरपि जगद्गुरू कहला सकेगा।

जीजाबाई जैसी मां मिलीं तो देश को शिवाजी मिले

हिन्दू-राष्ट्र के गौरव क्षत्रपति शिवाजी की माता जीजाबाई का जन्म सन् 1597 ई. में सिन्दखेड़ के अधिपति जाघवराव के यहां हुआ। जीजाबाई बाल्यकाल से ही हिन्दुत्व प्रेमी, धार्मिक तथा साहसी स्वभाव की थीं। सहिष्णुता का गुण तो उनमें कूट-कूटकर भरा हुआ था। इनका विवाह मालोजी के पुत्र शाहजी से हुआ। प्रारंभ में इन दोनों परिवारों में मित्रता थी, किंतु बाद में यह मित्रता कटुता में बदल गई; क्योंकि जीजाबाई के पिता मुगलों के पक्षधर थे।



एक बार जाधवराव मुगलों की ओर से लड़ते हुए शाहजी का पीछा कर रहे थे। उस समय जीजाबाई गर्भवती थी। शाहजी अपने एक मित्र की सहायता से जीजाबाई को शिवनेर के किले में सुरक्षित कर आगे बढ़ गये। जब जाधवराव शाहजी का पीछा करते हुए शिवनेर पहुंचे तो उन्हें देख जीजाबाई ने पिता से कहा- 'मैं आपकी दुश्मन हूं, क्योंकि मेरा पति आपका शत्रु है। दामाद के बदले कन्या ही हाथ लगी है, जो कुछ करना चाहो, कर लो।'

इस पर पिता ने उसे अपने साथ मायके चलने को कहा, किंतु जीजाबाई का उत्तर था- 'आर्य नारी का धर्म पति के आदेश का पालन करना है।'



10 अप्रैल सन् 1627 को इसी शिवनेर दुर्ग में जीजाबाई ने शिवाजी को जन्म दिया। पति की उपेक्षा के कारण जीजाबाई ने अनेक असहनीय कष्टों को सहते हुए बालक शिवा का लालन-पालन किया। उसके लिए क्षत्रिय वेशानुरूप शास्त्रीय-शिक्षा के साथ शस्त्र-शिक्षा की व्यवस्था की। उन्होंने शिवाजी की शिक्षा के लिए दादाजी कोंडदेव जैसे व्यक्ति को नियुक्त किया। स्वयं भी रामायण, महाभारत तथा वीर बहादुरों की गौरव गाथाएं सुनाकर शिवाजी के मन में हिन्दू-भावना के साथ वीर-भावना की प्रतिष्ठा की। वह प्राय: कहा करती- 'यदि तुम संसार में आदर्श हिन्दू बनकर रहना चाहते हो स्वराज की स्थापना करो। देश से यवनों और विधर्मियों को निकालकर हिन्दू-धर्म की रक्षा करो।'

शाहजी ने दूसरा विवाह कर लिया था। कई वर्षों बाद शाहजी ने जीजाबाई को शिवाजी सहित बीजापुर बुलवा लिया था, किंतु उन्हें पति का सहज स्वाभाविक प्रेम कभी प्राप्त नहीं हुआ। जीजाबाई ने अपने मान,अपमान को भुलाकर सारा ध्यान अपने पुत्र शिवाजी पर केन्द्रित कर दिया। शाह जी की मृत्यु पर पति-परायणा जीजाबाई सती होना चाहती थी, किंतु शिवाजी के यह कहने पर कि “माता! तुम्हारे पवित्र आदर्शों और प्रेरणा के बिना स्वराज्य की स्थापना संभव नहीं होगी। धर्म पर विधर्मियों का दबाव बढ़ जायेगा।" माता ने पुत्र की भावना तथा भविष्य के प्रति जागरूक दृष्टि का परिचय देते हुए सती होने का विचार त्याग दिया।



औरंगजेब ने जब धोखे से शिवाजी को उनके पुत्र सहित बंदी बना लिया था, तब शिवाजी ने भी कूटनीति तथा छल से मुक्ति पाई और वे जब संन्यासी के वेश में अपनी मां के सामने भिक्षा लेने पहुंचे तो मां ने उन्हें पहचान लिया और प्रसन्नचित होकर कहा- 'अब मुझे विश्वास हो गया है कि मेरा पुत्र स्वराज्य की स्थापना अवश्य करेगा। हिन्दू पद-पादशाही आने में अब कुछ भी विलंब नहीं है।'

अंत में जीजाबाई की साधना सफल हुई। शिवाजी ने महाराष्ट्र के साथ भारत के एक बड़े भाग पर स्वराज्य की स्वतंत्र पताका फहराई, जिसे देखकर जीजाबाई ने शांतिपूर्वक परलोक प्रस्थान किया। वस्तुत: जीजाबाई स्वराज्य की ही देवी थीं।

पति-परायणा महारानी कलावती

राजा कर्णसिंह की पत्नी कलावती युद्ध-कौशल में अत्यंत निपुण, साहसी तथा दृढ़-स्वभाव की पति-परायणा नारी थी। एक बार अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति ने दक्षिण भारत पर विजय हासिल करने से पहले मार्ग में राजा कर्णसिंह को समर्पण करने का संदेश भेजा। युद्ध किए बिना अधीनता स्वीकार करना क्षत्रिय-धर्म और स्वभाव के विपरीत था, अत: कर्णसिंह ने अलाउद्दीन खिलजी के प्रत्युत्तर में युद्ध की घोषणा कर दी।

युद्ध की तैयारी कर जब कर्णसिंह महल में अपनी पत्नी से विदा लेने पहुंचा, तब रानी कलावती ने निवेदन करते हुए कहा- “नाथ मैं आपकी जीवन-संगिनी हूं, अत: इस अवसर पर मुझे साथ रहने की अनुमति प्रदान करें। यह ठीक है कि सिंहनी के आघात, बनराज की तुलना में हलके हो सकते हैं, किंतु गीदड़ों के विनाश के लिए तो पर्याप्त हैं।" राजा ने अपनी वीर-संगिनी के विचारों और भावों को समझते हुए तथा उसे आदर देते हुए साथ चलने की आज्ञा दे दी।

शत्रु-सेना की तुलना में कर्णसिंह का सैन्यबल बहुत कम था, किंतु वेतन भोगी यवनों की तुलना में देशभक्त राजपूत वीरों का मनोबल कहीं ऊंचा तथा दृढ़ था। रानी कलावती अपने स्वामी की छाया के समान युद्धभूमि में शत्रु दल का संहार करती हुई स्वामी के पार्श्व की रक्षा कर रही थी। अचानक एक कटोर आघात से कर्णसिंह अचेत होकर गिर पड़ा। रानी ने दोनों हाथों से शस्त्र-संचालन कर शत्रुओं का सफाया कर दिया। रानी के शौर्य और युद्ध-कौशल से राजपूत सेना के वीरों का उत्साह भी दूना हो गया। परिणामस्वरूप शत्रु-सेना पराजित हो पीछे हट गई।




विजय प्राप्त कर रानी कलावती अपने घायल वीर पति को लेकर महल लौटी। राजवैद्य ने परीक्षण कर बताया कि घातक विष बुझे शस्त्र के आघात से महाराज अचेत हुए हैं, इनका निराकरण केवल विष चूसकर ही किया जा सकता है। विष बहुत तीव्र गति से शरीर में फैल रहा है, किंतु यह भी ध्यान रखने की बात है कि चूसने वाले के प्राणों की रक्षा संभव नहीं है।

इससे पूर्व की किसी विष-चूसक की खोज की जाती, विष चूसने की विधि न जानते हुए भी रानी कलावती ने विष चूसना प्रारंभ कर दिया। कुछ समय पश्चात् राजा कर्णसिंह की अचेतना दूर हुई, उसने जैसे ही नेत्र खोले तो देखा कि उसकी जीवन-संगिनी के प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं। पति का प्राण-रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति देने वाली भारतीय ललनाओं में रानी कलावती का अनयतम स्थान है।

गिरधर गोपाल की दीवानी हुई मीरा

भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों में मीराबाई का अनन्तम स्थान है। मीराबाई ने भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति पत्नी-भाव से की। इस भक्ति-पथ पर चलते हुए मीरा ने अनेक असहनीय कष्ट सहे। मीरा के जन्म के संबंध में विद्वान एक मत नहीं हैं। उनका जन्म सं. 1560 के आसपास मेड़ता परगने के कुंडकी गांव में माना जाता है। मीरा जोधपुर के राठौर वंशीय रावजोधा की प्रपौत्री, रावदादू की पौत्री और रतनसिंह की पुत्री थी। बाल्यकाल में ही माता का निधन हो जाने से मीरा का पालन-पोषण रावदादू के संरक्षण में हुआ। मीरा का बचपन अपने चाचा वीरमदेव के पुत्र जसमल के साथ बीता। बाल्यकाल से ही दोनों की वृत्ति भक्तिमयी थी, अत: कालांतर में जयमल प्रसिद्ध भक्त हुआ और मीरा परम कृष्ण भक्तिमती।

मीरा का विवाह महाराणा सांगा के पुत्र राजकुमार भोजराज के साथ हुआ। मेवाड़ की राजरानी बनने पर भी मीरा अपने गिरधर गोपाल की दीवानी बनी रही। भोज की मृत्यु हो जाने पर ससुराल वालों ने मीरा को असहनीय यातनाएं दीं, क्योंकि वे मीरा की भक्ति तथा क्रियाकलापों को राज-परिवार की मर्यादाओं के विरुद्ध समझते थे। अंत में एक दिन मीरा ने लोक-लाज एवं कुल की मर्यादा आदि का त्यागकर राजभवन छोड़ दिया और अपने गिरिधर गोपाल की नगरी की ओर चल पड़ी। कहते हैं कि राजकुल के मिथ्याभिमान के वशीभूत मीरा के देवर विक्रम ने मीरा का जीवनदीप बुझाने के लिए सांप तथा विष का प्याला भी भेजा। किंतु सांप शालिग्राम के रूप में और विष अमृत में परिवर्तित हो गया। क्योंकि मीरा तो हर रूप और हर वस्तु में प्यारे कन्हैया की अनुकंपा का ही अनुभव करती थी।




मीरा अनेक स्थानों और तीर्थों का दर्शन करती हुई, सांवरे की लीलाभूमि ब्रज पहुंची। एक दिन वह प्रसिद्ध भक्त जीवगोस्वामी के दर्शनार्थ उनके पास पहुंची तो जीवगोस्वामी ने मिलने से इंकार करते हुए कहला दिया- 'स्त्रियों से नहीं मिलता।' इसके उत्तर में मीरा ने कहलवाया- 'मैं तो ब्रजभूमि में एक ही पुरुष कृष्ण को जानती हूं, जानती थी, यह दूसरा पुरुष कहां से आ गया।' मीरा के ऐसे तात्विक तथा ज्ञानमय शब्दों को सुनकर जीवगोस्वामी नंगे पैर मीरा से मिलने के दौड़ पड़े।

कुछ समय तक ब्रजभूमि में रहने के पश्चात् मीरा द्वारिकापुरी चली गई और वहीं रणछोड़जी के मंदिर में नृत्य-कीर्तन करने लगी। कहा जाता है कि मीरा के मेवाड़ छोड़ देने पर वहां प्रकृति का प्रबल प्रकोप हुआ और प्रजा के द्वारा विक्रम की भर्त्सना की जाने लगी। दूसरी ओर मीरा की ख्याति चारों ओर शीतल चांदनी के समान लोकप्रिय हो चली थी, अत: एक दिन विक्रम (मीरा के देवर) ने राज्य की ओर से कुछ व्यक्तियों को मीरा को ससम्मान वापस लिवा जाने के लिए भेजा। मीरा अपने सांवरिया से आज्ञा लेने के बहाने रणछोड़जी के सामने नृत्य करने लगी और नृत्य करते हुए रणछोड़जी के विग्रह में समा गई। मूर्ति के बगल में केवल मीरा का वस्त्र अटका हुआ रह गया। गुजरात के प्रसिद्ध डाकोरजी में यह मूर्ति आज भी विद्यमान बताई जाती है।



मीरा कृष्ण-भक्त नारी ही नहीं, एक समर्थ तथा सशक्त कवयित्री भी थी। मीरा की पदावली हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। भाषा,भाव तथा शिल्प-शैली की दृष्टि से भी पदावली एक उत्कृष्ट काव्यकृति है।

जयप्रकाश नारायण जी के पीछे का प्रकाश थीं प्रभावती जी

जयप्रकाश नारायण के नाम से तो प्राय: सभी परिचित हैं, क्योंकि 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल के विरोध में उनके द्वारा किया गया संघर्ष अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। इससे पूर्व उन्होंने गांधी जी और बाद में विनोबा जी के साथ सर्वोदय आन्दोलन में भी काफी काम किया था; पर उनकी पत्नी प्रभावती जी का नाम प्राय: अल्पज्ञात ही है, जबकि जयप्रकाश जी को पीछे से सहारा देने में उनका योगदान भी कम नहीं है।

प्रभावती जी के पिता जी का नाम ब्रजकिशोर बाबू था। प्रभा जी उनकी जीवित चार सन्तानों में से सबसे बड़ीं थीं। उनका जन्म जानकी नवमी को हुआ था। मां फुलझड़ी देवी घरेलू महिला थीं; पर पिता जी राजनीति और स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय थे। प्रभा जी के ऊपर अपने पिता जी के विचारों का भरपूर प्रभाव पड़ा। प्रभा जी 12 साल की अवस्था तक लड़को जैसे कपड़े पहनतीं थीं। बाद में दादी जी के कहने पर उन्होंने साड़ी बाँधी।

प्रभा जी गहनों, कपड़ों आदि के बदले घरेलू कार्य, पेड़-पौधों की, देखभाल आदि में अधिक रुचि लेतीं थीं। ब्रजकिशोर जी स्त्री शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। अत: उन्होंने प्रभा जी को हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत की उच्च शिक्षा दिलायी। 1920 में प्रभा जी का विवाह बिना तिलक और दहेज के सादगीपूर्ण रीति से जयप्रकाश जी के साथ हो गया। उस समय जयप्रकाश जी 18 और प्रभा जी 14 वर्ष की थीं। उनका गौना 5 साल बाद हुआ।

विवाह के बाद जयप्रकाश जी उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गये, जबकि प्रभा जी गाँधी जी और कस्तूरबा के सान्निध्य में साबरमती आश्रम में आ गयीं। यहां रह कर उन पर स्वदेशी, स्वभूषा, स्वभाषा, आदि के संस्कार पड़े। उन्होंने बीमार कस्तूरबा की खूब सेवा की । बाद में इन्हीं से प्ररित होकर उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ ही अशिक्षा, बाल विवाह और पर्दा प्रथा का विरोध कर नारियों को जाग्रत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

प्रभा जी की कोई सन्तान नहीं थी; क्योंकि पति-पत्नी दोनों ने परस्पर सहमति से समाज सेवा को जीवन में सर्वाधिक महत्व देते हुए कोई सन्तान उत्पन्न न करने का निर्णय लिया था; लेकिन वह समाज सेवी संस्थाओं को ही अपनी सन्तान की तरह प्यार करती थीं। उन्होंने अनेक बाल विद्यालयों की स्थापना की, जिनमें से कुछ कन्याओं के लिए भी थे। प्रभा जी दहेज व्यवस्था की विरोधी थीं। उनका अपना विवाह भी ऐसे ही हुआ था। अगे चलकर उन्होंने लगभग 600 विवाह बिना दहेज के सम्पन्न कराये।

प्रभा जी ने जयप्रकाश जी के साथ दुनिया के अनेक देशों का भ्रमण किया और वहाँ महिलाओं की उन्नत स्थिति देखी। इसका उनके मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे कहतीं थीं कि नारी का जीवन प्रेम और सेवा की आधारशिला है। महिलाओं में इश्वरीय शक्ति विद्यमान है। वे प्रेम से परिवार, समाज और राष्ट्र की अनीति को नीति में बदल सकती हैं। समाज में स्त्रियों की भागीदारी जितनी बढ़ेगी, उतना ही पुराना पाखण्ड टूटेगा।

प्रभा जी को कैंसर का रोग था; परन्तु उन्होंने अपना दु:ख कभी दूसरों के सामने व्यक्त नहीं किया। वे सदा प्रसन्न रहतीं थीं। जब तक सम्भव हुआ, उन्होंने अपने पति जयप्रकाश जी का ध्यान रखा। 15 अपैल, 1973 को उनका देहान्त हो गया।


(साभार- पुस्तकः हर दिन पावन, लेखकः विजय कुमार, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ)

रहस्य लंबी उम्र का

इधर कुछ वर्षों से चाहे चिकित्सक हों या चुस्त-दुरूस्त रखने वाली दवाओं एवं टॉनिकों के निर्माताओं के सम्मोहक विज्ञापन अथवा वड़ी-बड़ी बीमा कम्पनियों के बीमांक या ‘एक्चुअरी’ जो विभिन्न आयु समूहों की औसत मृत्यु दर पर शोध के लिए मशहूर होते हैं, लगता है सिर्फ एक ही चर्चा में लीन है- दीर्घायु कैसे बनें?

यौवन, स्वास्थ्य, सौन्दर्य, लंबी आयु और अमरत्व- सदियों से मानव जाति इन प्रश्नों का उत्तर खोज रही हैं। पर आज तो स्वास्थ्य और सौन्दर्य की देशी-विदेशी पत्रिकाओं में तो नियमित रूप से सिर्फ इसी विषयवस्तु पर अधिक ध्यान दिया जाता है जिसमें लम्बी उम्र के लोगों के साक्षात्कारों द्वारा उनके स्वास्थ्य का रहस्य उजागर किया जाता है। एक रोचक बात यह है कि इस विषय पर समय-समय पर वयोवृद्ध लोगों से जब साक्षात्कार में उनकी लम्बी आयु का रहस्य पूछा जाता है तो उनके उत्तर भी मजेदार होते हैं क्योंकि लम्बी आयु पाने का कोई एक नुस्खा नहीं होता। उनके उत्तर बहुधा असमंजस में डाल देते हैं।

बोस्टन में रहने वाली 104 वर्षीय एन्जेजीन स्ट्रैन्डल से हाल में पूछा गया तो उन्होंने कहा- ‘मैं शाकाहारी हूं, शराब और सिगरेट छूती तक नहीं।' वे पिछली बार सन 1925 में बीमार पड़ी थी। हवार्ड मेडिसिन स्कूल के शोधकर्ताओं का कहना है कि 110 वर्ष से उपर के अनेक लोगों ने कहा कि वे कॉफी नहीं पीते क्योंकि वे इसे नुकसानदायक मानते थे। पर एक दूसरे वर्ग के अनुसार वे पिछले अनेक वर्षों से काफी पीते आ रहे हैं क्योंकि उनके डाक्टरों का कहना है कि इससे कैंसर की कोई संभावना नहीं होती। इसी तरह एक ओर कहा गया कि शराब त्याज्य है क्योंकि यह जहर है पर दूसरों का अनुभव यह है कि संयमित मात्रा में एक दो पेग लेने में कोई नुकसान नहीं बल्कि ‘लाल वाइन’ लेना स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। डाक्टरों का एक वर्ग सलाह देता है कि चाकलेट खाना हानिकारक है, दूसरा वर्ग कहता है कि कोको या काफी की काली चाकलेट का नियमित सेवन हृदय रोगों से दूर रखता है।


एक वयोवृद्ध से जब अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य पूछा गया तब उसने कहा कि मक्खन, नमक, तले भोजन व सिगरेट से बहुत दूर रहता है। रूस के काकेशस क्षेत्र जहां 100 से 125 वर्ष तक की आयु के 10,000 से अधिक लोग हैं, अधिकांश लोगों के साक्षात्कारों में यह तथ्य सामने आया कि वे दूध, अण्डे, सब्जियों और फलों का बहुत उपयोग करते हैं और ‘प्रोसेस्ड’ टिन के भोजन, बोतलों से भरे टमाटर सॉस और जंक फूड का कभी सेवन नहीं करते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात उनका रोज का कड़ा शारीरिक श्रम है।

दूसरे और कुछ लोगों का मानना है कि अपरान्ह में कुछ घंटे भोजन के बाद आराम करना, संध्या को एक दो पैग शराब पीना, मांसाहार व तनाव मुक्त रहने के कारण वे लम्बे वर्षों तक स्वस्थ रह सके। लम्बी आयु के संबंध में चिकित्सा विशेषज्ञों के एक दूसरे के काटने वाले परस्पर विरोधी तर्कों के सामने एक साधारण व्यक्ति क्या समझे, यह भी एक भ्रमपूर्ण स्थिति है। फिर भी विशेषज्ञों में एक बात पर आम सहमति है और वे मानते हैं कि लंबी उम्र के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व सदा प्रसन्नचित रहना है। इससे अधिकर और कोई फार्मूला कारगर नहीं हो सकता। दूसरी शर्त आपकी महत्वाकांक्षा है जिसकी वजह से जीवित रहने की अदम्य इच्छा कभी मंद नहीं पड़ती है।

इंग्लैण्ड में हाल ही में एक अध्ययन द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और सुखद वैवाहिक जीवन जिन्दगी के सालों को स्वतः बढ़ा देता है। दिन प्रतिदिन के संतुष्ट जीवन में छोटी-छोटी खुशियां, दोस्तों से मेल-मिलाप, छोटे शहर या गांव में रहना- इस तरह की जिन्दगी आपकी औसत आयु में 20 वर्ष जोड़ सकती है।

इन छोटी-छोटी बातों का स्वास्थ्य पर इतना गहरा प्रभाव पड़ता है कि कनाडा के कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि यदि कोई ट्रैफिक से भरपूर मुख्य मार्ग पर रहता है तब निरन्तर तनाव की वजह से उसकी आयु ढ़ाई वर्ष घट जाती है। जीवन शैली में कुछ छोटे बदलाव लाने से जीवन अवधि को आगे बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए चाय पीने की आदत कुल आयु में चार साल जोड़ सकती है।

हमारे जीवन के कुछ सामान्य पक्ष भी, जिन पर हमारा बस नहीं है, आयु निर्धारित करने में महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। महिला होना संभावित आयु के निर्धारण में फायदेमंद है। औरतों की औसत आयु पुरुषों से पांच साल अधिक है। मातृत्व तो और भी लाभकारी सिद्ध हो सकता है। वे लड़कियां जो 30 वर्ष की आयु के भीतर परिवार बसा लेती है उनको स्तन कैंसर होने की संभावना न के बराबर होती है।

अब तो बीमा कंपनियों के शोध के आंकड़ों के आधार पर आप अपनी जीवन अवधि का अंदाज स्वयं भी लगा सकते हैं। यदि आपके दादा-दादी 80 साल या अधिक आयु तक जीवित रहे तो आपकी अपनी संभावित आयु में 5 वर्ष जुड़ जाते हैं। यदि आपके माता-पिता या सगे भाई-बहन में कोई 50 वर्ष से कम आयु में हृदय रोग या कैंसर से मरता है तो अपनी आयु में चार साल घटा दीजिए।

जीवन शैली और कुछ निजी आदतें भी आपकी जीवन-अवधि का निर्धारण करती हैं। आयरलैण्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार समृद्ध और खुशहाल परिवार में जन्म लेना और किसी का शिक्षित होना या स्नातक होना भी आयु को प्रभावित करता है। इससे आयु में चार वर्ष अधिक बढ़ते हैं। इसी तरह यदि कोई साठ साल का है और फिर भी काम करता है तब उसकी सामान्य आयु में तीन वर्ष बढ़ जाते हैं। इसी तरह आज सभी डाक्टर कहते हैं कि दिन में दो कप चाय पीने की आदत में चमत्कारिक गुण छिपे हैं। पत्तियों के रसायन में कैंसर से लड़ने की क्षमता होती है और इसे चिकित्सक की शब्दावली में ‘एंटी-आक्सीडेंट’ माना जाता है।

पर जो लोग सादगी भरा कड़ा जीवन बीताते हैं, जिसमें शारीरिक श्रम या पैदल चलना भी शामिल है, उन्हें हताश होने की जरूरत नहीं है। अनेक डाक्टर मानते हैं कि यदि आपको जबर्दस्त भूख लगती है और कड़े परिश्रम के आप आदी हैं और रात में यदि आप घोड़े बेच कर सोते हैं तब इससे अच्छे स्वास्थ्य की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। जिस तरह खुशनुमा वैवाहिक जीवन से आयु के पांच वर्ष बढ़ सकते हैं, जो लोग शहर की तनावग्रस्त जिंदगी छोड़कर गांव में बस जाते हैं उनकी सामान्य आयु में आठ वर्षों का इजाफा हो जाता है। विशेषज्ञ इस बात पर एक मत हैं कि आज विभिन्न वर्ग के मेहनतकशों के अधिक स्वस्थ रहने की संभावना हैं क्योंकि प्रकृति आज भी उनके साथ है। सम्पन्न परिवार के लोगों की मानसिकता, जीवन शैली और रूझानों ने मानव को शारीरिक दोषों के अलावा दर्जनों प्रकार के मनोरोगों को जन्म दिया है जिसके लिए चिकित्सा क्षेत्र में नई चिंता व्याप्त है। उनके लिए प्रसन्नता, जिसे लंबी आयु की कुंजी कहा गया है, उस छोटी सी गौरय्या जैसी है जो आपकी खिड़की पर बैठी तो है पर आपको दिखती नहीं है।
हरिकृष्ण निगम ....................
http://www.vhv.org.in/story.aspx?aid=3275