गुरुवार, 1 सितंबर 2011

घर-घर का मंगल करने वाले गणपति 'बप्पा मोरया'

प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक उमाकांत केशव आपटे उपाख्य बाबासाहेब आपटे की विचारशीलता अद्भूत थी। उनका जन्म 28 अगस्त, सन् 1903 में हुआ था। सन् 1920 में वे संघ के संपर्क में आए और सन् 1931 में संघ के प्रथम प्रचारक बने। उनके अंदर पढने और उसे ह्दयंगम् कर उसका कुशल विवेचन करने की अनूठी ईश्वर प्रदत्त विशेषता थी जिसका उपयोग कर न केवल उन्होंने रा.स्व.संघ के कार्य को गति प्रदान की वरन् भारतीय जीवन-परंपरा के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने गजब का समाज-प्रबोधन किया। 26 जुलाई, सन् 1972 को उनका निधन हो गया। रा. स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह के अनुसार, भौतिक जीवन के 70 वर्ष वह पूर्ण नहीं कर पाए लेकिन कार्य इतना कर गए कि कोई 100 वर्ष में भी न कर सके।
ऐसी महान प्रतिभा की स्मृति में हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके प्रबोधनकारी विचारों को वेबपोर्टल के माध्यम से पुनर्प्रकाशित कर आधुनिक पीढ़ी को उनसे परिचित कराने में हमें अपार प्रसन्नता हो रही है। ये विचार कालजयी हैं, हमें न सिर्फ हमारे गौरवमयी अतीत से परिचित कराते हैं वरन् ये हमारा भविष्यपथ भी निर्धारित कर सकने में सक्षम हैं। प्रस्तुत है उनकी विचार श्रंखला पर आधारित आलेख-माला “भावार्थ चिन्तन-गणपति”- संपादक


भावार्थ चिन्तन-गणपति
हिन्दू समाज में अनंत देवी- देवताओं की उपासना प्रचलित है। हिन्दुओं के धार्मिक कार्यों का प्रारंभ गणेश-पूजन के द्वारा ही किया जाता है, क्योंकि गणेश जी मंगलमूर्ति हैं। वे विघ्न-विनाशक हैं। उनका पूजन न करने वाला हिन्दू ढूंढे से भी मिलना कठिन है। विशाल हिन्दु समाज के भिन्न-भिन्न मतावलंबियों में विभाजित होते हुए भी उसको एकत्व मे बांधकर रखने वाले जो कई सामर्थ्यशाली सूत्र हैं, उनमे गणेशपूजा भी एक प्रधानसूत्र है। गणेशजी को यह स्थान कैसे प्राप्त हुआ? इसके भीतर कौन सा रहस्य छिपा हुआ है? इन्हीं बातों पर हम विचार करेंगे।

शिव-पार्वती और उनके पुत्र गणेश व कार्तिकेय
गजमुख गणेश और षडानन कार्तिकेय, ये दोनों शिव-पार्वती के पुत्र हैं। शिव का अर्थ है कल्याण और पार्वती मूर्तिमती ज्ञान-लालसा हैं। अपने प्राचीन संस्कृत साहित्य में कितनी ही विद्याओं का और शास्त्रों का विवेचन शिव-पार्वती के संवादों के माध्यम से हुआ है। पार्वती प्रश्न करती हैं और शिव उसका उत्तर देते हैं।

शिवजी का जीवन तपस्यामय है। भूतमात्र की कल्याण-कामना से वे सर्वदा तप में लीन रहते हैं। बाह्य वेष की ओर उनका तनिक भी ध्यान नहीं हैं। अहर्निश कर्मरत रहने के कारण उनके पास सब प्रकार के ज्ञान का भण्डार हैं। वे बहुत भोले हैं। ठंडे दिमाग से सोचकर काम करना और सतर्कता से काम लेना वे जानते ही नहीं। उसी प्रकार हर बात में मर्यादापालन एवं तारतम्य के महत्त्व की वे तनिक भी चिंता नहीं करते। इसलिए कपटी शत्रुओं का बंदोबस्त वे कभी नहीं कर पाते। उसी प्रकार वे कई बार अन्तर्गत विकारों के अधीन भी हो जाते हैं। फिर भी उनके वैराग्य तथा ज्ञान पर मुग्ध होकर पार्वती उनको पाने के लिए तरसती हैं और अंत में उनको पाकर अपने को धन्य समझती हैं। उनकी भक्ति से संतुष्ट होकर शिवजी उनकी सब शंकाओं का समाधान करते हैं।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि शिव तत्व हैं और पार्वती व्यवहार। इस शिव-पार्वती मिलन का ही परिणाम है षडानन कार्तिकेय एवं गजानन गणेशजी का जन्म।


इन्हें भी देखें
खाली हाथ कैसे लौटा दें?
साहित्य और सांस्कृतिक एकता
तोमर सामंतों ने बचाई हिन्दू संस्कृति
घोड़े बेच कर सोना
एक टोकरी भर मिट्टी
बेकार से बेगार भली
दूसरा हिंद स्वराज लिखने की जरूरत

कार्तिकेय और गणेशजी के वाहन
कार्तिकेय अपनी सतर्कता के कारण देवताओं के सबसे श्रेष्ठ सेनापति हुए हैं। गणनापूर्वक व्यवस्थित कार्य करना गणेशजी का सहज स्वभाव हैं। किंतु शिवजी को वह पसंद नहीं। ध्येय-सिद्धि के लिए काम करने की शीघ्रता में व्यवस्थित काम करने के लिए सोचने और लोगों को अनुशासन सिखाने में समय बिताना वे आवश्यक तथा इष्ट नहीं समझते। अंततोगत्वा उस पद्धति से अधिक कार्य हो सकेगा, इस बात पर उनकी श्रद्धा ही नहीं है। परंतु पार्वती गणेशजी का पक्ष लेकर उनको बचाती हैं। फलत: गणेशजी अपने मार्ग पर आगे बढ़ पाते हैं। गणेशजी के कारण अंतर्गत परिस्थिति काबू में की जाती है और कार्तिकेय द्वारा कपटी शत्रुओं का बंदोबस्त किया जाता है। उनके वाहन उसका प्रमाण हैं। कार्तिकेय का वाहन मयूर है और गणेशजी का मूषक।

विशेष गुण दोषों के प्रतीक हैं वाहन
हमारे यहां भिन्न-भिन्न देवताओं के बड़े विचित्र-विचित्र वाहन बताए गये हैं। ब्रह्मदेव का वाहन हंस है। सरस्वती भी हंस-वाहिनी और मयूर-वाहिनी हैं। शिव का वाहन वृषभ है। काली या दुर्गा सिंहवासिनी हैं। विष्णु का वाहन गरुड़ है। इन्द्र हाथी पर सवारी करते हैं और लक्ष्मी का वाहन उलूक माना गया है।

सामान्य अनुभव से भी कहा जा सकता है कि कोई अपना वाहन उसी को निश्चित करेगा जिस पर वह पूरा नियंत्रण रख सके। जिसका नियमन करने की योग्यता तथा सिद्धता नहीं होगी, उसको वाहन बनाना व्यर्थ ही है।

यद्यपि उपरोक्त सारे वाहन जानवर ही बताये गये हैं। तथापि वे केवल जानवर ही नहीं है, वे विशेष गुणों या दोषों के प्रतीक भी हैं। दूसरे, वे सवारी करने वालों की उस योग्यता की ओर भी इशारा करते हैं जिसके अनुसार वे वाहनों से संबंधित गुणों और दोषों का नियमन और निराकरण करते हैं। वाहन में जो दोष हैं, उससे मुक्त, और जो गुण हैं उन्हीं को अधिक तत्परता से प्रकट करने वाला यदि कोई हो तभी वह वाहन पर सवारी कर सकेगा अन्यथा नहीं, यह बात स्पष्ट है। अर्थात् संबंधित गुण दोषों से युक्त मनुष्यों का नियमन और सुधार करना तथा उनके द्वारा सबकी उन्नति का कार्य करा लेना, यह भाव भी प्रकट होता है।

पुराणों मे कहा गया है कि ''जो कर्त्तव्य भावना से अनभिज्ञ तथा सब प्रकार के कर्मों से अपरिचित है, जिसको समयोचित सदाचार का भी ज्ञान नहीं है, वह मूर्ख वास्तव में पशु ही है। शिवजी को पशुपति कहते हैं, वह भी इसी अर्थ में। उनको महादेव भी कहते हैं। वह भी इसलिए कि समाज में प्राय: अधिकांश मनुष्य उपरोक्त परिभाषा के अंतर्गत गणना करने लायक ही होते हैं, जो महादेवी जी के सीधे- सादे तपस्यायुक्त किंतु अव्यवस्थित जीवन से प्रभावित तथा नियंत्रित होते रहते हैं। परिचित पशु-सृष्टि में इन गुणदोषों से युक्त बैल ही है। इसीलिए महादेवजी के वाहन के रूप में उसकी कल्पना की गई है।

हाथी अदूरदर्शी एवं बड़ा ताकतवर होता है। इन गुणों वाले लोगों से काम लेने वाला तथा उनका नियमन करने वला इन्द्र सहस्त्राक्ष है, राजा है। 'चारै: पश्यंति राजानो' इस वचन के अनुसार उसकी सहस्त्र आंखें उसके सहस्त्रों गुप्तचरों की सूचक हैं। गुप्तचरों से सर्वत्र के समाचार पाकर तदनुसार दक्षता एवं सतर्कता का व्यवहार इन्द्र रखता है। तभी तो वह अपने बलशाली किंतु अदूरदर्शी अनुयायियों को नेतृत्व कर सकता है और यशस्वी बन सकता है।

सिंह बड़ा साहसी एवं तेजस्वी होता है। ऐसे लोगो पर नियंत्रण रखकर उनका उपयोग करने वाली काली स्वयं भगवती-शक्ति कहलाती हैं। ‘सैनिक शक्ति का स्वामी बनना चाहते हो तो तेजस्वी लोगों का नियंत्रण करने की योग्यता संपादन करो’ यही भाव मानो उससे प्रकट होता है।

कार्तिकेय का वाहन मयूर है और सरस्वती भी मयूरवाहिनी है। जो लोग अनेक आंखों वाले अर्थात अतीव चतुर एवं दक्ष होते हैं तथा जो बहुत आकर्षक बहिरंग रखते हैं, ऐसे लोगों के भी हृदयों के भाव को तोड़कर उनका बंदोबस्त करना हो तो सब प्रकार के शस्त्र तथा शास्त्रों का ज्ञान होना आवश्यक है। ऐसा दक्ष एवं चतुर स्त्री-पुरुष ही सेनानी कहला सकता है तथा वही ऊंचे दर्जे का साहित्य-सेवी और कलोपासक भी हो सकता है। जो एकांगी ही नहीं वरन् सर्वांगीण ज्ञान रखता है वही प्रमुख कहलाने का अधिकारी है। यही भाव अंग्रेजी में सेनापति को 'जनरल' कहकर व्यक्त किया जाता है।

गरुड़ वेगवान होता है और उसकी दृष्टि अति तीक्ष्ण होती है। वह अपना घोंसला बहुत ऊंचे स्थान में बनाता है। दूर दृष्टि, उच्च-आकांक्षा रखने वाले एवं उत्कट भावना वाले लोगों पर जो नियंत्रण रखेगा ऐसा ही पुरुष इस संसार में लोकपालक राजा बन सकता हैं। यही तत्व 'नाविष्णु: पृथिवीपति:' इस वचन में प्रकट किया गया है।

भगवान् विष्णु अपना लोकपालन का कर्त्तव्य पूर्ण करने के निमित्त ही गणेश के रूप में प्रकट होकर मंगलमूर्ति और विघ्नहर्ता कहलाते हैं। इस रूप में उनका वाहन चूहा है जो बहुत क्रियाशील बुद्धिमान किंतु चौर्यकुशल होता है। समाज में जो चोर, डाकू, लुटेरे आदि दुर्वृत्ति के लोग होते हैं, उनका नियमन किये बिना समाज में सुख या संस्कृति का विकास कदापि संभव नहीं हो सकता।

सभ्य जीवन का प्रारंभ ही कानून और व्यवस्था से होता है। इसीलिए उस विभाग के अधिपति गणेशजी को मंगलमूर्ति, विघ्न-विनाशक कहते हैं और सभी सत्कर्मों के प्रारंभ में उनकी पूजा करने का विघ्न हमारे शास्त्रकारों ने बताया है। लोकपालन जिसका मुख्य कर्त्तव्य है, उस राजशक्ति का आविष्कार और परिचय, प्रधानत: नियम व सुव्यवस्था विभाग के रूप में ही सर्वत्र होता आया है। इसलिए गणेशजी को श्री विष्णु का अवतार कहना युक्तिसंगत ही हैं 'मूषक-वाहन' नाम की सार्थकता इसी प्रसंग में है।




गणपति-गजमुख का इतिहास
अब 'गण+पति' और 'गज+मुख' एवं तत्सम शब्दों का विचार कर लें। 'गण' धातु का अर्थ है गिनती करना। हर बात में बारीकी से सोचना हो, दक्षता के साथ काम करना हो, नाप-तौल कर बर्ताव करना हो तो बार-बार गिनती करनी पड़ेगी। इस प्रकार गणना करने का जिनको अभ्यास हो गया हो, ऐसे लोगों में संघ-भावना, परस्पर विश्वास, समानता, शील, अनुशासन आदि गुणों का होना स्वाभाविक है। इसलिए इन गुणों से युक्त व्यक्ति समूह को प्राचीन समय में 'गण' कहा जाता था।

ये गण बड़े कार्यक्षम और दुर्धर्ष होते हैं। इसीलिए चोर, लुटेरे आदि दुर्वृत्ति के लोगों का नियमन करते हुए समाज में शांतता एवं सुव्यवस्था बनाये रखने का काम इन गणों को सौंपा जाता था। गण अपना नायक चुनते थे। अपने में से कोई भी नायक हुआ, तो भी उसकी आज्ञा का पालन असूयारहित भाव से करना ही उनकी आदत थी। उनका चुनाव करने का अजीब ढंग था। गण के सब सदस्य एकत्र होते थे और हथिनी की सूंड में माला देकर उसको सभा में घुमाते थे। जिस किसी के गले में वह माला पड़ जाती थी, उसी को नायक माना जाता था। उसको गजमुख, गणनायक कहा जाता था। गजानन, गजवदन इत्यादि उसी के पर्यायवाची शब्द हैं।

गजानन गणपति का चरित्र गणेश पुराणादि ग्रंथों में सविस्तार वर्णित है। उसको पढ़ने से यह ध्यान में जाता है कि प्रत्येक अवतार में गणपति ने अतीव निर्लीभता और भोग विमुखता का ही परिचय दिया। अवतार-कार्य समाप्त होते ही उन्होंने अपना जीवन समाप्त कर लिया और अपने धाम को चले गये। इस कारण उसी प्रकार की एक परंपरा निर्माण हो गई। फलत: यह धारणा भी बढ़ने लगी कि गणेश केवल एक व्यक्ति ही नहीं वरन् एक तत्व है, एक विद्या है। उसका नाम गणेशविद्या रखा गया और उसके द्वारा समाज का प्रत्येक व्यक्ति चारित्र्यवान, निर्लोभी, अनुशासनबद्ध एवं कार्यक्षम बनाया जाने लगा। आज की परिभाषा में हम इसी को 'संगठन-शास्त्र' भी कह सकते हैं।

गणपति के द्वारा चलाई गई उक्त प्रथा प्राचीन काल में इतनी सर्वमान्य हो गई थी कि किसी को कोई गद्य या पद्य ग्रंथ भी लिखना हो तो उसके आरंभ में 'श्रीगणेशाय नम:' लिखा जाता था। यदि लड़कों की पढ़ाई प्रारंभ करनी हो तो उससे पहले 'श्रीगणेशाय नम:' लिखाया जाता था। संघटन-शास्त्र के मूल तत्वों का परिचय प्राप्त करने के बाद ही अन्यान्य शास्त्रों का अध्ययन तथा अध्यापन योग्य और उपयुक्त हो सकता है, यह भाव इससे स्पष्ट हो जाता है। इस संगठन शक्ति की प्रशंसा में स्तोत्र रचे गये जिनका सारांश है- ''यह सारा जीवन तुम्हारे कारण ही उत्पन्न होता है, तुम्हारे आधार पर ही चलता है, तुम्हीं सबके चैतन्य हो, तुम्हारे कारण ही ज्ञान-विज्ञान बढ़ सकते हैं, तुम्हीं हमारे रक्षक हो, तुम्हीं सब की रक्षा करने वाले हो। यही शाश्वत सत्य है, इसका ही हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं, संतति, संपत्ति, संस्कृति इन सब का मूल आधार तुम्हीं हो, इत्यादि।'' यह स्तोत्र आज भी प्रचलित है।



गणपति पूजा अर्थात् समाज-संगठन
इस प्रकार गणेशोपासना जब अखिल भारतवर्ष में सर्वत्र प्रचलित हो गयी और आधारभूत, प्राणभूत तत्व के रूप में देखी जाने लगी तब फिर उसका प्रचार बाहर भी होने लगा। इतिहास बतलाता है कि तुर्किस्तान, तिब्बत, चीन, जापान, लंका, जावा, सुमात्रा, श्याम, ब्रह्मदेश और सुदूर अमेरिका में भी पुराने समय में गणेशोपासना प्रचलित हो गयी थी। उन सभी स्थानों पर गणेशजी की मूर्तियां अब भी प्राप्त होती हैं। इससे यही दिखाई देता है कि उपरोक्त देशों में हमारे भारतीय विद्वानों ने जाकर सभ्य-जीवन की आदिस्वरूप यह गणेशपूजा उनको सिखाई होगी या उन देशों के लोग भारत में आकर सभ्य-जीवन के पाठ पढ़ते होंगे और उसकी प्रथम सीढ़ी, जो गणेशपूजा है, उसको साथ लेकर अपने देश में उसका प्रचार करते होंगे। आज भारत गणराज्य कहलाता है। अपने गुणों के कारण समाज में सब के श्रद्धापात्र बनने वाले गजमुख गणपति का आदर्श यदि आज हमारे सामने रहेगा तो ही भारत पहले जैसा कर्त्तव्य-परायण बनकर, तपस्या के बल पर पुनरपि जगद्गुरू कहला सकेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

thanks for visit my blog