बुधवार, 31 अगस्त 2011

क्रान्तिकारी वीर सावरकर की इच्छा-मृत्यु

स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी ने मृत्यु से दो वर्ष पूर्व 'आत्महत्या या आत्मसमर्पण' शीर्षक से एक लेख लिखा था। इस विषय से संबंधित अपना चिंतन उन्होंने इस लेख में स्पष्ट किया था। स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी का जीवन जिस प्रकार विलक्षण था, उसी प्रकार उनकी मृत्यु भी लोकोत्तर सिद्ध हुई। उनके मृत्यु की घटना भी अद्वितीय महत्व की रही। आधुनिक समय में अपने जीवन को स्वेच्छा से अनशन द्वारा समाप्त कर लेने वाला उनके समान कोई दूसरा नहीं हुआ। जिस प्रकार भारत में एक ही लोकमान्य हुए, देशबंधु भी एक ही हुए, उसी प्रकार स्वातंत्र्यवीर भी इस दृष्टि से वे अकेले ही गिने जायेंगे।

देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जीवन दिया और अंत में अपने ही प्रयत्न द्वारा स्वेच्छा से मृत्यु का भी वरण किया। जीवन कार्य संपन्न करने के लिए जब तक कार्य करना संभव रहा तब तक वे जिये, यहां तक कि अंदमान की काल कोठरी में भी साक्षात् मृत्यु यातना भोगते हुए वे जीवित रहे। और जब, उनका जीवन कार्य उन्हें समाप्त हुआ लगा, तब यद्यपि औषधि उपचार के सहारे वे कुछ वर्ष और भी जीवित रह सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसे जीवन का मोह त्यागकर अनशन द्वारा अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर ली। इस संबंध में उनका जो चिंतन था उसे उन्होंने उपर्युक्त लेख में अभिव्यक्त किया है। यद्यपि मेरे सामने इस समय वह लेख नहीं है फिर सभी लोगों को यह ज्ञात है कि उन्होंने उस लेख में ज्ञानेश्वर और एकनाथ आदि के श्रेष्ठ उदाहरण देकर अपनी विचारधारा स्पष्ट की है।

'आत्महत्या' अभारतीय
'आत्महत्या' शब्द यद्यपि भारतीय भाषाओं में काफी प्रचलित है तथापि मूलत: यह भारतीय नहीं। यह अंग्रेजी शब्द का ही अनुवाद है। संस्कृत ग्रंथों में देहत्याग के अर्थ में आत्महत्या शब्द उपयोग किया हुआ कहीं भी उपलब्ध नहीं है। पुनर्जन्म न मानने वाले पश्चिमी लोगों में आत्महत्या को एक पाप माना गया है। आत्महत्या का प्रयत्न करना एक अपराध समझा जाता है। वैसे यह ठीक भी है, क्योंकि परमात्मा ने जिस उददेश्य से यह मानव-जन्म दिया है, उसका विचार न करते हुए इस प्रकार जीवन का अंत करना वास्तव में ईश्ररेच्छा के विपरीत व्यवहार करना ही है। परमात्मा ने जितनी आयु प्रदान की है, उतनी मनुष्य को जीना चाहिए। इस विचारधारा में गलत बात कोई नहीं है। भारतीय दण्ड विधान में इसी प्रकार की व्यवस्था है, जो अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित कानून व्यवस्था के माध्यम से आज भी रूढ़ है।

पश्चिमी देशों के लोगों में अन्य कितने ही दोष हैं, परंतु उनमें प्रत्येक विषय पर एक निश्चित पद्धति से अध्ययन करने का अभ्यास अवश्य है। उनकी इस अध्ययनशीलता की आदत में से अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं का उदय हुआ है। तदनुसार वहां संस्थाएं बनी हैं। उदाहरणार्थ आत्महत्या प्रतिबंधक समितियां हैं, वृद्धाश्रम स्थापित हैं और असह्य जीवन होने पर मृत्यु प्राप्त करने की व्यवस्था भी है। जब किसी असह्य और असाध्य रोग से ग्रसित रोगी इच्छा व्यक्त करता है तो रोगी को मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में इंजैक्शन देकर रोग के कष्ट से मुक्त करने याने समाप्त करने की प्रथा वहां है। कहा जाता है कि पश्चिमी देशों में भारत की तुलना में आत्महत्या का प्रमाण बहुत अधिक है। परंतु हमारे यहां कोई भी ऐसा नहीं समझता कि इस विषय का गंभीर अध्ययन करना चाहिए।

आधुनिक काल में हमारे यहां आत्महत्या शब्द का उच्चारण करते ही सामान्यत: विषाद, बेचैनी तथा घृणा से मन भर जाता है। इसका कारण यह है कि आत्महत्या करने वाले मनुष्यों के जो उदाहरण आंखों के सामने आते हैं, उनमें बहुधा लोग तरुण आयु के ही रहते हैं। कोई परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण किसी जलाशय में कूद कर अपना जीवन समाप्त कर लेता है, कोई प्रेमभंग होने पर विष खा लेता है अथवा कोई व्यक्ति लाख दो लाख रुपयों का भ्रष्टाचार करता है और जब उसकी पोल खुलती है तब वह अपनी संपत्ति रिश्तेदारों में बांट देता है। इसके बाद इस मामले में आने वाली यंत्रणा और शारीरिक कष्टों से घबड़ा कर अपना जीवन समाप्त कर लेता है। इस प्रकार के कार्यों के प्रति घृणा निर्माण होना अत्यंत स्वाभाविक है।

जीवन श्रेष्ठ धरोहर
मनुष्य का जन्म नर से नारायण बनने के लिए प्राप्त हुआ है। इस हेतु आवश्यक साधना इस भौतिक देह द्वारा ही संभव है। यही कारण है कि मानव-जन्म की इतनी महिमा भारतीय परंपरा में गायी गयी है। परंतु मोक्ष की ओर आवश्यक साधनरूप इस शरीर को उपयुक्त और समर्थ बनाने के लिए मनुष्य की समाज के बहुत से ऋण चुकाने पड़ते हैं। इन सामाजिक ऋणों को उतारने अथवा उतारने का प्रयत्न करने के बाद भी यदि शरीर अनुकूल स्थिति में रह सका तो मनुष्य अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साधन-भजन करने हेतु निश्चित हो सकता है। ऋण उतारने की यह कल्पना ही मनुष्य को पशु से भिन्न और ऊंचा स्तर प्रदान करने वाली बात है।

यदि कोई व्यक्ति इन सामाजिक ऋणों की पूर्ति किये बिना ही तरुण आयु में अपने जीवन को समाप्त करने का प्रयत्न करता है तो वह अतीव अनिष्टकारी बात है। तरुण आयु में ही जीवन से निराश होकर जीवन-लीला समाप्त करने का कार्य चोरी करने जैसा ही पाप कर्म है। इसमें कोई शंका नहीं कि यह अपराध है। इस प्रकार का विवेकपूर्ण विचार स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने अपने उपरोक्त लेख के माध्यम से बताया है। परंतु सावरकर जी के इस लेख की समाज में कहीं कोई गंभीर चर्चा हुई दिखाई नहीं देती। फिर उनके द्वारा निर्देशित विवेक के आधार पर कोई अधिक विस्तृत ग्रंथ लिखने का कार्य तो हो ही नहीं सकता।

देहत्याग-पुण्य?
जिन लोगों को अपनी प्राचीन परंपरा की जानकारी है, उन्हें देह को कष्ट देने वाली बात परिचित होगी। इस संबंध में आज प्रचलित धारणा बहुत विचित्र स्वरूप् प्राप्त कर चुकी है। ज्ञानेश्वर महाराज के माता-पिता ने तीर्थ-राज प्रयाग के गंगा-यमुना संगम-स्थल पर जाकर अपना देह विसर्जन किया। आज की प्रचलित धारणा के अनुसार यह कार्य आत्महत्या जैसा ही समझा जायेगा। परंतु प्राचीन भारत में स्थापित परंपरा के अनुसार स्वेच्छा से देह त्याग करने को अपराध नहीं माना जाता था। ऐसी धारणा समाज में रूढ़ थी कि यदि देहत्याग का उद्देश्य खराब हो, तभी उसे पापकर्म मानना, अन्यथा नहीं। उस समय लोग यात्रा करते हुए अपने जीवन की सफलता का परमोच्च-शिखर समझकर हिमालय पर एक विशिष्ट स्थान से नीचे कूदकर देहत्याग करते थे। भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित होने के बाद इस प्रथा को प्रतिबंधित किया गया। सती प्रथा में भी जीवन की सफलता का एक ऐसा ही उद्देश्य छिपा था। बाद में इस प्रथा में खराबी आई और यह प्रथा अंतत: सकारण बंद कर दी गई।

वेदों में कहा गया है 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समा:' याने कर्म करते करते सौ वर्ष जीवित रहने की इच्छा रखना चाहिए। परंतु धर्म ग्रंथों में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि केवल अन्न पचाते हुए इन्द्रिय भोगों का उपभोग करने की असक्ति से जीवित रहो। इस प्रकार जीवन जीने और आयु बिताने को श्रेष्ठ मानने का कोई कारण ही नहीं है।

इसीलिए समाज के ऋण को उतारने का जीवन में यथाशक्ति प्रयत्न कर लेने के बाद यदि शरीर साथ नहीं देता तो जो भी साधन ठीक हो, उसके द्वारा जीवनयात्रा समाप्त करने की बात में भला कौन सी गलती है? बिस्तर पर पड़े पड़े जीवन जीने, मल और गंदगी में लिपटे रहने, दूसरों के लिए अनुपयोगी और स्वयं अपने लिए भार स्वरूप होते हुए भी इन्द्रियों के भोग की कभी न शांत होने वाली आसक्ति से चिपटे रहने तथा ऐसा करते-करते टांगें फटकार-फटकार कर एक रोज समाप्त हो जाने में भला कौन सी अच्छाई है? परंतु फिर भी क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि अपने समाज में 70 या 80 प्रतिशत मनुष्य इसी प्रकार की मृत्यु स्वीकार करते हैं?

एकाएक हृदय-क्रिया बंद पड़ने पर मरने वालों की संख्या संबंध में अपवाद मानी जा सकती है। परंतु उनकी संख्या कम ही है। और देश धर्म के लिए निर्भयतापूर्वक संघर्ष करते हुए बलिदान होने वाले लोग तो बिल्कुल इने-गिने ही मिलेंगे। अंतिम स्थिति में इन दोनों प्रकार की अवस्था में जो मृत्यु प्राप्त होती है उस पर किसी का कोई वश नहीं कहा जा सकता। परंतु जिन 70-80 प्रतिशत लोगों का ऊपर उल्लेख किया गया है, वे यदि चाहें तो सार्थक जीवन के साथ समाधानकारक मृत्यु प्राप्त करने का मार्ग अपना सकते हैं इसीलिए यहां यह विचार उपस्थित होता है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने इन लोगों के लिए क्या कोई उचित मार्गदर्शन किया है?

मातृभूमि सेवा के लिए आत्मसमर्पण
इस स्थान पर सावरकर जी द्वारा उपयोग में लाये गये शब्द 'आत्मसमर्पण' की चर्चा करना उपयुक्त होगा है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने अपनी किशोरावस्था में ही यह संकल्प किया था कि अपने जीवन की समस्त शक्ति मातृभूमि की सेवा के लिए लगाना है। और उन्होंने इसी समर्पण भाव से 50-60 वर्ष तक कार्य किया। जीवन में पूरी तरह खिला हुआ यौवन रूपी पुष्प उन्होंने मातृभूमि की सेवा में चढ़ाया है। परमात्मा के कार्य में अपने जीवन की संपूर्ण मातृभूमि की सेवा में चढ़ाया है। परमात्मा के कार्य में अपने जीवन की संपूर्ण शक्ति-बुद्धि अर्पित की। ऐसा करने के बाद वह यौवनपुष्प कुम्हला गया। कुम्हलाये हुए पुष्प का समर्पण भला किस प्रकार किया जा सकता है? उसका तो विसर्जन करना ही योग्य है। इस हेतु जीवन विसर्जित करने की क्रिया को 'आत्मसमर्पण' कहना कदापि योग्य नहीं है।

आजकल 'आत्मसमर्पण' शब्द का रूढ़ अर्थ समाचार पत्रों में एक विशेष अर्थ से संबंधित हुआ दिखाई देता है। पुलिस किसी व्यक्ति की खोज में रहती है, वह व्यक्ति पुलिस के सामने यदि स्वयं उपस्थित हो जाता है, तो आजकल की भाषा में इस कार्य के लिए 'आत्मसमर्पण' शब्द का उपयोग किया जाता है। यह अंग्रेजी शब्द 'सरेन्डर' का अनुवाद है। परंतु मृत्यु कोई पुलिस तो नहीं है और न ही मृत्यु अपने आप में कोई महान् लक्ष्य है। मृत्यु तो एक कपड़ा उतारकर दूसरा पहनने की कोठरी है। जिस प्रकार गंदे हुए कपड़े को मां उतार लेती है और दूसरे सुंदर वस्त्र पहिना देती है, उसी प्रकार मृत्यु भी परम दयामय है। परंतु कभी-कभी मां किसी काम में बहुत व्यस्त रहे और पुत्र खुद हठ धारण कर नवीन कपड़े पहन ले, तब उसमें अनौचित्य भले ही हो, पाप कदापि नहीं है। कहने का अर्थ यह है कि संबंधित विवेचन में आत्महत्या शब्द का प्रयोग करना सर्वथा गलत बात है।

योग-मृत्यु
प्राचीन काल में ब्राह्मण और उसी प्रकार क्षत्रिय भी योग द्वारा देहत्याग करते थे। उन्हें बिछौने पर पड़े मृत्यु वरण करना सर्वथा त्याज्य मालूम होता था 'अनायासेन मरणं विनोदेनैव जीवनम्' यह भाग्यवानों का लक्षण माना जाता था। परंतु आज हम देखते हैं कि संपूर्ण जीवनभर दूसरों की टहलचाकरी करते हुए और तदुपरांत अत्यंत कष्टमय जीवन लंबे समय तक भोगने के बाद घिस-घिस कर लोग मरते हैं। मृत्यु को महाभयंकर एवं अशुभ माना जाता हैं। यदि किसी ने अपने जीवन में निश्चित कर्त्तव्य निभा पाने में शरीर को असमर्थ पाकर स्वेच्छा से शरीर-त्याग किया तो उसके इस कार्य को आत्महत्या जैसे घृणोत्पादक शब्द से पुकारा जाता है।

समाज की इस स्थिति को देखकर ही स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने अपने जन्मजात धैर्ययुक्त स्वभाव से इसविषय की तर्कशुद्ध चर्चा की और वैदिक तत्वज्ञान को प्रकाशित किया। सावरकर जी का यह कार्य न केवल उल्लेखनीय है वरन् अच्छी प्रकार से अध्ययन करने लायक भी है। उनके इस लेख का विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने और समाज की परिस्थिति के साथ उस विचार की दूरी आंकने से संबंधित विषय के जो विभिन्न पहलू हैं, उन सबका विस्तारपूर्वक विवेचन करने बैठें तो एक मोटा ग्रंथ तैयार हो सकता है। कोई व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक यदि ऐसा ग्रंथ तैयार करे तो साहित्य में उल्लेखनीय उपलब्धि हो सकेगी, क्योंकि यह विषय ऐसा है कि जिसकी चर्चा संपूर्ण विश्वभर में हो सकती है।

सावरकर जी को यह बात भलीभांति मालूम थी कि मृत्यु सुखद और सुलभ नहीं है। इस विचार को उन्होंने अपने द्वारा रचित गोमांतक काव्य में एक स्थान पर इस प्रकार प्रकट किया है-


सोडिलाहि परि केंव्हां श्वास अंतिम ना सुटे।
जीव दु:खार्थ लोकांचा जावया बहुधा हटे॥

इसलिए जीवन के साथ-साथ मृत्यु के इस मूलभूत महत्व की ओर सभी लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए उनके द्वारा लिखित इस उपेक्षित लेख का स्मरण करने का प्रयत्न यहां किया गया है। इस संबंध में श्रेष्ठ विचारकों द्वारा यदि अधिक चिंतन, मनन हो तो वह योग्य साहस का कार्य होगा।
(संदर्भ- मृत्युंजय भारत, लेखक- उमाकांत केशव आपटे, सुरुचि साहित्य, नई दिल्ली)




उमाकांत केशव आपटे: परिचय
प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक उमाकांत केशव आपटे उपाख्य बाबासाहेब आपटे की विचारशीलता अद्भूत थी। उनका जन्म 28 अगस्त, सन् 1903 में हुआ था। सन् 1920 में वे संघ के संपर्क में आए और सन् 1931 में संघ के प्रथम प्रचारक बने। उनके अंदर पढने और उसे ह्दयंगम् कर उसका कुशल विवेचन करने की अनूठी ईश्वर प्रदत्त विशेषता थी जिसका उपयोग कर न केवल उन्होंने रा.स्व.संघ के कार्य को गति प्रदान की वरन् भारतीय जीवन-परंपरा के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने गजब का समाज-प्रबोधन किया। 26 जुलाई, सन् 1972 को उनका निधन हो गया। रा. स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह के अनुसार, भौतिक जीवन के 70 वर्ष वह पूर्ण नहीं कर पाए लेकिन कार्य इतना कर गए कि कोई 100 वर्ष में भी न कर सके।

ऐसी महान प्रतिभा की स्मृति में हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके प्रबोधनकारी विचारों को वेबपोर्टल के माध्यम से पुनर्प्रकाशित कर आधुनिक पीढ़ी को उनसे परिचित कराने में हमें अपार प्रसन्नता हो रही है। ये विचार कालजयी हैं, हमें न सिर्फ हमारे गौरवमयी अतीत से परिचित कराते हैं वरन् ये हमारा भविष्यपथ भी निर्धारित कर सकने में सक्षम हैं- संपादक।

कुम्भ में रखी गई थी प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन की नींव

साधु-संतों के मार्गदर्शन में समाज की मनीषा के मिलन और एकत्रीकरण का उत्सव है कुम्भ महापर्व। पौराणिक काल से चली आ रही कुम्भ महोत्सव की परम्परा आज भी जारी है। समाज के उत्थान के लिए क्या अनुकरणीय है, इस पर कुम्भ में आए संत और मनीषी हमेशा से विचार करते आए है। हरिद्वार में हुए कुम्भ पर्वों की श्रृंखला में 1855 और 1915 के कुम्भ पर्वों का विशेष महत्व है।

1855 का कुम्भ भारतीय स्वाधीनता के आन्दोलन में मील का पत्थर साबित हुआ, जहां प्रथम स्वाधीनता संग्राम की नींव रखी गई। वहीं 1915 के कुम्भ पर आजादी की लड़ाई के महानायक मोहनदास करमचंद गांधी को ''महात्मा'' की उपाधि से विभूषित किया गया। 1915 के कुम्भ पर ही गांधीजी ने आहार में दिन में केवल पांच वस्तुएं लेने तथा सूर्यास्त के पश्चात् भोजन न करने का व्रत भी लिया था।



अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1857 में हुए प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों का विद्रोह कहा। मात्र कुछ सिपाहियों का अंग्रेजी अफसरों के खिलाफ विद्रोह नहीं बल्कि एक सुनियोजित आन्दोलन की शुरूआत थी, जिसकी रूपरेखा 1855 के हरिद्वार के कुम्भ में बनाई गई थी। 1857 की यह चिंगारी बाद में शोला बनकर आजादी की लड़ाई के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई।

1855 के कुम्भ में हरिद्वार में चंडी पर्वत की उपत्यका में दशनाम संन्यासियों के एक डेरे पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की अगुवाई करने वाले प्रमुख नेता हुए थे। इन नेताओं में नाना साहब धुंधुपंत, बाला साहब पेशवा, तांत्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब के सहायक अजीमुल्ला खां तथा जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह शामिल थे। इन सभी ने डेरे पर मौजूद ''दस्स बाबा''(स्वामी पूर्णानन्द) की प्रेरणा और मार्गदर्शन में स्वाधीनता संग्राम की योजना बनाई थी। यहीं पर सैनिकों में गुप्त संदेश पहुंचाने के लिए ''कमल का फूल'' तथा आम जनता के बीच इसी कार्य के लिए ''रोटी'' को प्रतीक रूप में अपनाने का निर्णय हुआ था।

कुम्भ के अवसर पर हजारों साधु-संन्यासी हरिद्वार में एकत्रित थे। जिनकी श्रद्धा और समर्पण वयोवृद्ध दस्स बाबा के प्रति थी। अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह की योजना बनाने में इनकी प्रमुख भूमिका थी। स्वामी पूर्णानन्द को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने की प्रेरणा उन्हें उनके गुरू स्वामी ओमानन्द से मिली थी। विद्रोह की योजना के निर्धारण के समय स्वामी विरजानन्द तथा उनके शिष्य दयानंद जो उस समय दशनाम संन्यासी थे और जिन्होंने बाद में आर्य समाज की स्थापना की, भी मौजूद थे।


इसी कुम्भ में तय हुआ था कि साधु-संत योजनाबद्ध तरीके से समाज के बीच जाकर संगठन और स्वाधीनता का मंत्र फूंकने का काम करेंगे ताकि अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष करने में नाना साहब आदि नायकों की सहायता हो सके। इस योजना का क्रियात्मक रूप यह था कि साधु-संत अंग्रेजी छावनियों में जाकर ''कमल'' पुष्प के द्वारा भारतीय सैनिकों में तथा ''रोटी'' के द्वारा आम जनता में अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह का संदेश पहुंचाएं और उन्हें क्रूर ब्रिटिश हुकूमत का अंत करने की प्रेरणा दें। गुप्त बैठक में स्वामीजी ने साधुओं से कहा था कि वे उत्तर में मेरठ, दक्षिण में मेल्लोर तथा पूरब में बारिकपुर की तरफ तत्काल कूच कर दें और दिल्ली में त्रिशूल बाबा से सम्पर्क बनाए रखें।

दस्स बाबा ने अपने संन्यासी शिष्यों को कई पत्र भी दिए थे। देश के अनेक राजा-रजवाड़ों को लिखे इन पत्रों में संदेश था कि वे अंग्रेजों के खिलाफ शुरू होने वाले आन्दोलन में सहकार करें। विद्रोह की अलख जगाने वाले साधु-संन्यासियों में स्वामी दयानन्द, सीताराम बाबा, दीनदयाल, त्रिपति के शिवराम बाबा तथा त्रिशूल बाबा आदि का प्रमुख स्थान है। इनके नेतृत्व में अनेक संन्यासी देश के लिए अलग-अलग भागों में घूमकर स्वाधीनता के लिए समर्पण का मंत्र सिपाहियों और आम लोगों को आजादी के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देते थे।

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि स्वाधीनता संग्राम को लेकर हिन्दू, मुसलमान को लेकर कहीं कोई भेद-भाव नहीं था। ऐसी एक पंचायत 1855 कुम्भ के बाद हरिद्वार में हुई थी जिसमें बहादुर शाह जफर के पुत्र फिरोज शाह, राव साहब मराठा (नाना साहब), बाला साहब मराठा, रंग बाबू, अजीमुल्ला खां तथा रमजान बेग की उपस्थिति का जिक्र है।

कुम्भ में बनी योजना का विस्फोट 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में हुआ। इस संग्राम में नाना साहब, तांत्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई के अलावा दशनाम परम्परा के अखाड़ों के नागा संन्यासी भी अंग्रेजी फौजों से जूझे थे।

श्रीराम जन्मभूमि का सच

यदि राष्ट्र की धारती अथवा राज्यसत्ता छिन जाए तो शौर्य उसे वापस ला सकता है, यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, परन्तु यदि राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य या परिश्रम उसे वापस नहीं ला सकता। इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने, भीषण विषम परिस्थितियों में, लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की पहचान को बनाए के लिए बलिदान दिए। इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाए रखने का प्रतीक है श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का संकल्प।

गौरवमयी अयोध्या की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है। अयोध्या का इतिहास भारत की संस्कृति का इतिहास है। अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही, इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिशचन्द्र जैसे महापुरुष उत्पन्न हुए। इसी महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ।

पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है। गौतम बुद्ध की तपःस्थली दंत धावन कुण्ड भी अयोधया की ही धारोहर है। गुरुनानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था, दर्शन किए थे। अयोध्या में ब्रह्मकुण्ड गुरूद्वारा है।

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का जन्मस्थान होने के कारण पावन सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में अयोध्या विख्यात है। विश्व प्रसिद्ध स्विट्स्बर्ग एटलस में वैदिक कालीन, पुराण व महाभारत कालीन तथा 8वीं से 12वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के भारत के सांस्कृतिक मानचित्र मौजूद हैं। इन मानचित्रों में अयोध्या को धार्मिक नगरी के रूप में दर्शाया गया है। ये मानचित्र अयोध्या की प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं।

सरयु तट पर बने प्राचीन पक्के घाट शताब्दियों से भगवान श्रीराम का स्मरण कराते आ रहे हैं। श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक है। अयोध्या मन्दिरों की ही नगरी है। हजारों मन्दिर हैं, सभी राम के हैं। सभी सम्प्रदायों ने भी ये माना है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित अयोधया यही है।

आक्रमण का प्रतिकार
श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल मन्दिर खड़ा था। 1528 ईस्वी में धार्मिक असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी बाबर के क्रूर प्रहार ने जन्मभूमि पर खड़े सदियों पुराने मन्दिर को धवस्त कर दिया।

आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति मीरबांकी ने मन्दिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया। इस कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के मस्तक पर पराजय का कलंक लग गया। श्रीराम जन्मस्थान पर मन्दिर का पुन:निर्माण इस अपमान को धोने के लिए तथा हमारी आस्था की रक्षा के लिए भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने हेतु आवश्यक है।




इस स्थान को प्राप्त करने के लिए अवध का हिन्दू समाज 1528 ई. से ही निरन्तर संघर्ष करता आ रहा है। सन् 1528 से 1949 ई. तक जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए 76 युद्ध हुए। इस संघर्ष में भले ही समाज को पूर्ण सफलता नहीं मिली पर समाज ने कभी हिम्मत भी नहीं हारी।

आक्रमणकारियों को कभी चैन से बैठने नहीं दिया। बार-बार लड़ाई लड़कर जन्मभूमि पर अपना कब्जा जताते रहे। हर लड़ाई में जन्मभूमि को प्राप्त करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़े। 1934 ई. का संघर्ष तो जग जाहिर है, जब अयोध्या की जनता ने ढांचे को भारी नुकसान पहुँचाया था।

इन सभी संघर्षों में लाखों रामभक्तों ने अपना सर्वस्व समर्पण कर आहुतियाँ दी। 6 दिसम्बर 1992 की घटना इस सतत् संघर्ष की ही अन्तिम परिणिति है, जब गुलामी का प्रतीक तीन गुम्बद वाला मस्जिद जैसा ढांचा ढह गया और श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर के पुन:निर्माण का मार्ग खुल गया।

ढांचे की रचना तीन गुम्बदों वाले तथाकथित बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले इस ढांचे में सदैव प्रभु श्रीराम की पूजा-अर्चना होती रही। इसी ढांचे में काले रंग के कसौटी पत्थर के 14 खम्भे लगे थे, जिस पर हिन्दु धार्मिक चिन्ह उकेरे हुए थे। जो यह बताते थे कि पुराने मन्दिर के कुछ पत्थर मीरबांकी ने इस मस्जिदनुमा ढांचे के निर्माण में लगवाए।

यह भी तथ्य है कि वहाँ कोई मीनार नहीं थी, वजु करने के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। ढांचे के पूर्व दिशा में प्रवेशद्वार के बाहर एक चबूतरा था। इसे रामचबूतरा कहते हैं। इस पर प्रभु श्रीराम के विग्रह का पूजन अकबर के शासनकाल से होता चला आ रहा था। संपूर्ण परिसर एक चारदीवारी से घिरा था। प्रवेश द्वार एक ही था। इस परिसर की अधिकतम लंबाई 130 फीट तथा चौड़ाई 90 फीट थी। अर्थात् कुल क्षेत्रफल अधिकतम 12000 वर्गफीट था।

भ्रमणकारी पादरी की डायरी
श्रीराम जन्मभूमि पर बने मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है। फादर टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्तान्त इसका जीता-जागता उदाहरण है। आस्ट्रिया के इस पादरी ने 45 वर्षों तक (1740 से 1785) भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी। लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवध का वर्णन किया। उनकी डायरियों का फ्रैंच भाषा में अनुवाद 1786 ईस्वी में बर्लिन से प्रकाशित हुआ है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि अयोध्या के रामकोट मोहल्ले में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले कसौटी पत्थर के खम्भे लगे हैं, इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के साथ जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मन्दिर को बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू इस स्थान की परिक्रमा करते हैं, यहाँ साष्टांग दण्डवत् करते हैं।



भगवान का प्राकट्य
समाज की श्रद्धा और इस स्थान को प्राप्त करने के सतत् संघर्ष का एक रूप आजादी के बाद 22 दिसम्बर 1949 की रात्रि को देखने को मिला, जब ढांचे के अन्दर भगवान प्रकट हुए। पंडित जवाहर लाल नेहरू उस समय देश के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और फैजाबाद के जिलाधिकारी के.के. नायर एवं ओनरेरी मजिस्टे्रट ठाकुर गुरुदत्त सिंह थे। नायर साहब ने ढांचे के सामने की दीवार में लोहे के सींखचों वाला दरवाजा लगवाकर ताला डलवा दिया, भगवान की पूजा के लिए पुजारी नियुक्त हुआ। पुजारी रोज सबेरे-शाम भगवान की पूजा के लिए भीतर जाता था, भगवान् की पूजा-अर्चना करता था, भोग लगाता था, शयन व जागरण आरती करता था परन्तु जनता ताले के बाहर से पूजा करती थी। इस घटना के बाद अनेक श्रद्धालु वहाँ अखण्ड कीर्तन करने बैठ गए, जो 6 दिसम्बर 1992 तक उसी स्थान पर होता रहा।

ताला खुला
इसी ताले को खुलवाने का संकल्प सन्तों ने 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली के विज्ञान भवन में लिया। यही सभा प्रथम धर्मसंसद कहलाई। श्रीराम जानकी रथों के माधयम से व्यापक जन-जागरण हुआ। ताला खोलने के लिए फैजाबाद के ही एक अधिवक्ता ने जिला न्यायाधीश श्री के.एम. पाण्डेय के समक्ष प्रार्थना पत्र दे दिया। ताला लगाने का कारण खोजा गया। उत्तर मिला कि शांति व्यवस्था के नाम पर ताला लगा है। जिला प्रशासन से पूछा गया कि ताला खुलने पर आप शांति व्यवस्था बनाए रख सकते हैं अथवा नहीं? प्रशासन का उत्तर था ताले का शांति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं। अन्तंत: जिला न्यायाधीश ने 01 फरवरी 1986 को ताला खोलने का आदेश दे दिया। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री वीरबहादुर सिंह थे।

शिलापूजन व शिलान्यास
भावी मन्दिर का प्रारूप बनाया गया। अहमदाबाद के प्रसिद्ध मन्दिर निर्माण कला विशेषज्ञ श्री सी.बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया। मन्दिर निर्माण के लिए जनवरी 1989 में प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर पूज्य देवरहा बाबा की उपस्थिति में गांव-गांव में शिलापूजन कराने का निर्णय हुआ। पहला शिलापूजन बद्रीनाथधाम में जगद्गुरु शंकराचार्य ज्योतिषपीठाधीश्वर पूज्य स्वामी शांतानंद जी महाराज की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ।

पूज्य देवरहा बाबा ने शिलाओं को आशीर्वाद दिया। पौने तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोध्या पहुँची। विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके भारत भेजीं। पूर्व निर्धारित दिनांक 09 नवम्बर 1989 को सबकी सहमति से मन्दिर का शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर चौपाल के हाथों सम्पन्न हुआ। तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के गृहमंत्री श्री बूटा सिंह तथा प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे।

प्रथम कारसेवा
24 मई 1990 को हरिद्वार में हिन्दू सम्मेलन हुआ। सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान एकादशी (30 अक्टूबर 1990) को मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे। यह सन्देश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए 01 सितम्बर 1990 को अयोध्या में अरणी मंथन के द्वारा अग्नि प्रज्ज्वलित की गई, इसे 'रामज्योति' कहा गया। दीपावली 18 अक्टूबर 1990 के पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह ज्योति पहुँचा दी गई।

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने अहंकारपूर्ण घोषणा की कि 'अयोध्या में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता', उन्होंने अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर दीं, अयोध्या को जाने वाली सभी रेलगाड़ियाँ रद्द कर दी गईं। 22 अक्टूबर से अयोध्या छावनी में बदल गई।

फैजाबाद जिले की सीमा से श्रीराम जन्मभूमि तक पहुंचने के लिए पुलिस सुरक्षा के सात बैरियर पार करने पड़ते थे। फिर भी रामभक्तों ने 30 अक्टूबर को वानरों की भांति गुम्बदों पर चढ़कर झण्डा गाड़ दिया। सरकार ने 02 नवम्बर 1990 को भयंकर नरसंहार किया। कलकत्ता निवासी दो सगे भाइयों में से एक को मकान से खींचकर गोली मारी गई, छोटा भाई बचाव में आया तो उसे भी वहीं गोली मार दी। (कोठारी बन्धुओं का बलिदान)। कितने लोगों को मारा कोई गिनती नहीं। देशभर में रोष छा गया।

जन्मभूमि में प्रतिष्ठित प्रभु श्रीराम के दर्शन करके ही कारसेवक वापस लौटे। 40 दिन तक सत्याग्रह चला। कारसेवकों की अस्थियों का देशभर में पूजन हुआ। 14 जनवरी 1991 को अस्थियाँ माघ मेला के अवसर पर प्रयागराज संगम में प्रवाहित कर दी गईं। मन्दिर निर्माण का संकल्प और मजबूत हो गया।

विराट प्रदर्शन
04 अप्रैल 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर विशाल रैली हुई। देशभर से पच्चीस लाख रामभक्त दिल्ली पहुँचे। यह भारत के इतिहास की विशालतम रैली कहलाई। रैली में सन्तों की गर्जना हो रही थी तभी सूचना मिली कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। समतलीकरण उत्तर प्रदेश सरकार ने 2.77 एकड़ भूमि तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अधिग्रहण की। यह भूमि ऊबड़-खाबड़ थी। जून 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार जब इस भूमि का समतलीकरण करा रही थी, तब ढांचे के दक्षिणी-पूर्वी कोने की जमीन से अनेक पत्थर प्राप्त हुए, जिनमें शिव-पार्वती की खंडित मूर्ति, सूर्य के समान अर्ध कमल, मन्दिर के शिखर का आमलक, उत्कृष्ट नक्काशी वाले पत्थर व अन्य मूर्तियाँ थी। समाज में उत्साह छा गया। अनेकों इतिहासकार, पुरातत्वविद् उन अवशेषों को देखने अयोध्या पहुंच गए।

सर्वदेव अनुष्ठान व नींव ढलाई
09 जुलाई 1992 से 60 दिवसीय सर्वदेव अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। जन्मभूमि के ठीक सामने शिलान्यास स्थल से भावी मंदिर की नींव के चबूतरे की ढलाई भी प्रारंभ हुई। यह नींव 290 फीट लम्बी, 155 फीट चौडी और 2-2 फीट मोटी एक-के-ऊपर-एक तीन परत ढलाई करके कुल 6 फीट मोटी बननी थी। 15 दिनों तक नींव ढलाई का काम चला। थोड़ा ही काम हुआ था कि प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने संतों से चार महीने का समय मांगा और नींव ढलाई का काम बन्द करने का निवेदन किया। संतों ने प्रधानमंत्री की बात मान ली और वे जन्मभूमि के नैऋत्य कोण में कुछ दूरी पर बनने वाले शेषावतार मंदिर की नींव के निर्माण के काम में लग गए।



पादुका पूजन
नन्दीग्राम में भरत जी ने 14 वर्ष वनवासी रूप में रहकर अयोध्या का शासन भगवान की पादुकाओं के माध्यम से चलाया था, इसी स्थान पर 26 सितम्बर 1992 को श्रीराम पादुकाओं का पूजन हुआ। अक्टूबर मास में देश के गांव-गांव में इन पादुकाओं के पूजन द्वारा जन जागरण हुआ। रामभक्तों ने मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया।

कारसेवा का पुन: निर्णय
दिल्ली में 30 अक्टूबर 1992 को सन्त पुन: इकट्ठे हुए। यह पांचवीं धर्मसंसद थी। सन्तों ने फिर घोषणा की कि गीता जयन्ती (6 दिसम्बर 1992) से कारसेवा पुन: प्रारम्भ करेंगे। सन्तों के आवाह्न पर लाखों रामभक्त अयोध्या पहुँच गए। निर्धारित तिथि व समय पर रामभक्तों का रोष फूट पड़ा, जो ढांचे को समूल नष्ट करके ही शान्त हुआ।

ढांचे से शिलालेख मिला
6 दिसम्बर 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब उसकी दीवारों से एक पत्थर प्राप्त हुआ। विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख है, 1154 ईस्वी का संस्कृत में लिखा है, इसमें 20 पंक्तियाँ हैं। ऊँ नम: शिवाय से यह शिलालेख प्रारम्भ होता है। विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन है। अयोध्या के सौन्दर्य का वर्णन है। दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है। ये समस्त पुरातात्विक साक्ष्य उस स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल मन्दिर के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं।

संविधान निर्माताओं की दृष्टि में राम भारतीयों के लिए तो राम भगवान हैं, आदर्श हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। संविधान निर्माताओं ने भी जब संविधान की प्रथम प्रति का प्रकाशन किया तब भारत की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक प्राचीनता को दर्शाने के लिए संविधान की प्रति में तीसरे नम्बर पर प्रभु श्रीराम, माता जानकी व लक्ष्मण जी का उस समय का चित्र छापा जब वे लंका विजय के पश्चात् पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या को वापस आ रहे हैं। अत: ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान की रक्षा करना हमारा संवैधानिक दायित्व भी है।

अस्थायी मन्दिर का निर्माण
6 दिसम्बर 1992 को ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परम्परा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी। हजारों भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घण्टे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चारों कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी करके कपड़े लगा दिए, ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मन्दिर। आज भी इसी स्थान पर पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना है। कपड़े के इसी मंदिर को Make Shift मंदिर कहते हैं।

न्यायालय द्वारा दर्शन की पुन: अनुमति
08 दिसम्बर 1992 अतिप्रात: सम्पूर्ण अयोध्या में कर्फ्यू लगा दिया गया। परिसर केन्द्रीय सुरक्षा बलों के हाथ में चला गया। परन्तु केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भगवान की पूजा करते रहे। हरिशंकर जैन नाम के एक वकील ने उच्च न्यायालय में गुहार की कि भगवान भूखे हैं। राग, भोग व पूजन की अनुमति दी जाए। 01 जनवरी 1993 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति प्रदान की।

अधिग्रहण एवं दर्शन की पीड़ादायी प्रशासनिक व्यवस्था 07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। इस भूमि के चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं।

भगवान तक पहुंचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया, दर्शन करने जानेवालों की सघन तलाशी की जाने लगी। जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं। आधा मिनट भी ठहर नहीं सकते। वर्षा, शीत और धूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इन कठिनाइयों के कारण अतिवृद्ध भक्त दर्शन करने जा ही नहीं सकते। अपनी इच्छा के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते। जो प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर अन्दर जाना पड़ता है। दर्शन का समय ऐसा है मानो सरकारी दफ्तर हो। दर्शन की यह अवस्था अत्यन्त पीड़ादायी है। इस अवस्था में परिवर्तन लाना है।

हस्ताक्षर अभियान
वर्ष 1993 में दस करोड़ नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय को सौंपा गया था, जिसमें एक पंक्ति का संकल्प था कि 'आज जिस स्थान पर रामलला विराजमान हैं, वह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है, हमारी आस्था का प्रतीक है और वहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण करेंगे।'

भावी मन्दिर की तैयारी
श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो केवल पत्थरों से बनेगा। मन्दिर दो मंजिला होगा। भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम दरबार होगा। सिंहद्वार, नृत्य मण्डप, रंग मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग हैं। 270 फीट लम्बा, 135 फीट चौड़ा तथा 125 फीट ऊँचा शिखर है। 10 फीट चौड़ा परिक्रमा मार्ग है। 106 खम्भे हैं। 6 फीट मोटी पत्थरों की दीवारें लगेंगी। दरवाजों की चौखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी।

1993 से मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी गई। मन्दिर में लगने वाले पत्थरों की नक्काशी के लिए अयोध्या तथा राजस्थान के पिण्डवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं प्रारम्भ हुईं। अब तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर, भूतल पर लगने वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे, रंग मण्डप एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने वाली संगमरमर की चौखटों का निर्माण पूरा किया जा चुका है। खम्भों के ऊपर रखे जाने वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम तैयार हैं। मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है।

हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्ति नहीं है बल्कि हिन्दुओं के लिए श्रीराम जन्मभूमि आस्था है। भगवान की जन्मभूमि स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धाम है। रामभक्त इस धारती को मत्था टेकते हैं। यह विवाद सम्पत्ति का विवाद ही नहीं है। इस कारण यह अदालत का विषय नहीं है। अदालत आस्थाओं पर फैसले नहीं देती।

श्रीराम जन्मभूमि से सम्बन्धित मुकदमों का विवरण
23 दिसम्बर 1949 को ब्रह्ममुहूर्त में भगवान श्रीरामलला के प्राकट्य के पश्चात् श्रीराम भक्तों ने अदालत में अपने मूलभूत अधिकारों को लेकर वाद दायर किए। प्रथम वाद श्री गोपाल सिंह विशारद द्वारा सिविल जज फैजाबाद के यहां जनवरी 1950 में दायर किया गया। वाद में अदालत से प्रार्थना की गई कि वादी को भगवान के दर्शन, पूजन का अधिकार सुरक्षित रखा जाए। इसमें कोई बाधा अथवा विवाद उत्पन्न न करे साथ ही ऐसी निषेधाज्ञा जारी की जाए जिससे भगवान को कोई उनके वर्तमान स्थान से हटा न सके।

द्वितीय वाद परमहंस पूज्य रामचन्द्र दास जी महाराज द्वारा भी वर्ष 1950 में ही लगभग उपरोक्त भावना के अनुरूप ही दायर किया गया। यह वाद वर्ष 1990 में परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने वापस ले लिया था।

श्री गोपाल सिंह विशारद के वाद में निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने उनके पक्ष में अन्तरिम आदेश दे दिए तथा व्यवस्था के लिए एक रिसीवर नियुक्त कर दिया। इस अन्तरिम आदेश की पुष्टि अप्रैल 1955 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा कर दी गयी।

7 तृतीय वाद रामानन्द सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ा द्वारा 1959 में दायर करके मांग की गई कि रिसीवर को हटाकर जन्मस्थान मंदिर की पूजा व्यवस्था का अधिकार निर्मोही अखाड़े को दिया जाए।

चतुर्थ वाद सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड द्वारा दिसम्बर 1961 में दायर किया गया। इस वाद में मुस्लिमों ने भगवान के प्राकट्य स्थल को सार्वजनिक मस्जिद घोषित करने, पूजा सामग्री हटाने तथा परिसर का कब्जा सुन्नी वक्फ को सौंपे जाने की प्रार्थना की। साथ ही साथ जन्मभूमि के चारों ओर के भू-भाग को कब्रिस्तान घोषित करने की मांग की। परन्तु वर्ष 1996 में जन्मभूमि के चारों ओर की भूमि को कब्रिस्तान घोषित करने की अपनी प्रार्थना वापस ले ली।

पंचम वाद जुलाई 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) की ओर से स्वयं रामलला विराजमान तथा राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में दायर किया गया। सभी मुकदमें एक ही स्थान के लिए है अत: सबको एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश हो गया। विषय की नाजुकता को समझते हुए सभी मुकदमें जिला अदालत से उठाकर उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को दे दिए गए। दो हिन्दू और एक मुस्लिम न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ बनी।

महामहिम राष्ट्रपति का प्रश्न व उत्खनन से प्राप्त अवशेष ढांचा गिर जाने के बाद भारत सरकार द्वारा अधिग्रहीत की गई 67 एकड़ भूमि के अधिग्रहण के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में मुस्लिमों सहित अनेक प्रभावित लोगों ने याचिका दायर की। साथ ही साथ भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 143 के अन्तर्गत अपना एक प्रश्न प्रस्तुत किया और उसका उत्तर चाहा।

प्रश्न था कि ''क्या ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईसवी के पहले कोई हिन्दू मंदिर था?'' सर्वोच्च न्यायालय ने अधिग्रहण से संबंधित याचिकाओं तथा महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न पर लम्बी सुनवाई की। सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार के सॉलीसीटर जनरल से पूछा कि राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का मन्तव्य और अधिक स्पष्ट कीजिए। तब सॉलीसीटर जनरल श्री दीपांकर गुप्ता ने भारत सरकार की ओर से दिनांक 14 सितम्बर 1994 को सर्वोच्च न्यायालय में लिखित रूप से सरकार की नीति स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर सकारात्मक आता है अर्थात् ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईस्वी के पहले एक हिन्दू मंदिर/भवन था तो सरकार हिन्दू भावनाओं के अनुरूप कार्य करेगी और यदि उत्तर नकारात्मक आता है तो मुस्लिम भावनाओं के अनुरूप कार्य करेगी। अक्टूबर 1994 में न्यायालय ने अपना फैसला दिया और राष्ट्रपति महोदय का प्रश्न अनावश्यक बताते हुए सम्मानपूर्वक वापस कर दिया। विवादित 12 हजार वर्गफुट भूमि के अधिग्रहण को रद्द कर दिया, शेष भूमि के अधिग्रहण को स्वीकार कर लिया और कहा कि महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर तथा विवादित भूखण्ड के स्वामित्व का फैसला न्यायिक प्रक्रिया से उच्च न्यायालय द्वारा किया जायेगा।

इस प्रकार सभी वादों का निपटारा करने तथा राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर खोजने का दायित्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्डपीठ पर आ गया। (सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय 24 अक्टूबर 1994 को घोषित हुआ और इस्माइल फारूखी बनाम भारत सरकार के नाम से प्रसिद्ध है, जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है।)

यदि 1528 ई. में मन्दिर तोड़ा गया तो उसके अवशेष जमीन में जरूर दबे होंगे, यह खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से 2002 ई. में राडार तरंगों से जन्मभूमि के नीचे की फोटोग्राफी कराई। फोटो विशेषज्ञ कनाडा से आए, उन्होंने अपने निष्कर्ष में लिखा कि किसी भवन के अवशेष दूर-दूर तक दिखते हैं।

रिपोर्ट की पुष्टि के लिए खुदाई का आदेश हुआ। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने खुदाई की। खुदाई की रिपोर्ट फोटोग्राफी रिपोर्ट से मेल खा गयी। खुदाई में दीवारें, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, प्लास्टर, चार फर्श, दो पंक्तियों में पचास स्थानों पर खम्भों के नीचे की नींव की रचना मिली। एक शिव मंदिर प्राप्त हुआ। उत्खनन करने वाले विशेषज्ञों ने लिखा कि यहां कोई मंदिर कभी अवश्य रहा होगा। इस प्रकार राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर न्यायालय को मिल गया। अब सॉलीसीटर जनरल के माध्यम से भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया वचन अर्थात् अपनी नीति का पालन करना ही होगा। सभी तथ्य अदालत के रिकार्ड पर मौजूद हैं। उच्च न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है। अनुमान है कि सितम्बर के अन्त तक फैसला आएगा।

फैसला क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता। फैसला जो भी हो किसी एक पक्ष में असंतोष अवश्य फैलेगा। वह सर्वोच्च न्यायालय में जायेगा। वहां क्या होगा? वहां कब तक मामला लटकेगा? कहा नहीं जा सकता। अदालतों के निर्णयों के क्रियान्वयन का नैतिक बल सरकार के पास होगा या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है। लेकिन यह तय है कि जागरुक और स्वाभिमानी समाज अपने सम्मान की रक्षा अवश्य करेगा।

सही मार्ग तो यह है कि सोमनाथ मंदिर निर्माण की तर्ज पर संसद कानून बनाए और श्रीराम जन्मभूमि हिन्दू समाज को सौंप दे। इसी मार्ग से 1528 के अपमान का परिमार्जन माना जाएगा।

वार्तालाप का इतिहास
जब श्री चन्द्रशेखर सिंह जी प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने आपसी वार्तालाप का सुझाव दिया जो सभी ने स्वीकार किया। श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करके राम मन्दिर के पुनर्निर्माण का संघर्ष शताब्दियों से चलता आ रहा है। अनेकानेक पीढ़ियों ने इस संघर्ष में अपना योगदान किया है। इस स्थान को प्राप्त करने के लिए 76 बार लड़ाईयों का वर्णन इतिहास में दर्ज है। देश के अनेक बुद्धिजीवियों का यह मत है कि इस विषय का समाधान आपसी वार्तालाप अथवा न्यायिक प्रक्रिया द्वारा हो। इसी कारण विश्व हिन्दू परिषद ने वार्तालाप के सभी माधयमों द्वारा यह प्रयास किया कि भारत के मुस्लिम नेता हिन्दू समाज की आस्थाओं को समझें व आदर करें। अनुभव यह आया कि मुस्लिम नेतृत्व स्वयं अपनी ओर से, सदियों पुराने इस संघर्ष को समाप्त करके परस्पर विश्वास और सद्भाव का नया युग प्रारम्भ करने के लिए किसी प्रकार की पहल नहीं करते। द्विपक्षीय वार्ता में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई। वार्तालाप का विवरण निम्न प्रकार है:-

01 दिसम्बर 1990 को अखिल भारतीय बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सदस्यों के साथ विश्व हिन्दू परिषद के प्रतिनिधियों ने बिना किसी पूर्वाग्रह के वार्ता प्रारम्भ की। परिषद की ओर से श्री विष्णुहरि डालमिया, श्री बद्रीप्रसाद तोषनीवाल, श्री श्रीशचन्द्र दीक्षित, श्री मोरोपंत पिंगले, श्री कौशलकिशोर, श्री भानुप्रताप शुक्ल, आचार्य गिरिराज किशोर व श्री सूर्यकृष्ण उपस्थित रहे।

04 दिसम्बर 1990 को दूसरी बैठक में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र व राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री क्रमश: श्री मुलायम सिंह यादव, श्री शरद पवार व श्री भैरोंसिंह शेखावत भी उपस्थित रहे। इस बैठक में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के श्री जफरयाब जिलानी ने दावा किया कि:-

1. किसी भी हिन्दू मंदिर को तोड़कर उसी स्थल पर किसी मस्जिद के निर्माण के पक्ष में कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
2. ऐसा कोई भी पुरातात्विक अथवा ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्धा नहीं हैं जिससे यह ज्ञात हो कि मस्जिद निर्माण के पूर्व इसी स्थल पर खड़े किसी मंदिर को तोड़ा गया था। उन्होंने यह भी कहा कि विश्व हिन्दू परिषद का यह आन्दोलन एकदम नया है।
3. बैठक की कार्रवाई में यह दर्ज है कि कई मुस्लिम नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि बाबर कभी अयोध्या नहीं आया, फलत: उसके द्वारा मंदिर तोड़े जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
श्री मोरोपंत पिंगले ने सुझाव दिया था कि अगली बैठक में दोनों पक्षों की ओर से तीन-तीन चार-चार विशेषज्ञों को सम्मिलित किया जाए, वे ही अपने पक्ष के प्रमाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करें।
राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री भैरोंसिंह शेखावत ने सुझाव दिया था कि दोनों पक्षों के विशेषज्ञ इन प्रमाणों का परस्पर आदान-प्रदान करें और सत्यापन करें। इस पर श्री जिलानी साहब ने कहा कि पहले समिति के सदस्य आपस में साक्ष्य सत्यापन कर लें तब विशेषज्ञों का सहयोग लें। श्री पिंगले जी ने सुझाव दिया कि इस विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए एक समयसीमा निर्धारित कर ली जाए। इस पर निर्णय हुआ कि:-

1. दोनों पक्ष 22 दिसम्बर 1990 तक अपने साक्ष्य गृह राज्यमंत्री को उपलब्ध करायें।
2. मंत्री महोदय साक्ष्यों की प्रतिलिपियां सभी संबंधित व्यक्तियों को 25 दिसम्बर 1990 तक उपलब्ध करायें।
3. इन साक्ष्यों के सत्यापन के पश्चात् दोनों पक्ष पुन: 10 जनवरी 1991 को प्रात: 10.00 बजे मिलें।

द्विपक्षीय वार्ता का एक औपचारिक दस्तावेज गृह राज्य मंत्रालय के कार्यालय में तैयार हुआ। एक-दूसरे के साक्ष्यों का प्रत्युत्तर 06 जनवरी 1991 तक देना था। विश्व हिन्दू परिषद ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के दावों को निरस्त करते हुए अपना प्रतिउत्तर दिया। जबकि बाबरी कमेटी की ओर से केवल अपने पक्ष को और अधिक प्रमाणित करने के लिए कुछ अतिरिक्त साक्ष्यों की फोटोप्रतियां दी गईं। कोई भी प्रतिउत्तर नहीं दिया। बाबरी कमेटी की ओर से प्रतिउत्तर के अभाव में सरकार के लिए यह कठिन हो गया कि सहमति और असहमति के मुद्दे
कौन-कौन से हैं?

10 जनवरी 1991 को गुजरात भवन में बैठक हुई। अन्य प्रतिनिधियों के अतिरिक्त विश्व हिन्दू परिषद की ओर से विशेषज्ञ रूप में प्रो. बी.आर ग्रोवर, प्रो. देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल व डॉ. एस.पी. गुप्ता सम्मिलित हुए। यह तय किया गया कि प्रस्तुत दस्तावेजों को ऐतिहासिक, पुरातात्विक, राजस्व व विधि शीर्षक के अन्तर्गत वर्गीकरण कर लिया जाए। यह भी तय हुआ कि दोनों पक्ष अपने विशेषज्ञों के नाम देंगे जो संबंधित दस्तावेजों का अधययन करके 24 व 25 जनवरी 1991 को मिलेंगे और अपनी टिप्पणियों 05 फरवरी 1991 तक दे देंगे।

तत्पश्चात् दोनों पक्ष इन विशेषज्ञों की रिपोर्ट पर फिर से विचार करेंगे। बाबरी मस्जिद कमेटी ने अचानक पैंतरा बदलना शुरू कर दिया। कमेटी ने अपने विशेषज्ञों के नाम नहीं दिए। 18 जनवरी तक उन्होंने जो नाम दिए उसमें वे निरंतर परिवर्तन करते रहे। 24 जनवरी 1991 को जो विशेषज्ञ आए उनमें चार तो कमेटी की कार्यकारिणी के पदाधिकारी थे व डॉ. आर.एस. शर्मा, डॉ. डी.एन. झा, डॉ. सूरजभान व डॉ. एम. अतहर अली विशेषज्ञ थे। परिषद की ओर से न्यायमूर्ति गुमानमल लोढ़ा, न्यायमूर्ति देवकीनंदन अग्रवाल, न्यायमूर्ति धार्मवीर सहगल व वरिष्ठ अधिवक्ता वीरेन्द्र कुमार सिंह चौधरी सरीखे कानूनविद् तथा इतिहासकार के रूप में डॉ. हर्ष नारायण, श्री बी.आर. ग्रोवर, प्रो. के.एस. लाल, प्रो. बी.पी. सिन्हा, प्रो. देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल तथा पुरातत्वविद् डॉ. एस.पी. गुप्ता उपस्थित थे।

बैठक प्रारंभ होते ही बाबरी कमेटी के विशेषज्ञों ने कहा कि हम न तो कभी अयोध्या गए और न ही हमने साक्ष्यों का अध्ययन किया है। हमें कम से कम छ: सप्ताह का समय चाहिए। यह घटना 24 जनवरी 1991 की है।

25 जनवरी को बैठक में कमेटी के विशेषज्ञ आए ही नहीं। जबकि परिषद के प्रतिनिधि और विशेषज्ञ दो घण्टे तक उनकी प्रतीक्षा करते रहे। इसके पश्चात् की बैठक में भी ऐसा ही हुआ। अन्तत: वार्तालाप बन्द हो गयी।

यह विचारणीय है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने मुख्य मुद्दों का सामना करने की बजाए बैठक के बहिष्कार का रास्ता क्यों चुना? इसलिए आज वार्तालाप की बात करना कितना सार्थक होगा यह विचारणीय विषय है।

गुलामी के कलंक को मिटाने के लिए 1947 के बाद सरकार द्वारा किए गए कार्य
1. सोमनाथ मंदिर का जीर्णोंद्धार, सरदार वल्लभभाई पटेल (प्रथम गृहमंत्री, भारत सरकार), डॉ. के.एम. मुंशी, श्री काकासाहेब गाडगिल के प्रयत्नों से तथा महात्मा गांधी की सहमति व केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की स्वीकृति से 1950 में हुआ।
2. दिल्ली में इण्डिया गेट के अन्दर ब्रिटिश राज्यसत्ता के प्रतिनिधि किन्हीं जार्ज की खड़ी मूर्ति हटाई गई। सुना जाता है कि किसी आजादी के दीवाने ने इस मूर्ति की नाक तोड़ दी थी। भारत सरकार ने उसे हटवा दिया।
3. दिल्ली का चांदनी चौक, अयोध्या का तुलसी उद्यान व देश में जहां कहीं विक्टोरिया की मूर्तियां थीं, वे सब हटाईं।
4. भारत में जहां-जहां पार्कों के नाम कंपनी गार्डन थे वे सब बदल दिए गए और कहीं-कहीं उनका नाम गांधी पार्क हो गया।
5. अमृतसर से कलकत्ता तक की सड़क जी.टी. रोड़ कहलाती थी, उसका नाम बदला गया। बड़े-बड़े शहरों के माल रोड जहां केवल अंग्रेज ही घूमते थे उन सड़कों का नाम एम.जी. रोड कर दिया गया।
6. दिल्ली में मिण्टो ब्रिज को आज शिवाजी पुल के रूप में पहचाना जाता है।
7. दिल्ली स्थित इरविन हॉस्पिटल तथा बिलिंगटन हॉस्पिटल क्रमश: जयप्रकाश नारायण अस्पताल व डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल कहे जाते हैं।
8. कलकत्ता, बाम्बे, मद्रास के नाम बदलकर कोलकाता, मुम्बई व चेन्नई कर दिए गए।

श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करके उस पर खड़े कलंक के प्रतीक मस्जिद जैसे दिखनेवाले ढांचे को हटाकर भारत के लिए महापुरुष, मर्यादा पुरुषोत्तम, रामराज्य के संस्थापक, भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंशी प्रभु श्रीराम का मन्दिर पुनर्निर्माण का यह जनान्दोलन उपर्युक्त श्रृंखला का ही एक भाग है। हम विचारें यदि अंग्रेजों के प्रतीक हटाए जा सकते हैं क्योंकि उन्होंने इस देश को गुलाम बनाए रखा और उस गुलामी से मुक्त होने के लिए 1947 की पीढ़ी ने संघर्ष किया तो अंग्रेजों के पूर्व भारत पर आक्रमण करनेवाले विदेशियों के चिन्हों को क्यों नहीं हटाया जा सकता? क्या केवल इसलिए कि अंग्रेजों से संघर्ष
करने वाली पीढ़ी ने मुस्लिम आक्रमणकारियों से संघर्ष नहीं किया था।

गुलामी के कलंक को मिटाने के भारत के बाहर के उदाहरण
1. प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी द्वारा दिया गया उदाहरण इस शताब्दी के महान् इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी ने दिल्ली में आजाद मेमोरियल लेक्चर देते समय जो विचार व्यक्त किए थे, वे उल्लेखनीय हैं। यहां उसका मुख्य अंश उद्धृत किया जा रहा है:-

मैं बोल रहा हूं तो हमारी मन की आंखों के सामने कुछ स्पष्ट दृश्य-बिम्ब उमड़ रहे हैं। इनमें से एक मानसिक चित्र पोलैण्ड के वार्सा नगर के मुख्य चौक का 1620 के दशक के अन्तिम दिनों का है। वार्सा पर प्रथम रूसी अधिकार के समय (1614-15) रुसियों ने इस नगर के जो किसी समय स्वतंत्र रोमन कैथोलिक देश पोलैण्ड की राजधानी था, एक ईस्टर्न आर्थोडॉक्स क्रिश्चियन कैथेड्रल ने बनवाया था। रूसियों ने पोलिश लोगों को निरंतर यह दृश्यमान अहसास दिलाने के लिए यह कार्य किया था कि अब उनके स्वामी रूसी लोग हैं।

सन् 1618 में पोलैण्ड की स्वतंत्रता की पुनर्स्थापना के बाद पोलिश लोगों ने इस कैथड्रल को गिरा दिया था। यह विध्वंस कार्य हमारे वहां पहुंचने के एक दिन पूर्व ही किया गया था। इस कारण मैं पोलैण्ड की सरकार को इस रूसी चर्च को गिरा देने के कारण लांछित नहीं करता। जिस प्रयोजन के लिए रूसियों ने इसका निर्माण किया था वह धार्मिक न होकर राजनीतिक था और यह उद्देश्य भी जानबूझकर आहत करने वाला था। दूसरी ओर, भारत सरकार की इसलिए प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने औरंगजेब की मस्जिदों को नहीं ढहाया। मैं विशेष रुप से उन दो के विषय में सोच रहा हूं जिनमें से एक बनारस के घाटों पर बनी है, दूसरी मथुरा में कृष्ण के टीलों पर। इन तीनों मस्जिदों को बनाने में औरंगजेब का प्रयोजन जानबूझकर
आहत करने वाला वही राजनीतिक प्रयोजन था जिसने रूसियों को वार्सा के केन्द्र में आर्थोडॉक्स कैथड्रल बनाने के लिए प्रेरित किया था। ये तीनों मस्जिदें यह घोषित करने के लिए बनवाई गई थीं कि इस्लामी सरकार सर्वोच्च है, यहां तक कि हिन्दुओं के पवित्रतम स्थानों के लिए भी है।

2. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा दिया गया रूस का उदाहरण 'सन् 1968 के जून-जुलाई में हमारा पार्लियामेन्ट्री प्रतिनिधिमण्डल उस समय के लोकसभा के सभापति मान्यवर नीलम संजीव जी रेड्डी के नेतृत्व में रूस गया था। उस दौरे में रसियन लोग हमें पेट्रोग्रेड में स्थित जार का विन्टर पैलेस दिखाने के लिए ले गए थे। कम्युनिस्टों के हाथ में सत्ता आने के पश्चात् उन्होंने इस विन्टर पैलेस को एक पर्यटक केन्द्र बनाया था। पैलेस का पूर्ण स्वरूप पुराना होते हुए भी बहुत प्रभावशाली था। उसमें भ्रमण करते समय हम लोगों के धयान में एक विसंगत बात आई। पूरा पैलेस पुराना था, किन्तु कुछ मूर्तियाँ नई-नई प्रतीत होती थीं। उनके विषय में हमने पूछताछ की। हमें बताया गया कि वे मूर्तियाँ ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। जैसे जूपीटर, वीनस आदि और दूसरे महायुद्ध के पश्चात् रसियन कम्युनिस्ट सरकार ने उनका पुनर्निर्माण क्यों किया? हम में से एक ने पूछा कि आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, नास्तिक हैं। फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों का पुनर्निर्माण क्यों किया? उन्होंने बताया कि हम घोर नास्तिक हैं। हमारी श्रद्धा है कि भगवान यह एक धोखा है, किन्तु मूर्तियों के पुनर्निर्माण का सम्बन्धा हमारी आस्तिकता-नास्तिकता से नहीं है। दूसरे महायुद्ध में हिटलर की सेना लेनिनग्राड तक पहुँच गई। वहाँ हम लोगों ने बड़ा प्रतिकार किया। लेनिनग्राड के मैदान में हमारे पास लाखों वीरों के कफन आपको दिखेंगे। इसके कारण जर्मन लोग चिढ़ गए और हमारा राष्ट्रीय अपमान करने के उद्देश्य से उन्होंने प्रतिरोध की भावना से यहाँ की देवी-देवताओं की पुरानी मूर्तियाँ तोड़ी। इसके पीछे भाव यही था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाए, हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाए। ऐसा तो नहीं था कि ये मूर्तियाँ हाथ में शस्त्रास्त्र लेकर जर्मन सेना का विरोध कर रही थी। इस तरह केवल रूस को नीचा दिखाने के लिए मूर्तियाँ तोड़ी गई थी। इस कारण हमने भी प्रण किया था कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात इस राष्ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए और अपने राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियों का पुनर्निर्माण करेंगे। इसमें आस्तिकता का सवाल नहीं आता। हम तो नास्तिक हैं ही, किन्तु मूर्ति भंजन का काम राष्ट्रीय अपमान के प्रतीक के रूप में किया गया और इसलिए राष्ट्रीय पुन: स्थापना के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया है। आक्रामक या साम्राज्यवादी राष्ट्र लोगों में हीनता का भाव निर्माण करने के लिए इसी तरह की योजना करते रहते हैं। इसका इतिहास गवाह है। इतिहास इसका भी साक्षी है कि उस राष्ट्र के लोग यदि प्रखर राष्ट्रभक्त हैं तो राष्ट्रीय सम्मान को प्रकट करने के लिए फिर से मूर्तियों को बनाते हैं और उनकी पुनर्स्थापना करते हैं। फिर वे राष्ट्रभक्त आस्तिक रहें या नास्तिक। राष्ट्रीय अपमान को धो डालने का ही प्रश्न उनके सामने रहता है।'

http://www.vhv.org.in/story.aspx?aid=3493

रानी लक्ष्मीबाई : बुंदेलों हर बोलो के मुहं हमने सुनी कहानी थी

बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देशप्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है-झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई।

रानी लक्ष्मीबाई ने नारी के उस रूप को शाश्वत किया, जिसमें उसमें महिषासुरमर्दिनी और रणचंडी माना जाता है। उनके हृदय में देशभक्ति रत्नद्वीप की भांति प्रकाशमय थी। एक ओर जहां वे युद्धकौशल में निपुण, घ़ुडसवारी में असाधारण, तलवारबाजी में अद्वितीय थी, तो दूसरी ओर नारी के स्वाभाविक स्वभाव, त्याग, प्रेम, उदारता, समर्पण उनमें कूटकूटकर भरा था।

19 नवम्बर 1835 को मोरोपंत व भागीरथीबाई की संतान रूप में एक बालिका ने जन्म लिया। काशी में जन्मी इस बालिका का नाम मणिकर्णिका रखा गया। प्यार से इस बालिका को सभी मनु पुकारने लगे। मोरोपंत एक मराठी ब्राह्मण थे और मराठा पेशवा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की म्रत्यु हो गयी।

चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। लोग उसे प्यार से "छबीली" बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन 1842 में इनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया।

यह वह समय था, जब मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए भारतीय वीर अपनी जान की भी परवाह किये बिना पराये शासकों के दमन के विरुद्ध बग़ावत करने पर तुल गये और लड़ाई शुरू कर दी। वह 1857 का वर्ष था। तब तक अंदर ही अंदर सुलगती हुई विद्रोह की ज्वाला एकदम ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ी।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन 1853 में राजा गंगाधर राव का बहुत अधिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु 21 नवंबर 1853 में हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के अन्तर्गत ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव जो उस समय बालक ही थे, को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया, तथा झाँसी राज्य को ब्रितानी राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया। तब रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया।

इसके साथ ही रानी को झाँसी के किले को छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हर कीमत पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय कर लिया था। झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया।

1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1857 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।

झांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिन्सा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया। 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया।

1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झांसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अन्ग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झांसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली। 1857 में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर उनके विरूद्ध संघर्ष करना उचित समझा । वे अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ी और अन्त में वीरगति को प्राप्त हुईं। वह 17 जून 1858 का दिन था जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी।

इस प्रकार महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवन का लक्ष्य पूर्ण किया, उन्होंने एक ऐसा जीवन जिया जो संपूर्ण राष्ट्र का नाम उज्ज्वल करता है, एक महिला जिसने अपने जीवन के मात्र तेइस वसंत ही देखे अपने काया से इतिहास में अमर हो गई। जब तक भारत का अस्तित्व रहेगा, १८५७ की क्रांति की याद रहेगी ,तब तक महारानी लक्ष्मीबाई की स्मृति भी जीवित रहेगी।

आध्यात्मिकता के संदेशवाहक स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था। उनका जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त बहुत ही उदार एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। स्वामी विवेकानंद पर अपने पिता के तर्कसंगत विचारों तथा माता की धार्मिक प्रवृति का असर था।

स्वामी जी के मन में बचपन से ही धर्म और दर्शन के प्रति अविश्वास का भाव पनपता चला गया। संदेहवादी और प्रतिवाद के चलते कभी भी किसी विचारधारा में विश्वास नहीं किया। जब तक कि खुद नहीं जान लिया कि आखिर सत्य क्या है, कभी कुछ भी तय नहीं किया। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पहले वह ब्रह्म समाज गए। फिर कई साधु-संतों के पास भटकने के बाद अंतत: स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सामने हार गए। रामकृष्ण के रहस्यमय व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया, जिससे उनका जीवन बदल गया। 1881 में रामकृष्ण को उन्होंने अपना गुरु बना लिया। उन्होंने रामकृष्ण के नाम पर रामकृष्ण मिशन और मठ की स्थापना की।

1886 में रामकृष्ण के निधन के बाद स्वामी विवेकानंद ने जीवन एवं कार्यों को एक नया मोड़ दिया। 25 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। गरीब, निर्धन और सामाजिक बुराई से ग्रस्त देश के हालात देखकर दुःख और दुविधा में रहे। उसी दौरान उन्हें सूचना मिली कि शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है। उन्होंने वहाँ जाने का निश्चय किया। वहाँ से आने के बाद देश में प्रमुख विचारक के रूप में उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1899 में उन्होंने पुन: पश्चिम जगत की यात्रा करने के बाद भारत में आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया। स्वामी विवेकानंद नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे।



उनका मानना था कि "जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है– अंत में उनकी शक्ति के फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो संसार को शिक्षा प्रदान करता है।"

वर्ष 1893 में विश्व धर्म संसद में उनके ओजपूर्ण भाषण से ही विश्वमंच पर हिंदू धर्म के साथ भारत की भी प्रतिष्ठा स्थापित हुई। 11 सितंबर 1893 को इस संसद में जब उन्होंने अपना संबोधन ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ से प्रांरभ किया तब काफी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। उनके तर्कपूर्ण भाषण से लोग अभिभूत हो गए।

विवेकानंद पर वेदांत दर्शन, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग और गीता के कर्मवाद का गहरा प्रभाव पड़ा। वेदांत, बौद्ध और गीता के दर्शन को मिलाकर उन्होंने अपना दर्शन गढ़ा ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनके दर्शन का मूल वेदांत और योग ही रहा।

विवेकानंद मूर्तिपूजा को महत्व नहीं देते थे, ‍लेकिन वे इसका विरोध भी नहीं करते थे। उनके अनुसार 'ईश्वर' निराकर है। ईश्वर सभी तत्वों में निहित एकत्व है। संसार ईश्वर की ही सृष्टि है। आत्मा का कर्त्तव्य है कि शरीर रहते ही 'आत्मा के अमरत्व' को जानना। मनुष्य का चरम भाग्य 'अमरता की अनुभूति' है।

राजयोग को ही मोक्ष का मार्ग मानने वाले स्वामी विवेकानंद का 4 जुलाई 1902 को निधन हो गया। मात्र 39 वर्ष के जीवनकाल में स्वामी जी ने अपने विचारों से युवाओं के मन मस्तिष्क पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उनके गुजरने के सौ वर्ष से अधिक समय बाद भी युवा पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेती है। दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।

गिरवी के पत्थर

एक बार गुरू नानक बगदाद गये हुए थे। वहां का शासक बड़ा ही अत्याचारी था। वह जनता को कष्ट देकर उनकी सम्पत्ति को लूटकर अपने खजाने में जमा किया करता था। उसे जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान से कोई साधु आया है, तो वह नानकजी से मिलने उनके पास गया।

कुशल-समाचार पूछने के उपरान्त नानकजी ने उससे 100 पत्थर गिरवी रखने की विनती की। शासक बोला, ''पत्थर को गिरवी रखने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु आप उन्हें कब ले जायेंगे?''

''आपके पूर्व ही मेरी मृत्यु होगी। मेरे मरणोपरान्त, इस संसार में आपकी जीवन-यात्रा समाप्त होने पर जब आप मुझसे मिलेंगे, तब इन पत्थरों को मुझे दे दीजिएगा।''

''आप भी कैसी बातें करते हैं, महाराज! भला इन पत्थरों को लेकर मैं वहां कैसे जा सकता हूं?''

''तो फिर जनता को चूस-चूसकर आप जो अपने खजाने में नित्य वृद्धि किये जा रहे हैं, क्या वह सब यहीं छोड़ेंगे? उसे भी अपने साथ ले ही जाएंगे। बस साथ में मेरे इन पत्थरों को भी लेते आइएगा।''

उस दुराचारी की आंखें खुल गयीं। नानक के चरणों पर गिरकर उनसे क्षमा मांगी और प्रजा को कष्ट न देने का वचन दिया।

जीव हिंसा जग में बुरी

प्रसिद्ध जैन मुनि जब युवा थे, तो उनका विवाह हो रहा था। जब बारात का जुलूस ठाटबाट से निकल रहा था, तो दूल्हे महाशय अपनी जीवन-संगिनी राजुल की कल्पना के सुख-स्वप्नों में तन्मय थे। तभी पशुओं की करुण चित्कार ने उनके स्वप्न को भंग कर दिया।

उन्होंने सारथी से पूछा, “खुशी के इस अवसर पर आर्तनाद कैसा ?” सारथी ने बताया, “कुमार! यह उन निरीह पशुओं की चित्कार है, जिनका आपके विवाह में आये हुए म्लेच्छ राजाओं के भोज के लिए वध किया जाएगा।”

ऐसा सुनते ही कुमार के मुख से आह निकल आई। उन्होंने सारथी को रथ रोकने का आदेश दिया। दूसरे ही क्षण बारातियों ने देखा कि नेमिकुमार स्वयं ही पशुओं के बन्धन खोलकर उन्हें मुक्त कर रहे हैं। उन्होंने अपने हाथ का कंगन भी खोल डाला और वहां से निकल पड़े। अब से वे बाहर भीतर की सारी गाँठें खोलकर परम-निर्ग्रन्थ हो गए, अर्थात; भोग से योग की ओर उन्मुख हो गए। उन्हें देखकर राजुल ने भी दूल्हन का श्रृंगार उतार दिया और श्वेत वस्त्र पहने, जीवन के चरम फल की प्राप्ति के लिए गिरनार पर्वत की ओर बढ़ चली।

कहानी से प्रेरणा
सृष्टि के सभी प्राणियों में एक ही आत्मा का वास है। उनकी हत्या करना पाप है। इसलिए हिंसा नहीं करनी चाहिए।

(संदर्भ : प्रेरक प्रसंग, लेखक - शरद चंद्र पेंढारकर)

‘अपनी बुराइयां बताना कठिन कार्य है’

एक दिन गुरु नानकदेव अकेले बैठे हुए थे। एक डाकू उनके पास आया और उनके चरणों में गिरकर कहने लगा- 'मैं डाकू हूँ, अपने जीवन से परेशान हूँ, अपने को सुधारना चाहता हूँ। इन पापों से, जो मैं रोज करता हूँ, मुक्ति चाहता हूँ। मुझे कोई उपाय बताइये। मेरा मार्गदर्शन कीजिये।' नानकदेव पहले तो उस डाकू के हाव-भाव देखते रहे, फिर बोले- 'तुम आज से डाका डालना और झूठ बोलना छोड दो, सब ठीक हो जायेगा।'

डाकू उन्हें प्रणाम करके लौट गया। लेकिन कुछ दिन के बाद फिर आया और कहने लगा-'मैंने झूठ न बोलने और डाका न डालने की भरसक कोशिश की मगर इन आदतों को छोड़ नहीं पाता। लेकिन मैं सुधरना अवश्य चाहता हूँ। आप मुझे कोई उपाय बताइये।' और वह उनके चरणों में गिर पड़ा।

गुरुजी पुन: सोच में पड़ गये फिर उनके होठों पर मुस्कान आयी। वे डाकू से बोले- 'अच्छा, जो तुम्हारे मन में आये करो लेकिन दिनभर झूठ बोलने, डाका डालने के बाद प्रतिदिन लोगों के सामने अपने इन सब कामों का बखान कर दो।'


डाकू को यह उपाय बहुत आसान मालूम हुआ। वह प्रणाम करके चला गया। इस बार बहुत दिन बीत गये डाकू लौटकर नहीं आया। फिर एक दिन जब गुरुजी ध्यानमग्न थे, अचानक वह उनके सामने आ खड़ा हुआ। गुरुजी ने जब उसे पास खड़े देखा, तो पूछा-'बहुत दिनों के बाद लौटे हो।'

डाकू बोला- 'मैं आपके बताये उस उपाय को बहुत आसान समझता था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयां कहने में तो लाज आती है, सो मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया है।'

कहानी से प्रेरणा: इस प्रेरक कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि ज़िन्दगी में बुरे अथवा गलत काम करना जितना आसान होता है उससे कही ज्यादा मुश्किल उन्हें स्वीकार करते हुए जीने में होता है।
(सन्दर्भ- प्रेरक प्रसंग, संकलन- वेद प्रकाश पुन्शी)

युधिष्ठिर का न्याय

विजय कुमार

एक बार राजा युद्धिष्ठिर के पास एक किसान का मामला आया। उसके खेत में चोरी करते हुए चार लोग पकड़े गये थे। उनमें से एक अध्यापक था, दूसरा पुलिसकर्मी, तीसरा व्यापारी और चौथा मजदूर। किसान ने युद्धिष्ठिर से उन्हें समुचित दंड देने को कहा।

युद्धिष्ठिर ने मजदूर को एक महीने, व्यापारी को एक साल, सैनिक को पांच साल और अध्यापक को दस साल सश्रम कारावास का दंड दिया। जब लोगों ने एक ही अपराध के लिए चारों को अलग-अलग दंड का रहस्य पूछा, तो युद्धिष्ठिर ने बहुत न्यायपूर्ण उत्तर दिया।

उन्होंने कहा कि मजदूर स्वयं निर्धन है, हो सकता है उसके घर में खाने को अन्न न हो। ऐसे में यदि उसने चोरी कर ली, तो इसे बहुत गंभीर अपराध नहीं माना जा सकता। इसलिए उसे एक महीने का कारावास पर्याप्त है।

व्यापारी का अपराध कुछ अधिक है। उसे किसान की फसल को उचित मूल्य पर खरीदने और बेचने का अधिकार तो है; पर चोरी का नहीं। इसलिए उसे एक साल का दंड दिया गया है।

पुलिसकर्मी राज्य की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था का आधार है। यदि वह खुद ही चोरी करेगा, तो फिर चोरों को पकड़ेगा कौन; यदि जनता का देश की सुरक्षा व्यवस्था से विश्वास उठ गया, तो इस अराजकता से निबटना राज्य के लिए भी संभव नहीं है। इसलिए उसे पांच साल की सजा दी गयी है।

जहां तक अध्यापक की बात है, उसका कृत्य केवल अपराध ही नहीं, पाप भी है। उसका काम देश की नयी पीढ़ी को सुसंस्कारित करना है। यदि उसका आचरण गलत होगा, तो फिर वह नयी पीढ़ी को क्या सिखाएगा? इसलिए उसका अपराध सबसे बड़ा है और उसे दस साल की सजा दी गयी है।

इस कसौटी पर उन पांच न्यायधीशों और तीन वकीलों की सजा के बारे में विचार करें, जो प्रोन्नति और वेतन वृद्धि के लिए काकातिया विश्वविद्यालय वारंगल में दी जा रही एल.एल.एम की परीक्षा में नकल करते हुए पकड़े गये हैं।

कभी तो याद करें...

आज स्वतन्त्र भारत का सपना अपनी आँखों में सजोंकर हंसते-हंसते मौत को गले लगाने वाले उन वीरों का बलिदान दिवस है, जिन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से अंग्रेजों की नींव हिलाकर रख दी थी। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव भारत माता के इन तीनों पुत्रों को अंग्रेजों द्वारा भले ही फांसी देकर मार दिया गया हो लेकिन इनके द्वारा जलाई गयी क्रांति की ज्योति आज भी प्रत्येक भारतवासियों के दिलों में अमर है।

23 मार्च,1931 यानी आज के ही दिन इन क्रांतिकारियों को सांडर्स हत्याकांड में मौत की सजा दी गई थी। राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी देने के मुद्दे को अंग्रेजों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। अंग्रेजों को डर था कि यदि ये तीनों जीवित रहे तो भारत से अंग्रेजों का बोरिया बिस्तर कभी भी उठ सकता।

भगत सिंह को सिर्फ उनके बलिदान के कारण ही महान नहीं माना जाता है बल्कि उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं की ओर देखें तो बाल्यकाल से ही उनकी देशभक्ति की मिशाल हमें देखने को मिलेगी। यह कहा जाता है कि जब भगत सिंह 12 वर्ष के थे उसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ। इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है। भगत सिंह ने ही क्रांति के उद्दघोष 'इंक़लाब जिंदाबाद' उक्ति का निर्माण किया जो पूरे स्वतंत्रता संग्राम में अंत तक दोहराया जाता रहा।

भगत सिंह ने हमेशा यही कहा कि वे मुझे मार सकते हैं, मेरे विचारों को नहीं। वे मेरे शरीर को ख़त्म कर सकते है मेरी आत्मा को नहीं। राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह ने 23 मार्च 1931 को हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लिया और भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमिट हो गए। अंग्रेजों ने इन क्रांतिकारियों के प्रति भारत के जनमानस में उमड़े समर्थन के डर से फांसी के लिए मुकर्रर तारीख से एक दिन पहले ही उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया।

यह भी माना जाता है कि जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। 24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहां पहुंचे, जहां इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियां पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे।

भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। लेकिन इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की यह नौजवान पीढ़ी स्वतन्त्र भारत में जन्मी हैं जो जानना भी नही चाहती कि ये आज़ादी हमे कितने बलिदानों के बाद नसीब हो पाई। यह आज विडम्बना का विषय बन गया है की हम उन्हीं वीरों की भूमि पर रहते हैं और उनका बलिदान दिवस कब आता है यह भी याद नही रख पाते।

समाचार पत्रों में आये नेताओं की बड़ी फोटो के साथ राजनैतिक विज्ञापनों, कैलंडर या कही से चलते हुए एसएमएस के आने से ही हमें ऐसा पता चल जाता है। बहुतेरों को तो पता भी नही चलता पर कोई फर्क नही पड़ता। अखबारों में कोई बुद्धिजीवी भी अपनी कलम से ऐसे विषय पर कुछ लिखना नही चाहते। जब हम अपने आदर्शों को भी याद नही रख पा रहे हैं तो इस पीढ़ी का भविष्य किस ओर जा रहा है यह एक सोचनीय विषय है? चलिए हम तो इन वीरों को नमन करें! वंदना शर्मा
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स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास का महत्वपूर्ण दिवस

23 जुलाई का दिवस भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास का महत्वपूर्ण दिवस है क्योंकि इस दिन राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े दो महत्वपूर्ण व्यक्तियों का जन्मदिवस है। इनमें से पहले है बालगंगाधर तिलक जो आज से ठीक 155 वर्ष पूर्व सन् 1856 में पैदा हुये थे और दूसरे है पं चंद्रशेखर तिवारी जिन्हें हम सब उनके प्रचलित नाम चन्द्रशेखर आजाद के नाम से जानते हैं।

इनका जन्म बाल गंगाधर तिलक से 50 वर्ष बाद सन् 1906 में मध्य प्रदेश के भाबरा (झाबुआ) नामक स्थान पर पंडित सीताराम तिवारी और श्रीमती जगरानी देवी के घर हुआ। जनपद उन्नाव का बदरका नामक ग्राम आजाद जी की कर्मस्थली रहा है।

शिक्षा ग्रहण करने के उद्देश्य से सन् 1921 में मात्र 15 वर्ष की आयु में पंडित चंद्रशेखर का प्रवास स्थल काशी बना जहाँ रहकर वे महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से जुडे । इस आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण जब किशोर चन्द्रशेखर की गिरफ्तारी हुयी तो उसने पुलिस को अपना नाम ‘‘आजाद’’ बताया। पुलिस को बताया उनका यह नाम उनकी पहचान बन गया।

असहयोग आन्दोलन के दौरान जब फरवरी 1922 में चौरी चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल,शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया। अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध सीधी लडाई लडने के पक्षधर चन्द्रशेखर आजाद क्रन्तिकारी दल के मुखिया थे। जिन्होंने अग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाकर रख दिया था।

26 फरवरी 1931 को जब आजाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने कुछ क्रांतिकारी सहयोगियों के साथ आगे के कार्यक्रमों की योजना बना रहे थे, तब पुलिस ने पार्क को चारों ओर से घेर लिया। इस विषम परिस्थिति में भी अपने साथियों के लिये निकल जाने का सुरक्षित मार्ग बनाते हुये, पुलिस का मुकाबला करते रहे। अन्त में जब उनके पास रिवाल्वर में एक गोली शेष रह गयी तब उसे अपनी कनपटी में लगाकर अपनी इहलीला समाप्त करते हुये भारत माता की गोद में चिरनिद्रा में सो गये।

पुलिस ने इस मुठभेड को उपद्रवियों के हुयी मुठभेड़ बताकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया। बाद में पता लगने पर उनकी अस्थि भस्म के साथ संपूर्ण नगर में यात्रा निकाली गयी जिसमें एतिहासिक भीड एकत्रित हुयी। जिसमें पं0 जवाहरलाल नेहरू, संपूणानन्द, कमला नेहरू, पुरूषोत्मदास टंडन आदि अनेक नेताओं ने भाग लेकर उन्हे भावभीनी श्रंद्धाँजलि अर्पित की।

शेख के साथ समझौता इतिहास में काला दिन

स्व. प्रकाशवीर शास्त्री


मैं प्रधानमंत्री जी से केवल दो बातें जानना चाहता हूं कि इस बात की चर्चा मैं नहीं करना चाहता कि जब शेख अब्दुल्ला को सत्ता सँभालने में केवल एक रात बीच में रह जाती है, अब तक ये सारी चर्चाएँ संसद को पृष्ठभूमि में रखकर, संसद से पृथक रहकर कैसे चलती रहीं और संसद को विश्वास में क्यों नहीं लिया गया। न मैं उस चीज की चर्चा करना चाहता हूँ कि जब शेख साहब चार्ज सँभालने जा रहे हैं तो आज जम्मू-कश्मीर में क्यों हड़ताल है।

मैं केवल यह जानना चाहता हूँ कि जो जम्मू-कश्मीर का संविधान है उसमें स्पष्ट रूप से यह लिखा हुआ है- जो आप शेख साहब को यह श्रेय देने जा रहे हैं कि उन्होंने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माना है- उसमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा किसी कानून में इतने प्रतिशत मतों के आधार पर परिवर्तन कर सकती है, लेकिन इस विधानसभा को कभी यह अधिकार नहीं होगा कि जम्मू-कश्मीर का जो भारत में विलय है, यह इस बारे में कोई निर्णय ले। यह जम्मू-कश्मीर के संविधान में है। हमारे संविधान की स्थिति यह है कि श्री गोपालस्वामी आयंगर ने संविधानसभा में यह बात कही थी कि वहाँ लड़ाई होकर चुकी है, इसलिए जम्मू-कश्मीर में जो स्थिति है उसको देखते हुए यह विशेष उपबंध रखा जा रहा है। जब भी स्थिति सामान्य होगी इसको हटा दिया जायेगा।



पंडित जवाहर लाल नेहरू, जो हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री थे स्वयं उन्होंने ये शब्द कहे, पंडित गोविंदवल्लभ पंत ये शब्द कहे और भूतपूर्व गृहमंत्री श्री गुलजारी लाल नंदा ने एक विधेयक पर ये शब्द कहे कि अनुच्छेद 370 काफी घिस चुका है और वह घिसते-घिसते और घिस जायेगा। ये उनके अपने शब्द थे। लेकिन जो मैं प्रधानमंत्री जी से जानना चाहता हूँ वह यह है कि मिर्जा अफजल बेग, जो शेख साहब के प्रतिनिधि थे, आपके प्रतिनिधि पार्थ सारथी से बात करते रहे, उन्होंने वक्तव्य दिया है कि अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान के अंदर सदा के लिये स्थायी होने जा रहा है, अब इसको हटाने के लिए को प्रश्न नहीं रहेगा। मैं आपसे जानना चाहता हूँ, इसमें वास्तविकता क्या है?

दूसरी बात यह है कि शेख साहब ने दक्षिण प्रांतों का भ्रमण करते हुए कई स्थानों पर वक्तव्य दिये हैं। उन्होंने एक स्थान पर वक्तव्य देते हुए यह कहा कि 1953 के बाद जितने कानून बने हैं, एक बार चुनाव हो जाने दीजिये, उनमें एक-एक को देखेंगे कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा किनको स्वीकार करती है और किनको नहीं करती है। भारतीय संसद ने जो निर्णय लिये हैं उनको भी अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने चुनौती दी है। एक बात उन्होंने स्पष्ट कही है कि विदेश, रक्षा और संचार तीनों को छोड़कर बाकी विषयों के अंदर जम्मू-कश्मीर की जो स्वायत्तता है, या स्वतंत्रता है, इसका निर्णय जम्मू-कश्मीर की विधानसभा लेगी। इन वक्तव्यों के बाद प्रधानमंत्री से शेख अब्दुल्ला मिले हैं और दो बार उनकी मुलाकात हुई है, तो मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह जो प्रधानमंत्री जी के साथ उनकी मुलाकात हुई तो क्या प्रधानमंत्री जी ने उन वक्तव्यों की पृष्ठभूमि में शेख अब्दुल्ला से किसी प्रकार का स्पष्टीकरण मांगने की कोशिश की या नहीं की? यही नहीं, शेख अब्दुल्ला के अभी से सत्ता सँभालने से पहले पूत के पाँव पालने में नजर आने लगे हैं। पहली बार रफी अहमद किदवई और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के कहने पर उनको गिरफ्तार करना पड़ा। इस बार देखें क्या होता है?

आप तो कहती हैं कि भारत के लिए यह सौभाग्य का समझौता है, मैं कहता हूँ कि भारत के इतिहास में यह काला दिन है जो इस प्रकार का समझौता हुआ है।

(राज्यसभा में 24 फरवरी 1975 को जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में प्रधानमंत्री के बयान पर चर्चा के दौरान प्रकाशवीर शास्त्री द्वारा व्यक्त विचारों का सम्पादित अंश)

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महान क्रांतिकारी शहीद खुदीराम बोस

नई दिल्ली। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में खुदीराम बोस एक ऐसा नाम है जो देशवासियों को हमेशा देशभक्ति की प्रेरणा देता रहेगा। इस नौजवान ने मात्र 19 साल की उम्र में ही वतन के लिए अपना बलिदान दे दिया था।

तीन दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर में जन्मे खुदीराम ने आजादी की लड़ाई में शामिल होने की ख्वाहिश के चलते 9वीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी थी। खुदीराम स्वदेशी आंदोलन में कूद गए और रिवोल्यूशनरी पार्टी का सदस्य बनकर वंदे मातरम् पंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में भड़के आंदोलन में खुदीराम बोस ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। अंग्रेजों ने 28 फरवरी 1906 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया लेकिन वह कैद से भाग निकले। दो महीने बाद वह फिर से पकड़े गए।


हुकूमत ने उन्हें आजादी की राह से भटकाने की कोशश की लेकिन इस नौजवान के इरादों और हौसलों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। अंततः 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया।

इतिहासकार शिरोल के अनुसार, खुदीराम बंगाल ही नहीं बल्कि पूरे देश में अत्यधिक लोकप्रिय थे जिनकी शहादत के बाद नौजवानों में देशभक्ति की जबर्दस्त उमंग पैदा हो गई थी। छह दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के तत्कालीन गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया लेकिन वह बाल-बाल बच गया।

खुदीराम ने 1908 में दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर हमला किया लेकिन वे भी बच निकले। वह मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा थे जिसने क्रांतिकारियों को कठोर सजा दी थी। उन्होंने अपने साथी प्रफुल्ल चंद्र चाकी के साथ मिलकर सेशन जज से बदला लेने की ठानी। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को जज की गाड़ी पर बम से हमला किया लेकिन उस समय इस गाड़ी में जज की जगह दो यूरोपीय महिलाएं सवार थीं।

किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गईं जिसका खुदीराम और चाकी को बहुत अफसोस हुआ। पुलिस उनके पीछे लग गई और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को घिरा देख प्रफुल्ल चंद्र चाकी ने खुद को गाली मारकर शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गए। 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई। फांसी के वक्त उनकी उम्र मात्र 19 साल थी।

इतिहासकार शिरोल के अनुसार, फांसी के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे ऐसी धोती बुनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। राष्ट्रवादियों ने शोक मनाया और विद्यार्थियों ने कई दिनों तक स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार किया।

भारतीय संस्कृति का केंद्र कराची

मुजफ्फर हुसैन

कराची का पुराना नाम देवल नगर था। वहां कभी कितने मंदिर होंगे, इसका हिसाब लगाना कठिन है, पर पाकिस्तान में शामिल हो जाने के बाद भी आज वहां हिंदुओं के अनेक मंदिर हैं। कुछ बंद कर दिए गए हैं, तो कुछ ऐसे हैं, जहां शापिंग मॉल बना दिए गए हैं।

पाकिस्तान में कराची की स्थिति वही है, जो भारत में मुबई की है। इन दोनों नगरों में आज भी गुजराती सभ्यता के दर्शन होते हैं। मुंबई में कोई व्यक्ति यदि कच्छी बोलता हुआ मिल जाए, तो आश्चर्य नहीं होता, तो उधर कराची में आज भी कच्छी बोली जाती है। वहां दीपावली के अवसर पर चौपड़ा पूजन होता है। लोग पारंपरिक रूप में धोती पहने हुए नजर आते हैं। अब वहां धोती बांधना कितने लोगों को आता है, यह तो एक शोध का विषय है, लेकिन वे लोग भारत से सिली-सिलाई धोती आयात करते हैं।



कच्छ वालों को कराची की लाइट नजर आती है, तो कराची वाले कहते हैं कि वो रहा हमारा कच्छ, पर अब जमीन की दूरी से भी अधिक दिल की दूरियां हो गई हैं। आज भी इस सवाल का जवाब नहीं मिलता है कि जब पंजाब और बंगाल का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हो गया, तो फिर सिंध का क्यों नहीं हुआ? विभाजन के दिनों में सिंध के तत्कालीन मुस्लिम मुख्यमंत्री ने इसके लिए आंदोलन चलाया था कि सिंध का विभाजन भी धर्म के आधार पर होना चाहिए। तत्कालीन जोधपुर नरेश ने कहा था कि सिंध के दो जिले कराची और थरपाकर हिंदू बहुल हैं। जोधपुर रियासत अपने तीन जिले भी हिंदू सिंध को देने को तैयार है, इसलिए हिंदू सिंध यानी सिंधु देश बनना ही चाहिए। सिंध के मुख्यमंत्री की मांग पर नेहरूजी बहुत लाल-पीले हुए और कहा कि यह बकवास है।

गांधीजी के आग्रह पर नेहरूजी ने इस मामले में मौलाना अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में एक व्यक्ति वाला एक आयोग स्थापित कर दिया। मौलाना ने केवल एक पन्ने में अपनी रपट पेश कर दी। रपट में स्पष्ट तौर पर कहा गया कि सिंध में सिंध को विभाजित करने और हिंदू जनसंख्या के आधार पर सिंधु देश बनाने की कोई मांग नहीं उठ रही है। इस रपट के बाद तत्कालीन सिंध के उस नेक मुख्यमंत्री का मोहम्मद अली जिन्ना ने काम तमाम करा दिया। अंतत: कराची पाकिस्तान का भाग बन गया और पाकिस्तान की प्रथम राजधानी के रूप में इस नगर का चयन कर लिया गया। विभाजन के बाद पश्चिमी भारत के मुसलमान हिजरत करके कराची पहुंचे। वहां उन्हें मुहाजिर की संज्ञा मिली। कराची के आसपास के क्षेत्रों में जो मूल आबादी थी, उसके लोगों को इनके आगमन से अपनी अर्थव्यवस्था को खतरा होने का भय लगा। अतरू मुहाजिर और सिंधियों के बीच संघर्ष शुरू हुआ। मुहाजिरों की संख्या बढ़ी, तो राजनीतिक समीकरण भी बिगड़े। अपना वर्चस्व जमाने के लिए भारत से गए लोगों ने अपनी अलग पार्टी भी बना ली। अलताफ हुसैन के नेतृत्व में कौमी मुहाजिर मूवमेंट मुहाजिरों में लोकप्रिय हो गया।

बाद में जब अफगानिस्तान के शरणार्थी कराची पहुंचे, तो पठान और सिंधियों में संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस प्रकार कराची पर कब्जा करने के लिए सिंधियों, पठानों और मुहाजिरों में रक्तरंजित झड़पों का सिलसिला काफी पुराना है। आज कराची में कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब वहां कोई दंगा नहीं होता। अपहरण एक धंधा बन गया है। अफीम और चरस की तस्करी से लेकर वहां मानव तस्करी तक अब कोई ढंकी-छिपी बात नहीं है। आए दिन होने वाले दंगों में मां-बाप मर जाते हैं, तो बच्चे अनाथ हो जाते हैं। इस विषय पर दैनिक नवाए वक्त ने हाल ही में एक रपट प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, ‘कराची दुनिया का सबसे बड़ा अनाथालय।’ उसी दिन दैनिक डान का शीर्षक था, ‘कराची जल रहा है, 24 घंटों में 34 मरे।’ कराची में अब तक 800 लोग मौत के घाट उतारे जा चुके हैं। डेली टाइम्स में ‘कराची में उत्पात’ शीर्षक से लेख लिखकर वरिष्ठ पत्रकार अनवर सईद ने कराची की वर्तमान स्थिति की समीक्षा की है, जो दिल को दहला देती है।

वह लिखते हैं कि भारत-पाक विभाजन के समय पाक प्रधानमंत्री लियाकत अली और नेहरूजी इस बात पर सहमत थे कि जो भारतीय मुसलमान पाकिस्तान जाना चाहते हैं, वे बाघा-अटारी बॉर्डर के रास्ते वहां जा सकते हैं। चूंकि भारत से आने वाले मुसलमानों की तादाद बहुत अधिक थी, इसलिए कराची स्थित दो सरकारी अफसर एटी नकवी और हाशिम रजा ने प्रधानमंत्री से मुस्लिम अप्रवासियों के लिए सिंध में एक और एंट्री पाइंट खोलने की ताकीद की। तब उर्दू भाषी हजारों मुसलमान पाकिस्तान आए। उनमें अधिकांश लोगों ने कराची में डेरा डाला। उस समय कराची की आबादी में भारतीय मुसलमानों का प्रतिशत सबसे अधिक हो गया था। इस समय कराची की आबादी दो करोड़ के आसपास है। वहां प्रतिदिन करीब 10 खरब रुपयों का कारोबार होता है, पर तब, जब वहां अमन हो। पिछले 20 वर्षो में वहां शायद ही किसी दिन पूरी तरह शांति रही हो। हर दिन भड़कने वाली हिंसा में हजारों लोगों की जान जाती है।

लगता है कि इन हत्याओं में जातीय और भाषाई पूर्वाग्रहों का योगदान है। इस शहर के बाहरी क्षेत्रों में सिंधी, पंजाबी, पश्तो और बलूची बोलने वाले लोग भी रहते हैं। इनके बीच भारी मनमुटाव और अविश्वास है। अलग-अलग जातीय और भाषाई गुटों में अब माफिया गुट बन गए हैं। वे रोजगार और कारोबार पर अपने लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए हिंसा फैलाते हैं। दैनिक नवाए वक्त ने अपने संपादकीय पेज पर एक बड़ा आलेख प्रकाशित किया है, जिसके लेखक हैं, मोहम्मद अहमद तराजी। लेख का शीर्षक है, ‘एक भीड़-सी लगी है, कफन की दुकान पर।’ लेखक का कहना है कि कराची में कोई भी आदमी राह चलते गोली का निशाना बन सकता है।

लिखा है, वलीका अस्पताल साइट का वह दृश्य दिल दहला देने वाला था। गुल अपनी इकलौती बेटी लाइबा की लाश गोद में उठाए निरंतर आंसू बहा रहा था। जब रक्त में सनी उस लाश को कोई अन्य व्यक्ति हाथों में उठाना चाहता, तो वह हाथ झटक देता था। आतंकियों की अंधी गोली ने विवाह के सात साल बाद मिन्नतों और मुरादों से पैदा होने वाली नन्हीं-मुन्नी लाइबा को हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया था। मियां गुल कस्बा कालोनी कराची में पहाड़ी पर बने एक मकान में रहा करता था। सारा मोहल्ला रो रहा था, पर यह कोई नई बात नहीं थी। कराची की किस्मत में तो सिर्फ अपनों की मौत देखना लिखा है। आतंकियों की गोली से कोई युवा, तो कोई नव विवाहिता, तो परिवार को पालने वाला कोई बाप रोज ही मरता है। पुलिस कभी आती है, तो कभी नहीं। मजदूरों की बस्ती में जब कोई काम पर निकलता है, तो इस बात की गारंटी नहीं होती कि वह वापस लौटेगा ही। अहमद तराजी के इस लेख का सार यह है कि कराची लगातार सुलग रहा है और हम भारतीयों को ब्रिटेन में हो रहे दंगों के कारण यह नहीं भूलना चाहिए कि आजकल कराची में भी दंगे हो रहे हैं।
(लेखक : प्रसिद्ध स्तंभकार हैं)
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डरपोक थे पंडित नेहरू : डॉ. टेंग

डॉ. मोहन कृष्ण टेंग कश्मीर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे दिसम्बर 1991 में विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या का गहनतम अध्ययन किया है। उनकी कश्मीर मामले पर कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं; जिनमें- कश्मीर अनुच्छेद-370, मिथ ऑफ ऑटोनामी, कश्मीर स्पेशल स्टेटस, कश्मीर : कांस्टीट्यूशनल हिस्ट्री एंड डाक्यूमेंट्स, नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर ऑफ इंडिया, प्रमुख हैं। उनका मानना है कि कश्मीर की वर्तमान समस्या के पीछे पंडित नेहरू और भारत का राजनैतिक प्रतिष्ठान प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा न फहराने देने के प्रति उमर सरकार की प्रतिबद्धता और केंद्र सरकार की अपील को भी वे उचित नहीं मानते। उनका कहना है कि दोनों सरकारों का यह रवैया भारतीय संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ है। डॉ. टेंग जम्मू के अम्बफला स्थित कारगिल भवन में आयोजित जम्मू-कश्मीर : तथ्य, समस्याएं और समाधान विषयक दो दिवसीय (25 व 26 जनवरी) सेमीनार में हिस्सा लेने आए थे। इसका आयोजन जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र ने किया था। इस दौरान विश्व हिंदू वॉयस (वीएचवी) से जुड़े पवन कुमार अरविंद ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है अंश-

वीएचवी- जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय के संबंध में उमर अब्दुल्ला के बयान पर आपका क्या कहना है?
डॉ. टेंग- हां, मैंने भी सुना था। राज्य विधानसभा में सशर्त विलय की बात उमर ने कही थी। लेकिन ऐसा कोई समझौता तो नहीं हुआ था। विलय का अधिकार राज्यों के राजाओं को था। महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे, जो एकदम पूर्ण था। यह विलय अन्य राज्यों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था। गवर्नर जनरल ने उसको स्वीकार भी कर लिया था। विलय के हस्ताक्षर होने में नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं की कोई भूमिका नहीं थी। साथ ही उस समय के प्रजा मंडल के सदस्यों की भी कोई भूमिका नहीं थी। हालांकि 3 अक्टूबर को श्रीनगर में हुई नेशनल कान्फ्रेंस की बैठक में शेख ने विलय का समर्थन करने का फैसला लिया था। यह जनता की राय थी लेकिन इस बात को उन्होंने उजागर नहीं किया।

विलय पत्र का जो मसौदा तैयार किया गया था उसमें किसी अंग्रेज की भूमिका नहीं थी; बल्कि गृह मंत्रालय ने तैयार किया था। इस मंत्रालय के प्रमुख सरदार पटेल थे। अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पटेल को राज्यों के विलय का विशेष जिम्मा सौंपा था। विलय का यही मसौदा वी.के. कृष्ण मेनन और माउंटबेटन को सौंपा गया था। नेशनल कांफ्रेस के किसी भी नेता को विलय की ठीक से जानकारी नहीं थी। भारत सरकार ने शेख अब्दुल्ला के दिल्ली पहुंचने से पहले ही उस फाइल को बंद कर दिया। शेख पंडित नेहरू से मिले, उनके जान के लाले पड़े हुए थे। शेख ने कहा कि किसी भी तरह से आप जम्मू-कश्मीर में सेना भेज दीजिए, विलय जैसे भी करना है आप कर लें, लेकिन जल्दी सेना भेजें, नहीं तो बहुत लोग मारे जाएंगे। जबकि विलय की प्रक्रिया पूर्ण कर फाइल बंद कर दी गई थी। इसके बावजूद आज नेशनल कांफ्रेंस इस बात को बार-बार दुहरा रही है कि सशर्त विलय हुआ था। उनका यह दावा सरासर झूठ है। उस वक्त इसकी तो बात ही नहीं हुई थी।

वीएचवी- क्या संविधान में अनुच्छेद-370 शामिल करने के पीछे विलय की भी कोई भूमिका है?
डॉ. टेंग- अरे भई, 26 अक्टूबर 1947 को ही विलय का कार्य पूर्ण हो चुका था। विलय से अनुच्छेद-370 का कोई संबंध नहीं है। झगड़ा तो विलय के दो वर्ष बाद यानी 1949 में शुरू हुआ। वर्ष 1949 के मध्य तक संविधान सभा ने अपना कार्य लगभग पूर्ण कर लिया था। लेकिन यह समस्या उठ खड़ी हुई कि राज्यों का क्या किया जाए। अन्य राज्यों के विलय का मसला अभी पूर्ण नहीं हुआ था। इसको सुलझाने के लिए जम्मू-कश्मीर सहित सभी राज्यों की दिल्ली में एक बैठक हुई थी। इन राज्यों का कहना था कि यदि यही कहा जाता रहा कि विलय की प्रक्रिया पूरी हो, उसके बाद संविधान सभा बने, तो इस प्रक्रिया में 10 साल लग जाएंगे। विदित हो कि गृह मंत्रालय ने उन राज्यों के लिए अलग संविधान सभा की वकालत की थी। इस बैठक में इन राज्यों ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए भारत सरकार को संविधान बनाने के लिए अधिकृत कर दिया। इस दौरान यह तय हुआ कि उन राज्यों के शासक घोषणा-पत्र के जरिए इस निर्णय पर अपनी मुहर लगाएं। भारत के हर राज्य के शासकों ने यह निर्णय स्वीकार किया कि भारत की संविधान सभा जो संविधान बनाएगी, उन्हें मंजूर होगा। उन शासकों में महाराजा हरिसिंह भी थे जिन्होंने ऐसी घोषणा की कि भारतीय संविधान सभा के द्वारा बनाया गया संविधान उन्हें मंजूर होगा। ये सारी बातें भारतीय अभिलेखागार में मौजूद हैं। नेशनल कान्फ्रेंस के लोगों ने यहां पर रोड़ा अटकाया। उन्होंने कहा कि यह निर्णय हमें मंजूर नहीं हैं। हम अपनी संविधान सभा में अपना संविधान बनाएंगे। हम भारतीय संविधान की कोई बात स्वीकार नहीं करेंगे। जबकि इन्सट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन में राज्यों के विलय कर लेने के बाद भारतीय संविधान की मूलभूत बातें स्वीकार करना प्रमुख रूप से शामिल था। गृह मंत्रालय ने 14 मई 1949 को नेशनल कान्फ्रेंस के नेताओं को दिल्ली बुलाया। मंत्रालय ने कहा कि विलय के मुताबिक आपको भारतीय संविधान की मूलभूत बातें स्वीकार करनी होंगी। नेशनल कान्फ्रेंस ने कहा कि हमें भारतीय संविधान की एक बात भी स्वीकार नहीं होगी। असल में झगड़ा यहीं से शुरू हुआ।

वीएचवी- यदि भारत सरकार नेशनल कान्फ्रेंस की बातें नहीं मानती तो क्या होता?
डॉ. टेंग- कुछ नहीं होता। विलय की प्रक्रिया नेशनल कान्फ्रेंस के रोड़ा अटकाने से दो वर्ष पहले ही पूरी हो चुकी थी। विलय को नेशनल कान्फ्रेंस को मानना ही पड़ता। लेकिन सरकार ने उसको झूठ में महत्व दिया। अगर सरकार ने ये बातें नहीं मानी होतीं तो देश के ऊपर कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता। इसको लेकर नेहरू क्यों घबरा गए थे, यह समझ से परे है।

वीएचवी- पंडित नेहरू कश्मीर की वर्तमान स्थिति के लिए कहां तक जिम्मेदार हैं?
डॉ. टेंग- 21 अक्टूबर 1947 को छद्म पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा में प्रवेश किया। 22 तारीख को सुबह पांच बजे पाकिस्तानी सेना पूरे मुजफ्फराबाद में फैल चुकी थी। इस संदर्भ में भारत सरकार का कहना था कि इसकी सूचना उसे 26 तारीख को मिली। जबकि 22 तारीख को 10.30 बजे अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के टेबल पर पाकिस्तानी सेना के दाखिले की सूचना लिखित रूप से पहुंच चुकी थी। इसके बावजूद नेहरू की हिम्मत नहीं थी कि वे गवर्नर जनरल से बातचीत करते। इसकी चर्चा दूसरे दिन लंच मीटिंग के दौरान हुई।

वीएचवी- तो आपका कहना है कि पाकिस्तानी आक्रमण के खिलाफ नेहरू ने फैसला लेने में पांच दिन लगा दिए?
डॉ. टेंग- हां, यदि उन्होंने सूचना मिलने के तुरंत बाद इसके खिलाफ कार्रवाई की होती; तो न पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की समस्या उत्पन्न होती और न ही इस आक्रमण में इतने लोग मारे गए होते। इन पांच दिनों में 38 हजार लोग मारे गए। इसमें हिंदू, सिख और अंग्रेज शामिल थे। आप कल्पना कर लीजिए, यह कोई छोटी बात नहीं है। यही नहीं नेहरू ने दूसरी बड़ी गलती यह की कि एक ओर जब भारतीय सेना पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को खदेड़ रही थी तो बीच में ही जीती हुई लड़ाई को वे संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए। उनमें लड़ने की हिम्मत नहीं थी, वह डरपोक थे।

वीएचवी- क्या अनुच्छेद-370 भारत की सम्प्रभुता के खिलाफ है?
डॉ. टेंग- इससे भारत का कोई हित नहीं जुड़ा है। यह देश की सम्प्रभुता के खिलाफ है ही; लोकतंत्र और सेकुलरिज्म की मूल भावना के भी खिलाफ है। सबसे प्रमुख बात यह है इसके कारण नागरिकों के मूलाधिकार, नागरिकता का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट का अधिकार-क्षेत्र स्वीकार नहीं है। जबकि ये अधिकार भारतीय संविधान के मूल तत्व हैं।

वीएचवी- अनुच्छेद-370 हटाने से कश्मीर समस्या समाप्त हो जाएगी, आपका क्या कहना है?
डॉ. टेंग- जम्मू-कश्मीर की समस्याएं हिंदुस्तान की सारी समस्याओं का एक प्रमुख हिस्सा है। दूसरी बात यह है कि कम से कम एक जो अनिश्चितता है वो तो खत्म हो जाएगी। भारतीय संविधान की दृष्टि से समानता के साथ ही जम्मू-कश्मीर और देश के अन्य राज्यों के नागरिकों के बीच भी समानता आ जाएगी। जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की नागरिकता दोहरी नहीं रह जाएगी। दो विधान और दो निशान खत्म हो जाएंगे।

वीएचवी- क्या भारतीय संसद अनुच्छेद-370 को समाप्त कर सकती है?
डॉ. टेंग- हां, वह ऐसा कर सकती है। यह अनुच्छेद-370 भारतीय संविधान में अस्थाई संक्रमणकालीन विशेष उपबंध के रूप में शामिल किया गया था; फिर हटाने में कोई समस्या नहीं है। संसद के पास संशोधन और अभिनिषेध; दोनों करने का अधिकार है। लेकिन इसके लिए हमारे नेताओं के पास दृढ़-इच्छाशक्ति का अभाव है, नहीं तो यह समस्या कभी की समाप्त हो जाती। संसद केवल संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं जा सकती।

वीएचवी- कश्मीर की वर्तमान समस्या के पीछे क्या आप अमेरिका की भी कोई भूमिका देखते हैं?
डॉ. टेंग- नहीं, अमेरिका की कोई भूमिका नहीं है। मेरा मानना है कि पहले भी कोई भूमिका नहीं रही है। पाकिस्तान को छोड़कर किसी अन्य देश की ऐसी कोई भूमिका नहीं है। इस समस्या के पीछे भारत का राजनैतिक प्रतिष्ठान ही मूल रूप से जिम्मेदार है।

वीएचवी- लाल चौक पर तिरंगा न फहराने देने की उमर सरकार की प्रतिबद्धता कहां तक उचित है?
डॉ. टेंग- यह सरासर अनुचित और संविधान के विरूद्ध है। यही बात तो अलगाववादी भी कर रहे हैं। फिर सरकार और अलगाववादियों में क्या अंतर बचता है।

वीएचवी- लेकिन राज्य और केंद्र की सरकार एक स्वर में बोल रही थी कि तिरंगा फहराने से राज्य में काफी समय बाद स्थापित अमन-चैन बिगड़ने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा?
डॉ. टेंग- जहां तक तिरंगा फहराने की बात है तो केवल इतना ही होता न कि दो चार आतंकवादी आ जाते और गोली चलाकर कुछ लोगों को मार डालते, इससे ज्यादा तो कुछ नहीं होता। इसके बावजूद भाजपा कार्यकर्ताओं को तिरंगा फहराने नहीं दिया गया। वे तो प्राणों की आहुति देने को भी तैयार थे। उन्हें पठानकोट और माधवपुर में रोक दिया गया। क्या आप अमन-चैन के बहाने राष्ट्र-ध्वज को फहराने से किसी को रोक सकते हैं? दरअसल भारत सरकार के पास कोई साहस ही नहीं है; नहीं तो कोई कड़ा कदम उठाती।

वीएचवी- केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों का दल कश्मीर समस्या को सुलझाने की दिशा में क्या कुछ आवश्यक पहल कर पाएगा, आपको क्या लगता है?
डॉ. टेंग- सबसे मुख्य बात है कि वार्ताकारों में किसी को भी जम्मू-कश्मीर की स्थानीय भाषा की जानकारी नहीं है। फिर ये त्रि-सदस्यीय वार्ताकार स्थानीय लोगों की भाषा कैसे समझते होंगे। मुझे तो इसी बात पर हैरानी हो रही है। राज्य के संदर्भ में आवश्यक पहल तो दूर की कौड़ी है।

वीएचवी- जम्मू-कश्मीर से संबंधित आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (एएफएसपीए) को हटाने या इसके नियमों में ढील देने की मांग उठती रहती है, कहां तक उचित है?
डॉ. टेंग- कुछ नहीं, यह केंद्र और राज्य सरकार कर रही है। ये बेकार का प्रोपेगंडा है। यदि इसमें संशोधन होगा तो सेना के पास कार्य करने का कोई रास्ता नहीं बचेगा, उसके हाथ बंध जाएंगे।
http://vhv.org.in/story.aspx?aid=5401

धर्म की गुत्थियां खोलीं स्वामी विवेकानंद ने

अपनी ओजपूर्ण आवाज से लोगों के दिल को छू लेने वाले स्वामी विवेकानन्द निःसंदेह विश्व-गुरु थे। उनके सुलझे हुए विचारों के उजाले ने धर्म की डगर से भटक रही दुनिया को सही राह दिखाई। निर्विवाद रूप से विश्व में हिन्दुत्व के ध्वजवाहक रहे विवेकानन्द का बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्ति से भरा व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

विवेकानन्द ने अपनी अल्प आयु में ही दुनिया को बहुत कुछ दिया। उन्होंने विश्व को वेदान्त के मर्म से रूबरू कराया। विवेकानन्द ने राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना। वह चाहते थे कि नौजवान पीढ़ी रूढ़िवाद से अछूती रहकर अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल देश की तरक्की के लिए करे। युवाओं के आदर्श विवेकानन्द के जन्मदिन को युवा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। विवेकानन्द के जीवन में विचारों की क्रांति भरने वाले उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि विवेकानन्द एक दिन दुनिया को शिक्षा देंगे और बहुत जल्द अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों से विश्व पर गहरी छाप छोड़ेंगे।

कलकत्ता के शिमला पल्ली में 12 जनवरी 1863 को एक सम्भ्रान्त परिवार में जन्मे विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। शुरुआती शिक्षा घर में प्राप्त करने के बाद उन्होंने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर संस्थान तथा स्कॉटिश चर्च कालेज में तालीम हासिल की। शिक्षार्जन के दौरान नरेन्द्रनाथ ने विशेष रूप से दर्शन और इतिहास का गहराई से अध्ययन किया। अध्यात्म के प्रति उनका झुकाव बचपन से ही था और छात्र जीवन में उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी देशों की धर्म तथा दर्शन से जुड़ी पद्धतियों का गहराई से अध्ययन किया।

विवेकानन्द ने नए परिप्रेक्ष्य में धार्मिक विचारों के व्यापक प्रचार के लिए वर्ष 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी। यह शैक्षिक तथा सांस्कृतिक कार्यों के जरिए सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन की शुरुआत थी। रामकृष्ण मिशन आदर्श कर्मयोग पर आधारित है। दिल्ली स्थित रामकृष्ण आश्रम के प्रमुख स्वामी शांतमानंद ने बताया कि विवेकानंद चाहते थे कि देश के युवा रूढ़िवाद से प्रभावित हुए बगैर राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका को श्रद्धा के साथ निभाएं। उन्होंने कहा कि महज 39 वर्षों की जिंदगी में विवेकानंद ने आधुनिकता की दौड़ में धर्म की राह से भटक रही दुनिया को अपने विचारों की ऊर्जा से सही रास्ता दिखाया। विवेकानंद ने साबित किया कि देश के युवा चाहें तो दुनिया में सुविचारों की क्रांति लाकर अपनी पीढ़ियों को एक सम्पन्न विरासत दे सकते हैं।



विवेकानंद के भक्त स्वामी अदीश्वरानंद के एक लेख में विवेकानंद के व्यक्तित्व और विचारों का शिकागो में हुई धर्म संसद पर प्रभाव का जिक्र मिलता है। अदीश्वरानंद ने लिखा है कि विवेकानंद ने अपने विचारों से अमेरिकी लोगों के दिल को छुआ। उन्होंने अपनी जादुई भाषण शैली, रूहानी आवाज और क्रांतिकारी विचारों से अमेरिका के आध्यात्मिक विकास पर गहरी छाप छोड़ी। विवेकानंद ने अमेरिका और इंग्लैंड जैसी महाशक्तियों को अध्यात्म का पाठ पढ़ाकर विश्व-गुरु के रूप में अपनी पहचान बनाई और अपने गुरु परमहंस की भविष्यवाणी को सही साबित किया।

अदीश्वरानंद के मुताबिक विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप में अमेरिका जाने वाले पहले हिन्दू भिक्षु थे। उनका संदेश वेदान्त का पैगाम था। उनका मानना था कि वेदांत ही भविष्य में मानवता का धर्म होगा। धार्मिक सौहार्द्र वेदान्त का सार है। उन्होंने लिखा है कि विवेकानंद ने सभी लोगों को अपने-अपने धर्म की डोर को मजबूती से थामने की शिक्षा दी।

लेख में वर्णित तथ्यों के मुताबिक विवेकानंद जिस समय शिकागो गए थे उस वक्त अमेरिका गृहयुद्ध जैसी स्थिति से जूझ रहा था और तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति ने धार्मिक मान्यताओं की जड़ों को हिला दिया था। ऐसे में अमेरिकी लोग एक ऐसे दर्शन की प्रतीक्षा में थे जो उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाए। विवेकानंद ने अपने विचारों से उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए आशा की किरण दिखाई।

विवेकानंद ने अपने जीवन के आखिरी दिन बेलूरू स्थित रामकृष्ण मठ में बिताए। लगातार यात्राओं से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वह शारीरिक रूप से दिन ब दिन कमजोर होते गए। बताया जाता है कि उन्होंने अपने निर्वाण से पहले यह कह दिया था कि वह 40 वर्ष की उम्र तक जिंदा नहीं रह पाएंगे। उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और इस आध्यात्मिक गुरु ने अपने विचारों से विश्व को जाज्वल्यमान् करने के बाद 04 जुलाई 1902 को दुनिया को अलविदा कह दिया।

धर्म की गुत्थियां खोलीं स्वामी विवेकानंद ने

अपनी ओजपूर्ण आवाज से लोगों के दिल को छू लेने वाले स्वामी विवेकानन्द निःसंदेह विश्व-गुरु थे। उनके सुलझे हुए विचारों के उजाले ने धर्म की डगर से भटक रही दुनिया को सही राह दिखाई। निर्विवाद रूप से विश्व में हिन्दुत्व के ध्वजवाहक रहे विवेकानन्द का बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्ति से भरा व्यक्तित्व और कृतित्व विशेषकर युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

विवेकानन्द ने अपनी अल्प आयु में ही दुनिया को बहुत कुछ दिया। उन्होंने विश्व को वेदान्त के मर्म से रूबरू कराया। विवेकानन्द ने राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना। वह चाहते थे कि नौजवान पीढ़ी रूढ़िवाद से अछूती रहकर अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल देश की तरक्की के लिए करे। युवाओं के आदर्श विवेकानन्द के जन्मदिन को युवा दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। विवेकानन्द के जीवन में विचारों की क्रांति भरने वाले उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि विवेकानन्द एक दिन दुनिया को शिक्षा देंगे और बहुत जल्द अपनी बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों से विश्व पर गहरी छाप छोड़ेंगे।

कलकत्ता के शिमला पल्ली में 12 जनवरी 1863 को एक सम्भ्रान्त परिवार में जन्मे विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। शुरुआती शिक्षा घर में प्राप्त करने के बाद उन्होंने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर संस्थान तथा स्कॉटिश चर्च कालेज में तालीम हासिल की। शिक्षार्जन के दौरान नरेन्द्रनाथ ने विशेष रूप से दर्शन और इतिहास का गहराई से अध्ययन किया। अध्यात्म के प्रति उनका झुकाव बचपन से ही था और छात्र जीवन में उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी देशों की धर्म तथा दर्शन से जुड़ी पद्धतियों का गहराई से अध्ययन किया।

विवेकानन्द ने नए परिप्रेक्ष्य में धार्मिक विचारों के व्यापक प्रचार के लिए वर्ष 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी। यह शैक्षिक तथा सांस्कृतिक कार्यों के जरिए सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन की शुरुआत थी। रामकृष्ण मिशन आदर्श कर्मयोग पर आधारित है। दिल्ली स्थित रामकृष्ण आश्रम के प्रमुख स्वामी शांतमानंद ने बताया कि विवेकानंद चाहते थे कि देश के युवा रूढ़िवाद से प्रभावित हुए बगैर राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका को श्रद्धा के साथ निभाएं। उन्होंने कहा कि महज 39 वर्षों की जिंदगी में विवेकानंद ने आधुनिकता की दौड़ में धर्म की राह से भटक रही दुनिया को अपने विचारों की ऊर्जा से सही रास्ता दिखाया। विवेकानंद ने साबित किया कि देश के युवा चाहें तो दुनिया में सुविचारों की क्रांति लाकर अपनी पीढ़ियों को एक सम्पन्न विरासत दे सकते हैं।



विवेकानंद के भक्त स्वामी अदीश्वरानंद के एक लेख में विवेकानंद के व्यक्तित्व और विचारों का शिकागो में हुई धर्म संसद पर प्रभाव का जिक्र मिलता है। अदीश्वरानंद ने लिखा है कि विवेकानंद ने अपने विचारों से अमेरिकी लोगों के दिल को छुआ। उन्होंने अपनी जादुई भाषण शैली, रूहानी आवाज और क्रांतिकारी विचारों से अमेरिका के आध्यात्मिक विकास पर गहरी छाप छोड़ी। विवेकानंद ने अमेरिका और इंग्लैंड जैसी महाशक्तियों को अध्यात्म का पाठ पढ़ाकर विश्व-गुरु के रूप में अपनी पहचान बनाई और अपने गुरु परमहंस की भविष्यवाणी को सही साबित किया।

अदीश्वरानंद के मुताबिक विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप में अमेरिका जाने वाले पहले हिन्दू भिक्षु थे। उनका संदेश वेदान्त का पैगाम था। उनका मानना था कि वेदांत ही भविष्य में मानवता का धर्म होगा। धार्मिक सौहार्द्र वेदान्त का सार है। उन्होंने लिखा है कि विवेकानंद ने सभी लोगों को अपने-अपने धर्म की डोर को मजबूती से थामने की शिक्षा दी।

लेख में वर्णित तथ्यों के मुताबिक विवेकानंद जिस समय शिकागो गए थे उस वक्त अमेरिका गृहयुद्ध जैसी स्थिति से जूझ रहा था और तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति ने धार्मिक मान्यताओं की जड़ों को हिला दिया था। ऐसे में अमेरिकी लोग एक ऐसे दर्शन की प्रतीक्षा में थे जो उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाए। विवेकानंद ने अपने विचारों से उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए आशा की किरण दिखाई।

विवेकानंद ने अपने जीवन के आखिरी दिन बेलूरू स्थित रामकृष्ण मठ में बिताए। लगातार यात्राओं से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वह शारीरिक रूप से दिन ब दिन कमजोर होते गए। बताया जाता है कि उन्होंने अपने निर्वाण से पहले यह कह दिया था कि वह 40 वर्ष की उम्र तक जिंदा नहीं रह पाएंगे। उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई और इस आध्यात्मिक गुरु ने अपने विचारों से विश्व को जाज्वल्यमान् करने के बाद 04 जुलाई 1902 को दुनिया को अलविदा कह दिया।

वर्तमान समय मे स्वामी विवेकानंद की प्रासंगिकता ..


आज इस मंच पर स्वामी विवेकानंद जी पर काफी कुछ लिखा जा चुका है……… पर कुछ महान आत्माएं ऐसी होती है की जिनके बारे मे सबकुछ लिखे जाने के बाद भी कुछ शेष रह जाता है……… जिनके बारे मे लिखने ओर बोलने मे भी सम्मान का भाव पैदा होता है………… तो इसी लोभवश कुछ शब्द मैं भी लिखना चाहता था सो लिख रहा हूँ……….




स्वामी विवेकानंद का जीवन वर्तमान समय मे आदर्श है………. उनके जैसा विचारशील युवा अब होना मुश्किल है…….. आज जब की पश्चिम की देखा देखि हम अपनी बहुमूल्य सम्पदा अपनी संस्कृति को त्याग कर पाश्चात्य संस्कृति के रंग मे रंग रहे है……… तो ऐसे मैं विवेकानंद का स्मरण किया जाना आवश्यक है……… विवेकानंद ने जिस संस्कृति को हम अनदेखा कर रहे हैं ……. उसे यूरोप मे अपने ओजपूर्ण भाषण से ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया…………….


यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है की हिन्दू धर्म की पताका यूरोप मे फहराने वाले स्वामी विवेकानंद आज के युवा की भाति ही तार्किक प्रवृति के थे……… पर आज के युवा की तरह उन्होने कभी भी यूं ही धर्म ओर संस्कृति पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की……… उन्होने इसके बारे मे जानने के लिए प्रयास भी किया……… कई गुरुओं की शरण मे जा कर वो अंत मे रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचे ……….. परमहंस ने इस युवक को अपने प्रमुख शिष्य का स्थान दिया……..





स्वामी विवेकानंद के संदर्भ मे कई ऐसे प्रसंग है जो उनकी महानता को प्रदर्शित करते हैं……….. जैसे स्वामी विवेकानंद जब शिकागो सम्मेलन मे भाग लेने गए तो वहाँ इस बात की बड़ी चर्चा थी की विवेकानंद ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं……. तो एक सुंदर युवती उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से वहाँ पहुंची …… युवती ने निवेदन करते हुए कहा ….


महाराज मैं आपकी ही तरह एक तेजस्वी पुत्र चाहती हूँ……….
विवेकानंद ने तत्क्षण उस युवती से कहा तो आज से ही आप मुझे अपना पुत्र मान लीजिये……..
ओर इस तरह उन्होने उस युवती को अपने उत्तर से शर्मिंदा कर दिया……….




किन्तु कभी कभी ये प्रश्न उठता है की जब कभी भी इस देश के गौरव की बात होती है तो हम सम्मान से कहते है की हम उसी देश के हैं जहां स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष हुए……….


पर जब बाहर के देशों से आई हुई महिला पर्यटकों के साथ दुर्व्यवहार व छेदखानी की घटनाएँ होती है तो हम भूल जाते हैं की हम उस महापुरुष के गौरव को भी खंडित कर रहे है, जिसने अपने अदभूद उत्तर से उस युवती को निरुत्तर कर दिया………




जब स्वामी विवेकानंद विदेश गए…….. तो उनकी भगवा वस्त्र ओर पगड़ी देख कर लोगों ने पूछा “ आपका बाँकी सामान कहा है….?” स्वामी जी बोले…. “बस यही सामान है“….
तो कुछ लोगों ने व्यंग किया कि……. “अरे! यह कैसी संस्कृति है आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है……. कोट – पतलून जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है… ?”
स्वामी विवेकानंद मुस्कुराए……. ओर बोले …….. “हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से भिन्न है…. आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं…… जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है….. संस्कृति वस्त्रों मे नहीं, चरित्र के विकास मे है……”




यदि आज के वर्तमान दौर मैं स्वामी विवेकानंद पुनः इस धरा पर अवतरित हों तो उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना होगा…….. तब घर के संस्कारों को बाहर दूर तक फैलाना था……. ओर आज पहले घर मे घुस ओर बस चुके बाहर के कुसंस्कारों को हटाना होगा…………. हर बार हम विवेकानंद जी की जयंती मानते हैं………….. पर कभी भी उनकी बातों मे खुद अमल नहीं करते……




मैंने पढ़ा था (वाक्य ठीक ठीक याद नहीं ) की विवेकानंद ने कहा था की मुझे 50 युवा मिल जाए तो मैं नव राष्ट्र निर्माण कर सकता हूँ…… पर तब उन्हें इतने युवा नहीं मिले …….. पर आज अगर पूछा जाए तो कई लाख लोग कहते मिल जाएंगे की यदि तब हम होते तो हम उनका साथ देते…….
पर शायद नहीं ……… तब हम भी इंतज़ार करते की कब वो परमधाम पहुँच जाएँ ओर हम उनको पूज्य बना कर हर झंझट से बच जाए…….. क्योकि जिंदा व्यक्ति के सामने झूठ नहि चल सकता …… पर उनकी तसवीर के सामने न जाने क्या क्या हम कर जाते हैं……. तो ये जरूरी नहीं की विवेकानंद जी के राष्ट्र निर्माण के लिए उनका पुनः आगमन आवश्यक है………. आवश्यकता है तो उस संकल्प की ओर उनके दिखाये मार्ग पर चल कर अपनी धर्म और संस्कृति की रक्षा की……………

http://piyushpantg.jagranjunction.com/2011/01/12/%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%AF-%E0%A4%AE%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5/

विवेकानंद ने समझाया जाति व कर्म का भेद


एक बार स्वामी विवेकानंद अपने परिचितों के मध्य बैठे वार्तालाप कर रहे थे कि उनका एक शिष्य आया और उन्हें प्रमाण निवेदन कर एक कोने में बैठ गया। स्वामीजी ने स्नेह से उसे अपने पास बैठने के लिए कहा, तो वह सकुचाते हुए उठा और उनके समक्ष जाकर खड़ा हो गया। उपस्थित सभी लोगों ने सोचा कि स्वामीजी का यह शिष्य विनम्रतावश ऐसा कर रहा है। स्वामीजी ने खड़े होकर उसका हाथ पकड़ा और अपने पास बैठा लिया। फिर उसके आने का प्रयोजन पूछा। वह बोला- गुरुवर, मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप मेरे घर भोजन करें। क्या आपको मेरा निमंत्रण स्वीकार है।

स्वामीजी ने सहर्ष कहा- क्यों नहीं, मैं तुम्हारे घर कल अवश्य आऊंगा और भोजन भी गृहण करूंगा।

अगले दिन स्वामीजी तय समय पर उस शिष्य के घर पहुंचे और भोजना करना शुरु किया। कुछ करीबी लोग भी उनके साथ थे जिन्हें तब तक यह ज्ञात हो चुका था कि स्वामीजी का वह शिष्य एक निचली जाति से है। वे सभी स्वामीजी को रोकते हुए कहने लगे- आप कुलीन होकर इसके यहां भोजन कर स्वयं को अपवित्र क्यों कर रहे हैं? तब स्वामीजी ने उनसे कहा- भोजन तो जाति से नहीं, अन्न से बना है और आपके व हमारे घरों में बनने वाले भोजन जितना ही स्वादिष्ट है। व्यक्ति जाति से नहीं, कर्म से उच्च या निम्न होता है। इसके कर्म अच्छे हैं, तो यह आप सभी के जैसा व जितना कुलीन है।

स्वामीजी की दो दो टूक बातों ने विरोधियों को क्षमा मांगने पर विवश कर दिया।

वस्तुत: जातिभेद संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है क्योंकि यह मनुष्य द्वारा बनाया गया है। ईश्वर तो प्रत्येक व्यक्ति का निर्माता है, जिसने जाति या धर्म में बांटकर उसे नहीं बनाया। वस्तुत: ये व्यक्ति के अच्छे या बुरे कर्म होते हैं, जो उसे श्रेष्ठ अथवा अधम बनाते हैं। अत: व्यक्ति का मूल्यांकन धर्म के आधार पर नहीं वरन कर्म के आधार पर करना चाहिए।