गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक...'

बचपन से ही बड़ा उत्साह सा रहा है इसके प्रति. सुबह-सुबह नहा-धोकर स्कूल के लिए निकल पड़ना..उस दिन स्कूल ज्यादा आनंद दायक लगता था, क्योंकि उस दिन बस्ता ले जाने की पाबन्दी नहीं होती थी, ना ही पढने की और ज्यादा प्रतीक्षित तो वो लड्डू थे जो झंडा फहराने के बाद मिलते थे. थोडा बड़ा होते-होते भाषण देने की लत भी लग गयी थी, इसलिए ऐसे अवसरों का और भी बेसब्री से इंतजार रहने लगा था.
उन दिनों भाषण की तैयारी के बहाने ही सही, बड़े-बड़े देशभक्तों की कहानियां ध्यान से पढ़ा करता था. आश्चर्य होता था भगत सिंह, राजगुरु जैसे दीवानों के किस्से पढ़कर. और गांधीजी के 'सत्य के प्रयोग' ने तो मन ही मोह लिया था. मन में वही क्रांतिकारी तेवर करवट लिया करते थे और 15 अगस्त, 26 जनवरी के आसपास कुछ ज्यादा ही.
बात ज्यादा पुरानी भी नहीं है ये सब, यही कोई आठ-दस साल ही तो हुए हैं उस देशभक्त बचपन को बीते हुए. शनै-शनै अन्दर का देशभक्त खोने लग गया था, भाषण की आदत तो नहीं छूटी थी, मगर अब भाषण में मेरी आत्मा ना होकर एक लोकेशना का मोह ज्यादा रहने लगा था. धीरे-धीरे भाषण का मंच भी खो गया और मोह भी.
लेकिन आज अचानक सड़क पर पुलिस की बढ़ी हुई चहलकदमी देखकर याद आया कि 'दिवस' आने वाला है. एक अजीब सा तुलनात्मक भाव आ रहा है मन में.
खुद की तुलना खुद से करते हुए भी एक अंतर लग रहा है. आज में रह कर देखता हूँ तो वह देशभक्त सा बचपन स्वप्न लगता है और उस बचपन में जाकर देखता हूँ तो आज का सच वहशी लगता है.
और जब ये तुलना बाहर समाज में निकलती है तो दृश्य और भी भयावह हो जाता है. याद आ रही है वो 'मेरा रंग दे बसंती चोला' वाली किताबों में पढ़ी हुई पीढी. विश्वास नहीं होता कि कैसे हमारी ही उम्र के वो नौजवान इतना कष्ट झेल लेते थे देश के लिए?
जाने कैसे देश के लिए जान देने जैसी तत्परता थी उनके भीतर?
उतावलापन सा रहता था उनके मन में देश की स्थिति पर चिंतन करने और उसे सुधारने के लिए.
बेचैन रहते हर वक़्त आम मानुष के लिए. गाते तो देश, नाचते तो देश. खाते-पीते, सोते-जागते सिर्फ देश की बात......बचपन में उनकी कहानी पढ़ते-पढ़ते जोश में आकर गाया करता था 'मेरा रंग दे बसंती चोला,ओ माये रंग दे बसंती चोला....' और फिर मुझ जैसे कई देशभक्त गाने लगते थे अपनी-अपनी आवाज में.

अपनी देशभक्ति के अवसान काल में भी "LOC kargil" फिल्म देखने का जज्बा सा जाग पड़ा. हाल पहुँच कर बड़ा सुकून मिला था. अच्छी खासी भीड़ थी देखने वालों की. लगा कि चलो देश मरा नहीं है. दर्शकों में ज्यादातर युवा ही थे, मेरी ही उम्र के आसपास के.
फिल्म चल पड़ी थी, मेरा उत्साह जोर मार रहा था. लेकिन युवा साथी कुछ शांत से लग रहे थे, लड़ाई का सीन शुरू होते ही सबकी चेतना वापस आने लगी थी. लेकिन अचानक हुए शोर से (हूटिंग कहते हैं) मैं थोडा सा चौंक गया था, कारण समझ नहीं आया था शोर का. फिर थोडी देर में पता लगा कि शोर कही गयी बातों पर नहीं हो रहा था, बल्कि तालियाँ तो उन शब्दों पर बज रही थीं जिन्हें "बीप-बीप" की आवाज में डायरेक्टर ने छुपा दिया था, शायद सेंसर के चलते. मगर मैं सोच रहा था कि अब सेंसर कहाँ गया..ना कहते हुए भी कह देने का तरीका भी तो है.
शोध कहते हैं कि सोशल नेट्वर्किंग साइट्स का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर युवा इनके जरिये ऐसे ही नए चलन में आये हुए स्टाइलिश शब्दों का आदान प्रदान करते हैं. "डेल्ही बेली" और "देव डी" की तारीफ इनकी जबान पर है.
बातें तो LOC की भी होती थी, लेकिन "बीप-बीप" की चर्चा ज्यादा थी.
ऐसे ही एक शोध के मुताबिक इन्टरनेट का इस्तेमाल कर रही पीढी का एक बड़ा हिस्सा अश्लील साइट्स के सर्च को प्राथमिकता में रखता है. अछूता मैं खुद भी नहीं रहा इस से. मगर इस सच ने अचानक झकझोर दिया है. मैं सोच रहा हूँ कि हम सब किस ओर बढ़ रहे हैं?
यह युवा पीढी, जिसके कन्धों पर आगे देश की बागडोर होगी, वह कहाँ खोयी हुई है?
पिछले सालों में और भी ऐसा ही बवाल मचा हुआ था 'सच का सामना', स्वयंवर और बिग बॉस जैसे धारावाहिकों को लेकर.

जितनी निर्लज्जता के साथ निर्देशकों ने इन्हें पेश किया था, प्रतिभागी हिस्सा ले रहे थे, उतनी ही निर्लज्जता के साथ कुछ बुद्धिजीवी इसके समर्थन का राग भी अलाप रहे थे. तर्क दिया जा रहा था कि आखिर अमेरिका में भी तो यह धारावाहिक चलता है.

भैया अमेरिका में तो शादी की पाँचवीं सालगिरह मनाने की नौबत ही नहीं आती, लेकिन भारत में सात जन्मों का साथ निभता है.
तासीर का फर्क तो समझो अमेरिका और भारत की. वहां "माँ सिर्फ पिता की पत्नी होती है."

इया साल भी कहीं कुछ नया नहीं दिख रहा है. आज भी 'डेल्ही बेली' जैसी फिल्मो के समर्थन में ऐसे ही बेहूदा तर्क दिए जा रहे हैं.
आश्चर्य है अब देश की चर्चा, मूलभूत समस्यायों की चर्चा करने के लिए किसी के पास समय ही नहीं बचा है.
हर साल की तरह फिर एक बार स्वतंत्रता दिवस आने वाला है. उत्साह हर रोज घटता जा रहा है. अब भगत सिंह पैदा तो होना चाहिए लेकिन हमारे घर में नहीं पडोसी के घर में.

'सरदार भगत सिंह के आखिरी उदगार' पढ़ रहा था, यकीन ही नहीं होता कि जिस उम्र में साला हम एक खरोंच से डर जाते हैं, उसी उम्र का वो बन्दा कितनी बेफिक्री से अपने मरने के तरीके सुझा रहा था ब्रिटिश सल्तनत को. हमें बेकार की लफ्फाजियों से फुर्सत नहीं और भगत सिंह पूरी दुनिया को अर्थशास्त्र सिखा रहे थे.
जब सारा देश महात्मा गाँधी का पूजा की हद तक सम्मान कर रहा था तब कैसी बेबाकी और साफगोई से सुखदेव ने उन्हें पत्र लिखकर अपना और क्रांतिकारियों का पक्ष रखा और अपने लिए माफ़ी की बात खारिज कर दी..
पता नहीं किस मिटटी के बने थे वो? या शायद इस पीढी की मिट्टी ख़राब हो गयी है. !!
मंहगाई, भूख, बेरोजगारी, लूट, बलात्कार सब कुछ तो है, बस अगर कुछ नहीं है तो वो है इन बातों पर चिंतन करने और इन्हें ख़त्म करने वाली जमात. 'डेल्ही बेली' पर तो बहस है लेकिन इन जमीनी मुद्दों पर कहीं चूं भी नहीं है.
सब खोजने में लगे हुए हैं चोली के पीछे के राज को..
'रंग दे बसंती चोला' से 'चोली के पीछे क्या है' तक के इस सफ़र में देश कहाँ चला गया और कब चला गया, पता ही नहीं चला.
कब मेरे भीतर का भारत मर गया, मैं सोचकर अनुत्तरित हूँ.
कैसे "वन्दे मातरम" की सेज बनने वाले होंठ "गालियों का गलीचा" बन गए?
कैसे चोले को उस रंग में रंगने की जिद में अड़ा हुआ मन चोली के पीछे का सच खोजने निकल पड़ा?
स्वतंत्रता दिवस कैसे पर्व से जयंती बन गया?


कौन जिम्मेदार है इस वैचारिक और नैतिक पतन का?
है कोई जवाब आपके पास मेरी इस उलझन का?
हो तो जरूर बताइयेगा.....
पड़ताल अभी जारी है..

utkarsh-shukla.blogspot.com

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