गुरुवार, 19 जुलाई 2012

आनंद मरा नहीं… आनंद मरते नहीं-1

फ़िल्म आनंद में राजेश खन्ना
फ़िल्म "आनंद" में राजेश खन्ना
हृषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्मित और निर्देशित 1971 की फ़िल्म “आनंद” एक बहुत ही मार्मिक फ़िल्म है। तमाम किस्म की मानवीय भावनाओं का इतना सूक्ष्म और सक्षम चित्रण कम ही हिन्दी फ़िल्मों में हो पाया है। मेरे विचार में “आनंद” को भावनात्मक (मैं मेलोड्रामा शब्द प्रयोग नहीं करना चाहता) हिन्दी फ़िल्मों में शायद सबसे अधिक सशक्त माना जा सकता है। इस फ़िल्म को देखकर स्त्री हो या पुरुष –सभी सिनेमा हॉल में रो दिया करते थे। मैंने खुद भी इस फ़िल्म को पाँच-छह बार देखा है –और हर बार दिल भर आया। “आनंद” को इतना तीक्ष्णता देने में कई लोगों का हाथ रहा –लेकिन सबसे बड़ा योगदान स्वयं आनंद उर्फ़ राजेश खन्ना का था।
हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार माने जाने वाले राजेश खन्ना का आज 69 वर्ष की आयु में देहांत हो गया… खबर पढ़ते ही मैंने यह लेख लिखना शुरु कर दिया। राजेश खन्ना को मैं अपने श्रद्धासुमन “आनंद” पर इस लेख के ज़रिए अर्पित कर रहा हूँ। राजेश खन्ना ने ही फ़िल्म में आनंद के आशा और उत्साह से भरे चरित्र को अमर किया था।
“लिम्फ़ोसार्कोमा ऑफ़ द इंटेस्टाइन… वाह, वाह… क्या बात है, क्या नाम है! ऐसा लगता है जैसे किसी वॉयसराय का नाम हो! बीमारी हो तो ऐसी हो नहीं तो नहीं हो!” … आनंद फ़िल्म के कई मशहूर संवादों में से एक यह भी था। यह संवाद आनंद की जिजिविषा को दर्शाता है और उसे दर्शकों के समक्ष एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है जिसके लिए “मुश्किल” नामक किसी शब्द का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वह हर ग़म में, हर दर्द में मुस्कुराना जानता है।
आंतो के कैंसर से पीड़ित होने के बावज़ूद जीवन को भरपूर जीने की इच्छा आनंद के चरित्र का मूलाधार है। उसे मालूम है कि इस दुनिया में उसके गिने-चुने दिन शेष हैं (वैसे हममें से किसे यह मालूम नहीं होता?) इसलिए वह अपने हर क्षण का भरपूर उपयोग लोगों के बीच खुशियाँ बांटने में करना चाहता है (सत्य जानने के बावज़ूद हममें से कितने लोग आनंद की इस फ़िलॉसफ़ी को अपना पाते हैं?)
यह फ़िल्म हमें सोचने और महसूसने के लिए बहुत कुछ देती है। फ़िल्म के खत्म होते-होते हमारी भावनाओं की ज़मीन पर अनगिनत विचारों के अंकुरों की फसल तैयार हो चुकी होती है जिसे हम आने वाले कई दिन तक सींचते या काटते रहते हैं। मैंने जब भी इस फ़िल्म को देखा तो हर बार सोचा है कि क्या जिस आनंद को हम फ़िल्म में देखते हैं वह वैसा इसलिए है क्योंकि उसे मालूम है कि वह कुछ ही दिन में इस जहाँ से चला जाएगा। फ़िल्म में आनंद के बीमारी होने से पहले का एक सीन है –जिसमें उसे अपनी प्रेमिका से बात करते दिखाया जाता है। मेरे ख्याल में बीमारी से पूर्व आनंद के मन में भी सैंकड़ो ख़्वाब होंगे। शादी, बच्चे, घर, करियर इत्यादि… लेकिन बीमारी के बाद के जिस आनंद को हम जानते हैं उसके मन में केवल एक ख्वाब है: दुनिया को कुछ देकर जाने का ख्वाब। आनंद के पास देने के लिए खुशी और उम्मीद के अलावा और कुछ नहीं है –सो वह वही बांटता है जो उसके पास है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि खुशी और उम्मीद स्वयं आनंद के जीवन में कोई मायने नहीं रखती। खुशियाँ उसकी समाप्त हो चुकी हैं और मौत की स्पष्ट आहट ने उम्मीद को भी मार दिया है। इसलिए वह दूसरों को खुशी और उम्मीद देकर अपना जीवन जीता है। आनंद की संवेदनशीलता इस संवाद में बखूबी झलकती है: “तुझे क्या आशीर्वाद दूं बहन? ये भी तो नहीं कह सकता कि मेरी उम्र तुझे लग जाए”
आनंद के चरित्र की इन विशेषताओं को अपनाना कोई मुश्किल काम नहीं है लेकिन फिर भी कोई विरला इंसान ही ऐसा कर पाता है। यह एक लोकप्रिय प्रश्न है कि यदि आपको यह पता चल जाए कि आपके जीवन में बस पाँच मिनट ही शेष बचे हैं तो आप इन पाँच मिनट में क्या करेंगे? इस प्रश्न के उत्तर में आप जिन भी चीज़ों को करने के बारे में सोचते हैं –दरअसल वही चीज़ें आपके जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण होती हैं। हमारे जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण क्या है –यह जानना कितना आसान है ना! लेकिन फिर भी हम अपना अधिकांश जीवन उन चीज़ों को करते हुए बिताते हैं जो हमारे लिए उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। कैसी विडम्बना है! शायद इसी का नाम माया है जो हमारी बुद्धि पर पर्दा डाले रहती है।
आनंद फ़िल्म में “मुरारीलाल” का चरित्र भी बहुत रोचक है। मुरारीलाल कोई भी हो सकता है, हर कोई हो सकता है और वो आपको कहीं भी मिल सकता है। मुरारीलाल धर्म, रंग-रूप, उम्र, लिंग, देश इत्यादि के बंधनो से परे होता है। अपने-अपने मुरारीलाल को खोजना हम सबके लिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि वह “सच्चा मित्र” नामक उस प्रजाति का प्रतिनिधि है जो आज की दुनिया से लुप्त होती जा रही है। आनंद को उसका “मुरारीलाल” ईसा भाई सूरतवाला (जॉनी वाकर) के रूप में मिला। कुछ ही पलों में आनंद ने एक अजनबी में सच्चा मित्र पा लिया।
डॉक्टर भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) का चरित्र फ़िल्म की शुरुआत से लेकर आखिर तक एक बड़े बदलाव से गुज़रता है। ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाईयों से हताश और कुछ हद तक पत्थर हो चुका भास्कर बैनर्जी आनंद के निर्मल मन की कोमलता से बच नहीं पाता और आखिरी सीन में आनंद की मौत पर एक बच्चे की तरह रोता पाया जाता है। आनंद की देह मर गई; लेकिन जाने से पहले उसने स्वयं को कितने ही लोगों के जीवन का हिस्सा बना दिया। इसीलिए भास्कर ने कहा कि:
आनंद मरा नहीं… आनंद मरते नहीं
आनंद फ़िल्म से कुछ और मार्मिक संवाद (मेरी मित्र अनन्या द्वारा भेजे गए)
“मौत तो एक पल है बाबू मोशाय, बाबू मोशाय ज़िन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं” – आनंद
“एक मरा नहीं और दूसरा मरने के लिए पैदा हो गया” –भास्कर
“मानता हूँ कि ज़िन्दगी की ताक़त मौत से ज़्यादा बड़ी है; लेकिन ये ज़िन्दगी क्या मौत से बदतर नहीं? कॉलेज से डिग्री लेते हुए ज़िन्दगी को बचाने की कसमें खाई थीं; और ऐसा लग रहा है जैसे कदम-कदम पर मौत को ज़िन्दा रखने की कोशिश कर रहा हूँ” –भास्कर
“आप अचानक नाराज़ क्यों हो गए? ओह! समझा। आप मुझसे नहीं, अपने आप से नाराज़ हैं क्योंकि मेरा इलाज नहीं हो सकता ना इसलिए” – आनंद
“मौत के डर से अगर ज़िन्दा रहना छोड़ दिया तो मौत किसे कहते हैं?” –आनंद
“भगवान से तुम्हारा सुख नहीं, शांति चाहती हूँ” –मैटर्न
“हैरान हूँ कि वो मौत पर हंस रहा था या ज़िन्दगी पर?” –भास्कर
आनंद फ़िल्म से मेरे कुछ और पसंदीदा संवाद
“बाबूमोशाय… ज़िन्दगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है जहांपनाह, उसे ना आप बदल सकते हैं और ना मैं। हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, जिनकी डोर ऊपरवाले की उंगलियों में बंधी है, कब कौन कैसे उठेगा… कोई नहीं बता सकता” –आनंद
“ऐ बाबूमोशाय! ऐतो भालो बाशा भालो नाय, इतना प्यार अच्छा नहीं है” – आनंद
“ये तो ज्योतिष विद्या की बात है, मुख को देखकर मन की पुस्तक पढ़ लेते हैं” –आनंद
“बांध के मुझे कोई नहीं रख पाएगा मम्मी! ठीक निकल जाऊंगा!” –आनंद
“भास्कर बस कर! और टालने की कोशिश मत कर!” –आनंद
“अब (भगवान को) मानने को जी चाहता है। आनंद के लिए कुछ भी मानने को जी चाहता है” –भास्कर
“तब तो ऐसे आदमी को छोड़कर भगवान भी नहीं रह सकते” –रेनू
क्या आप जानते हैं
  • आरम्भ में हृषिकेश मुखर्जी आनंद का चरित्र निभाने के लिए किशोर कुमार और भास्कर बैनर्जी का चरित्र निभाने के लिए महमूद को लेना चाहते थे। लेकिन एक ग़लतफ़हमी के चलते किशोर कुमार के दरबान ने हृषिकेश मुखर्जी को दरवाज़े से ही लौटा दिया। आहत हृषिकेश दा ने किशोर कुमार के साथ काम ना करने का निर्णय लिया और राजेश खन्ना को आनंद व अमिताभ बच्चन को “बाबू मोशाय” की भूमिका दे दी।
  • आनंद का चरित्र राज कपूर से प्रभावित था। राज कपूर हृषिकेश दा को “बाबू मोशाय” कहा करते थे। हृषिकेश दा ने आनंद की कहानी तब लिखी थी जब राज कपूर बहुत बीमार थे और हृषिकेश दा को लगा कि राज कपूर अब नहीं बचेंगे।
  • कहा जाता है कि हृषिकेश दा ने पूरी फ़िल्म केवल 28 दिन में शूट कर ली थी।
  • हृषिकेश दा ने इस फ़िल्म में संगीत देने के लिए पहले-पहल लता मंगेशकर से बात की थी; लेकिन लता जी द्वारा मना कर देने पर संगीत निर्देशन का काम सलिल चौधरी को दिया गया। लता ने इस फ़िल्म में एक गीत गाया है।
  • हृषिकेश दा ने गुलज़ार साहब को निर्देश दिया था कि फ़िल्म कुछ ऐसे शुरु होनी चाहिए जिससे दर्शकों को शुरु में ही पता लग जाए कि आनंद मर गया है। हृषिकेश दा दर्शकों को इस सस्पेंस में नहीं रखना चाहते थे कि आनंद की मृत्यु हो जाएगी या वह बच जाएगा। इसके बजाए हृषिकेश दा दर्शकों का ध्यान पूरी फ़िल्म में इस बात पर रखना चाहते थे कि आनंद ने अपने जीवन को किस खूबी से जिया।
  • हृषिकेश दा “ज़िन्दगी कैसी है पहेली” गीत को फ़िल्म की शुरुआत में आने वाली “श्रेय सूची” के साथ बैकग्राउंड में बजाना चाहते थे। लेकिन राजेश खन्ना को लगा कि इतने सुंदर गीत के साथ यह अन्याय होगा। राजेश खन्ना के सुझाव पर ही हृषिकेश दा ने फ़िल्म में परिस्थिति का निर्माण कर इस गीत को बीच में शामिल किया।
  • उस समय संगीतकार सलिल चौधरी और गीतकार योगेश के करियर का सितारा डूबा हुआ था। “आनंद” फ़िल्म के गीतों ने इन दोनों के करियर नया जीवन दिया।
  • फ़िल्म आनंद को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार, राजेश खन्ना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार, अमिताभ बच्चन को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। हृषिकेश दा को सर्वश्रेष्ठ कहानीकार व सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म संपादन के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार प्राप्त हुए
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