बुधवार, 31 अगस्त 2011

क्रान्तिकारी वीर सावरकर की इच्छा-मृत्यु

स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी ने मृत्यु से दो वर्ष पूर्व 'आत्महत्या या आत्मसमर्पण' शीर्षक से एक लेख लिखा था। इस विषय से संबंधित अपना चिंतन उन्होंने इस लेख में स्पष्ट किया था। स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी का जीवन जिस प्रकार विलक्षण था, उसी प्रकार उनकी मृत्यु भी लोकोत्तर सिद्ध हुई। उनके मृत्यु की घटना भी अद्वितीय महत्व की रही। आधुनिक समय में अपने जीवन को स्वेच्छा से अनशन द्वारा समाप्त कर लेने वाला उनके समान कोई दूसरा नहीं हुआ। जिस प्रकार भारत में एक ही लोकमान्य हुए, देशबंधु भी एक ही हुए, उसी प्रकार स्वातंत्र्यवीर भी इस दृष्टि से वे अकेले ही गिने जायेंगे।

देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जीवन दिया और अंत में अपने ही प्रयत्न द्वारा स्वेच्छा से मृत्यु का भी वरण किया। जीवन कार्य संपन्न करने के लिए जब तक कार्य करना संभव रहा तब तक वे जिये, यहां तक कि अंदमान की काल कोठरी में भी साक्षात् मृत्यु यातना भोगते हुए वे जीवित रहे। और जब, उनका जीवन कार्य उन्हें समाप्त हुआ लगा, तब यद्यपि औषधि उपचार के सहारे वे कुछ वर्ष और भी जीवित रह सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसे जीवन का मोह त्यागकर अनशन द्वारा अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर ली। इस संबंध में उनका जो चिंतन था उसे उन्होंने उपर्युक्त लेख में अभिव्यक्त किया है। यद्यपि मेरे सामने इस समय वह लेख नहीं है फिर सभी लोगों को यह ज्ञात है कि उन्होंने उस लेख में ज्ञानेश्वर और एकनाथ आदि के श्रेष्ठ उदाहरण देकर अपनी विचारधारा स्पष्ट की है।

'आत्महत्या' अभारतीय
'आत्महत्या' शब्द यद्यपि भारतीय भाषाओं में काफी प्रचलित है तथापि मूलत: यह भारतीय नहीं। यह अंग्रेजी शब्द का ही अनुवाद है। संस्कृत ग्रंथों में देहत्याग के अर्थ में आत्महत्या शब्द उपयोग किया हुआ कहीं भी उपलब्ध नहीं है। पुनर्जन्म न मानने वाले पश्चिमी लोगों में आत्महत्या को एक पाप माना गया है। आत्महत्या का प्रयत्न करना एक अपराध समझा जाता है। वैसे यह ठीक भी है, क्योंकि परमात्मा ने जिस उददेश्य से यह मानव-जन्म दिया है, उसका विचार न करते हुए इस प्रकार जीवन का अंत करना वास्तव में ईश्ररेच्छा के विपरीत व्यवहार करना ही है। परमात्मा ने जितनी आयु प्रदान की है, उतनी मनुष्य को जीना चाहिए। इस विचारधारा में गलत बात कोई नहीं है। भारतीय दण्ड विधान में इसी प्रकार की व्यवस्था है, जो अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित कानून व्यवस्था के माध्यम से आज भी रूढ़ है।

पश्चिमी देशों के लोगों में अन्य कितने ही दोष हैं, परंतु उनमें प्रत्येक विषय पर एक निश्चित पद्धति से अध्ययन करने का अभ्यास अवश्य है। उनकी इस अध्ययनशीलता की आदत में से अनेक प्रकार की व्यवस्थाओं का उदय हुआ है। तदनुसार वहां संस्थाएं बनी हैं। उदाहरणार्थ आत्महत्या प्रतिबंधक समितियां हैं, वृद्धाश्रम स्थापित हैं और असह्य जीवन होने पर मृत्यु प्राप्त करने की व्यवस्था भी है। जब किसी असह्य और असाध्य रोग से ग्रसित रोगी इच्छा व्यक्त करता है तो रोगी को मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में इंजैक्शन देकर रोग के कष्ट से मुक्त करने याने समाप्त करने की प्रथा वहां है। कहा जाता है कि पश्चिमी देशों में भारत की तुलना में आत्महत्या का प्रमाण बहुत अधिक है। परंतु हमारे यहां कोई भी ऐसा नहीं समझता कि इस विषय का गंभीर अध्ययन करना चाहिए।

आधुनिक काल में हमारे यहां आत्महत्या शब्द का उच्चारण करते ही सामान्यत: विषाद, बेचैनी तथा घृणा से मन भर जाता है। इसका कारण यह है कि आत्महत्या करने वाले मनुष्यों के जो उदाहरण आंखों के सामने आते हैं, उनमें बहुधा लोग तरुण आयु के ही रहते हैं। कोई परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण किसी जलाशय में कूद कर अपना जीवन समाप्त कर लेता है, कोई प्रेमभंग होने पर विष खा लेता है अथवा कोई व्यक्ति लाख दो लाख रुपयों का भ्रष्टाचार करता है और जब उसकी पोल खुलती है तब वह अपनी संपत्ति रिश्तेदारों में बांट देता है। इसके बाद इस मामले में आने वाली यंत्रणा और शारीरिक कष्टों से घबड़ा कर अपना जीवन समाप्त कर लेता है। इस प्रकार के कार्यों के प्रति घृणा निर्माण होना अत्यंत स्वाभाविक है।

जीवन श्रेष्ठ धरोहर
मनुष्य का जन्म नर से नारायण बनने के लिए प्राप्त हुआ है। इस हेतु आवश्यक साधना इस भौतिक देह द्वारा ही संभव है। यही कारण है कि मानव-जन्म की इतनी महिमा भारतीय परंपरा में गायी गयी है। परंतु मोक्ष की ओर आवश्यक साधनरूप इस शरीर को उपयुक्त और समर्थ बनाने के लिए मनुष्य की समाज के बहुत से ऋण चुकाने पड़ते हैं। इन सामाजिक ऋणों को उतारने अथवा उतारने का प्रयत्न करने के बाद भी यदि शरीर अनुकूल स्थिति में रह सका तो मनुष्य अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए साधन-भजन करने हेतु निश्चित हो सकता है। ऋण उतारने की यह कल्पना ही मनुष्य को पशु से भिन्न और ऊंचा स्तर प्रदान करने वाली बात है।

यदि कोई व्यक्ति इन सामाजिक ऋणों की पूर्ति किये बिना ही तरुण आयु में अपने जीवन को समाप्त करने का प्रयत्न करता है तो वह अतीव अनिष्टकारी बात है। तरुण आयु में ही जीवन से निराश होकर जीवन-लीला समाप्त करने का कार्य चोरी करने जैसा ही पाप कर्म है। इसमें कोई शंका नहीं कि यह अपराध है। इस प्रकार का विवेकपूर्ण विचार स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने अपने उपरोक्त लेख के माध्यम से बताया है। परंतु सावरकर जी के इस लेख की समाज में कहीं कोई गंभीर चर्चा हुई दिखाई नहीं देती। फिर उनके द्वारा निर्देशित विवेक के आधार पर कोई अधिक विस्तृत ग्रंथ लिखने का कार्य तो हो ही नहीं सकता।

देहत्याग-पुण्य?
जिन लोगों को अपनी प्राचीन परंपरा की जानकारी है, उन्हें देह को कष्ट देने वाली बात परिचित होगी। इस संबंध में आज प्रचलित धारणा बहुत विचित्र स्वरूप् प्राप्त कर चुकी है। ज्ञानेश्वर महाराज के माता-पिता ने तीर्थ-राज प्रयाग के गंगा-यमुना संगम-स्थल पर जाकर अपना देह विसर्जन किया। आज की प्रचलित धारणा के अनुसार यह कार्य आत्महत्या जैसा ही समझा जायेगा। परंतु प्राचीन भारत में स्थापित परंपरा के अनुसार स्वेच्छा से देह त्याग करने को अपराध नहीं माना जाता था। ऐसी धारणा समाज में रूढ़ थी कि यदि देहत्याग का उद्देश्य खराब हो, तभी उसे पापकर्म मानना, अन्यथा नहीं। उस समय लोग यात्रा करते हुए अपने जीवन की सफलता का परमोच्च-शिखर समझकर हिमालय पर एक विशिष्ट स्थान से नीचे कूदकर देहत्याग करते थे। भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित होने के बाद इस प्रथा को प्रतिबंधित किया गया। सती प्रथा में भी जीवन की सफलता का एक ऐसा ही उद्देश्य छिपा था। बाद में इस प्रथा में खराबी आई और यह प्रथा अंतत: सकारण बंद कर दी गई।

वेदों में कहा गया है 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समा:' याने कर्म करते करते सौ वर्ष जीवित रहने की इच्छा रखना चाहिए। परंतु धर्म ग्रंथों में कहीं भी यह नहीं कहा गया कि केवल अन्न पचाते हुए इन्द्रिय भोगों का उपभोग करने की असक्ति से जीवित रहो। इस प्रकार जीवन जीने और आयु बिताने को श्रेष्ठ मानने का कोई कारण ही नहीं है।

इसीलिए समाज के ऋण को उतारने का जीवन में यथाशक्ति प्रयत्न कर लेने के बाद यदि शरीर साथ नहीं देता तो जो भी साधन ठीक हो, उसके द्वारा जीवनयात्रा समाप्त करने की बात में भला कौन सी गलती है? बिस्तर पर पड़े पड़े जीवन जीने, मल और गंदगी में लिपटे रहने, दूसरों के लिए अनुपयोगी और स्वयं अपने लिए भार स्वरूप होते हुए भी इन्द्रियों के भोग की कभी न शांत होने वाली आसक्ति से चिपटे रहने तथा ऐसा करते-करते टांगें फटकार-फटकार कर एक रोज समाप्त हो जाने में भला कौन सी अच्छाई है? परंतु फिर भी क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि अपने समाज में 70 या 80 प्रतिशत मनुष्य इसी प्रकार की मृत्यु स्वीकार करते हैं?

एकाएक हृदय-क्रिया बंद पड़ने पर मरने वालों की संख्या संबंध में अपवाद मानी जा सकती है। परंतु उनकी संख्या कम ही है। और देश धर्म के लिए निर्भयतापूर्वक संघर्ष करते हुए बलिदान होने वाले लोग तो बिल्कुल इने-गिने ही मिलेंगे। अंतिम स्थिति में इन दोनों प्रकार की अवस्था में जो मृत्यु प्राप्त होती है उस पर किसी का कोई वश नहीं कहा जा सकता। परंतु जिन 70-80 प्रतिशत लोगों का ऊपर उल्लेख किया गया है, वे यदि चाहें तो सार्थक जीवन के साथ समाधानकारक मृत्यु प्राप्त करने का मार्ग अपना सकते हैं इसीलिए यहां यह विचार उपस्थित होता है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने इन लोगों के लिए क्या कोई उचित मार्गदर्शन किया है?

मातृभूमि सेवा के लिए आत्मसमर्पण
इस स्थान पर सावरकर जी द्वारा उपयोग में लाये गये शब्द 'आत्मसमर्पण' की चर्चा करना उपयुक्त होगा है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने अपनी किशोरावस्था में ही यह संकल्प किया था कि अपने जीवन की समस्त शक्ति मातृभूमि की सेवा के लिए लगाना है। और उन्होंने इसी समर्पण भाव से 50-60 वर्ष तक कार्य किया। जीवन में पूरी तरह खिला हुआ यौवन रूपी पुष्प उन्होंने मातृभूमि की सेवा में चढ़ाया है। परमात्मा के कार्य में अपने जीवन की संपूर्ण मातृभूमि की सेवा में चढ़ाया है। परमात्मा के कार्य में अपने जीवन की संपूर्ण शक्ति-बुद्धि अर्पित की। ऐसा करने के बाद वह यौवनपुष्प कुम्हला गया। कुम्हलाये हुए पुष्प का समर्पण भला किस प्रकार किया जा सकता है? उसका तो विसर्जन करना ही योग्य है। इस हेतु जीवन विसर्जित करने की क्रिया को 'आत्मसमर्पण' कहना कदापि योग्य नहीं है।

आजकल 'आत्मसमर्पण' शब्द का रूढ़ अर्थ समाचार पत्रों में एक विशेष अर्थ से संबंधित हुआ दिखाई देता है। पुलिस किसी व्यक्ति की खोज में रहती है, वह व्यक्ति पुलिस के सामने यदि स्वयं उपस्थित हो जाता है, तो आजकल की भाषा में इस कार्य के लिए 'आत्मसमर्पण' शब्द का उपयोग किया जाता है। यह अंग्रेजी शब्द 'सरेन्डर' का अनुवाद है। परंतु मृत्यु कोई पुलिस तो नहीं है और न ही मृत्यु अपने आप में कोई महान् लक्ष्य है। मृत्यु तो एक कपड़ा उतारकर दूसरा पहनने की कोठरी है। जिस प्रकार गंदे हुए कपड़े को मां उतार लेती है और दूसरे सुंदर वस्त्र पहिना देती है, उसी प्रकार मृत्यु भी परम दयामय है। परंतु कभी-कभी मां किसी काम में बहुत व्यस्त रहे और पुत्र खुद हठ धारण कर नवीन कपड़े पहन ले, तब उसमें अनौचित्य भले ही हो, पाप कदापि नहीं है। कहने का अर्थ यह है कि संबंधित विवेचन में आत्महत्या शब्द का प्रयोग करना सर्वथा गलत बात है।

योग-मृत्यु
प्राचीन काल में ब्राह्मण और उसी प्रकार क्षत्रिय भी योग द्वारा देहत्याग करते थे। उन्हें बिछौने पर पड़े मृत्यु वरण करना सर्वथा त्याज्य मालूम होता था 'अनायासेन मरणं विनोदेनैव जीवनम्' यह भाग्यवानों का लक्षण माना जाता था। परंतु आज हम देखते हैं कि संपूर्ण जीवनभर दूसरों की टहलचाकरी करते हुए और तदुपरांत अत्यंत कष्टमय जीवन लंबे समय तक भोगने के बाद घिस-घिस कर लोग मरते हैं। मृत्यु को महाभयंकर एवं अशुभ माना जाता हैं। यदि किसी ने अपने जीवन में निश्चित कर्त्तव्य निभा पाने में शरीर को असमर्थ पाकर स्वेच्छा से शरीर-त्याग किया तो उसके इस कार्य को आत्महत्या जैसे घृणोत्पादक शब्द से पुकारा जाता है।

समाज की इस स्थिति को देखकर ही स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ने अपने जन्मजात धैर्ययुक्त स्वभाव से इसविषय की तर्कशुद्ध चर्चा की और वैदिक तत्वज्ञान को प्रकाशित किया। सावरकर जी का यह कार्य न केवल उल्लेखनीय है वरन् अच्छी प्रकार से अध्ययन करने लायक भी है। उनके इस लेख का विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने और समाज की परिस्थिति के साथ उस विचार की दूरी आंकने से संबंधित विषय के जो विभिन्न पहलू हैं, उन सबका विस्तारपूर्वक विवेचन करने बैठें तो एक मोटा ग्रंथ तैयार हो सकता है। कोई व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक यदि ऐसा ग्रंथ तैयार करे तो साहित्य में उल्लेखनीय उपलब्धि हो सकेगी, क्योंकि यह विषय ऐसा है कि जिसकी चर्चा संपूर्ण विश्वभर में हो सकती है।

सावरकर जी को यह बात भलीभांति मालूम थी कि मृत्यु सुखद और सुलभ नहीं है। इस विचार को उन्होंने अपने द्वारा रचित गोमांतक काव्य में एक स्थान पर इस प्रकार प्रकट किया है-


सोडिलाहि परि केंव्हां श्वास अंतिम ना सुटे।
जीव दु:खार्थ लोकांचा जावया बहुधा हटे॥

इसलिए जीवन के साथ-साथ मृत्यु के इस मूलभूत महत्व की ओर सभी लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए उनके द्वारा लिखित इस उपेक्षित लेख का स्मरण करने का प्रयत्न यहां किया गया है। इस संबंध में श्रेष्ठ विचारकों द्वारा यदि अधिक चिंतन, मनन हो तो वह योग्य साहस का कार्य होगा।
(संदर्भ- मृत्युंजय भारत, लेखक- उमाकांत केशव आपटे, सुरुचि साहित्य, नई दिल्ली)




उमाकांत केशव आपटे: परिचय
प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक उमाकांत केशव आपटे उपाख्य बाबासाहेब आपटे की विचारशीलता अद्भूत थी। उनका जन्म 28 अगस्त, सन् 1903 में हुआ था। सन् 1920 में वे संघ के संपर्क में आए और सन् 1931 में संघ के प्रथम प्रचारक बने। उनके अंदर पढने और उसे ह्दयंगम् कर उसका कुशल विवेचन करने की अनूठी ईश्वर प्रदत्त विशेषता थी जिसका उपयोग कर न केवल उन्होंने रा.स्व.संघ के कार्य को गति प्रदान की वरन् भारतीय जीवन-परंपरा के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने गजब का समाज-प्रबोधन किया। 26 जुलाई, सन् 1972 को उनका निधन हो गया। रा. स्व.संघ के पूर्व सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह के अनुसार, भौतिक जीवन के 70 वर्ष वह पूर्ण नहीं कर पाए लेकिन कार्य इतना कर गए कि कोई 100 वर्ष में भी न कर सके।

ऐसी महान प्रतिभा की स्मृति में हम अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके प्रबोधनकारी विचारों को वेबपोर्टल के माध्यम से पुनर्प्रकाशित कर आधुनिक पीढ़ी को उनसे परिचित कराने में हमें अपार प्रसन्नता हो रही है। ये विचार कालजयी हैं, हमें न सिर्फ हमारे गौरवमयी अतीत से परिचित कराते हैं वरन् ये हमारा भविष्यपथ भी निर्धारित कर सकने में सक्षम हैं- संपादक।

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