बुधवार, 31 अगस्त 2011

श्रीराम जन्मभूमि का सच

यदि राष्ट्र की धारती अथवा राज्यसत्ता छिन जाए तो शौर्य उसे वापस ला सकता है, यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, परन्तु यदि राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य या परिश्रम उसे वापस नहीं ला सकता। इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने, भीषण विषम परिस्थितियों में, लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की पहचान को बनाए के लिए बलिदान दिए। इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाए रखने का प्रतीक है श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का संकल्प।

गौरवमयी अयोध्या की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है। अयोध्या का इतिहास भारत की संस्कृति का इतिहास है। अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही, इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिशचन्द्र जैसे महापुरुष उत्पन्न हुए। इसी महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ।

पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है। गौतम बुद्ध की तपःस्थली दंत धावन कुण्ड भी अयोधया की ही धारोहर है। गुरुनानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था, दर्शन किए थे। अयोध्या में ब्रह्मकुण्ड गुरूद्वारा है।

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का जन्मस्थान होने के कारण पावन सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में अयोध्या विख्यात है। विश्व प्रसिद्ध स्विट्स्बर्ग एटलस में वैदिक कालीन, पुराण व महाभारत कालीन तथा 8वीं से 12वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के भारत के सांस्कृतिक मानचित्र मौजूद हैं। इन मानचित्रों में अयोध्या को धार्मिक नगरी के रूप में दर्शाया गया है। ये मानचित्र अयोध्या की प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं।

सरयु तट पर बने प्राचीन पक्के घाट शताब्दियों से भगवान श्रीराम का स्मरण कराते आ रहे हैं। श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक है। अयोध्या मन्दिरों की ही नगरी है। हजारों मन्दिर हैं, सभी राम के हैं। सभी सम्प्रदायों ने भी ये माना है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित अयोधया यही है।

आक्रमण का प्रतिकार
श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल मन्दिर खड़ा था। 1528 ईस्वी में धार्मिक असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी बाबर के क्रूर प्रहार ने जन्मभूमि पर खड़े सदियों पुराने मन्दिर को धवस्त कर दिया।

आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति मीरबांकी ने मन्दिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया। इस कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के मस्तक पर पराजय का कलंक लग गया। श्रीराम जन्मस्थान पर मन्दिर का पुन:निर्माण इस अपमान को धोने के लिए तथा हमारी आस्था की रक्षा के लिए भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने हेतु आवश्यक है।




इस स्थान को प्राप्त करने के लिए अवध का हिन्दू समाज 1528 ई. से ही निरन्तर संघर्ष करता आ रहा है। सन् 1528 से 1949 ई. तक जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए 76 युद्ध हुए। इस संघर्ष में भले ही समाज को पूर्ण सफलता नहीं मिली पर समाज ने कभी हिम्मत भी नहीं हारी।

आक्रमणकारियों को कभी चैन से बैठने नहीं दिया। बार-बार लड़ाई लड़कर जन्मभूमि पर अपना कब्जा जताते रहे। हर लड़ाई में जन्मभूमि को प्राप्त करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़े। 1934 ई. का संघर्ष तो जग जाहिर है, जब अयोध्या की जनता ने ढांचे को भारी नुकसान पहुँचाया था।

इन सभी संघर्षों में लाखों रामभक्तों ने अपना सर्वस्व समर्पण कर आहुतियाँ दी। 6 दिसम्बर 1992 की घटना इस सतत् संघर्ष की ही अन्तिम परिणिति है, जब गुलामी का प्रतीक तीन गुम्बद वाला मस्जिद जैसा ढांचा ढह गया और श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर के पुन:निर्माण का मार्ग खुल गया।

ढांचे की रचना तीन गुम्बदों वाले तथाकथित बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले इस ढांचे में सदैव प्रभु श्रीराम की पूजा-अर्चना होती रही। इसी ढांचे में काले रंग के कसौटी पत्थर के 14 खम्भे लगे थे, जिस पर हिन्दु धार्मिक चिन्ह उकेरे हुए थे। जो यह बताते थे कि पुराने मन्दिर के कुछ पत्थर मीरबांकी ने इस मस्जिदनुमा ढांचे के निर्माण में लगवाए।

यह भी तथ्य है कि वहाँ कोई मीनार नहीं थी, वजु करने के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। ढांचे के पूर्व दिशा में प्रवेशद्वार के बाहर एक चबूतरा था। इसे रामचबूतरा कहते हैं। इस पर प्रभु श्रीराम के विग्रह का पूजन अकबर के शासनकाल से होता चला आ रहा था। संपूर्ण परिसर एक चारदीवारी से घिरा था। प्रवेश द्वार एक ही था। इस परिसर की अधिकतम लंबाई 130 फीट तथा चौड़ाई 90 फीट थी। अर्थात् कुल क्षेत्रफल अधिकतम 12000 वर्गफीट था।

भ्रमणकारी पादरी की डायरी
श्रीराम जन्मभूमि पर बने मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है। फादर टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्तान्त इसका जीता-जागता उदाहरण है। आस्ट्रिया के इस पादरी ने 45 वर्षों तक (1740 से 1785) भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी। लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवध का वर्णन किया। उनकी डायरियों का फ्रैंच भाषा में अनुवाद 1786 ईस्वी में बर्लिन से प्रकाशित हुआ है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि अयोध्या के रामकोट मोहल्ले में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले कसौटी पत्थर के खम्भे लगे हैं, इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के साथ जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मन्दिर को बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू इस स्थान की परिक्रमा करते हैं, यहाँ साष्टांग दण्डवत् करते हैं।



भगवान का प्राकट्य
समाज की श्रद्धा और इस स्थान को प्राप्त करने के सतत् संघर्ष का एक रूप आजादी के बाद 22 दिसम्बर 1949 की रात्रि को देखने को मिला, जब ढांचे के अन्दर भगवान प्रकट हुए। पंडित जवाहर लाल नेहरू उस समय देश के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और फैजाबाद के जिलाधिकारी के.के. नायर एवं ओनरेरी मजिस्टे्रट ठाकुर गुरुदत्त सिंह थे। नायर साहब ने ढांचे के सामने की दीवार में लोहे के सींखचों वाला दरवाजा लगवाकर ताला डलवा दिया, भगवान की पूजा के लिए पुजारी नियुक्त हुआ। पुजारी रोज सबेरे-शाम भगवान की पूजा के लिए भीतर जाता था, भगवान् की पूजा-अर्चना करता था, भोग लगाता था, शयन व जागरण आरती करता था परन्तु जनता ताले के बाहर से पूजा करती थी। इस घटना के बाद अनेक श्रद्धालु वहाँ अखण्ड कीर्तन करने बैठ गए, जो 6 दिसम्बर 1992 तक उसी स्थान पर होता रहा।

ताला खुला
इसी ताले को खुलवाने का संकल्प सन्तों ने 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली के विज्ञान भवन में लिया। यही सभा प्रथम धर्मसंसद कहलाई। श्रीराम जानकी रथों के माधयम से व्यापक जन-जागरण हुआ। ताला खोलने के लिए फैजाबाद के ही एक अधिवक्ता ने जिला न्यायाधीश श्री के.एम. पाण्डेय के समक्ष प्रार्थना पत्र दे दिया। ताला लगाने का कारण खोजा गया। उत्तर मिला कि शांति व्यवस्था के नाम पर ताला लगा है। जिला प्रशासन से पूछा गया कि ताला खुलने पर आप शांति व्यवस्था बनाए रख सकते हैं अथवा नहीं? प्रशासन का उत्तर था ताले का शांति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं। अन्तंत: जिला न्यायाधीश ने 01 फरवरी 1986 को ताला खोलने का आदेश दे दिया। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री वीरबहादुर सिंह थे।

शिलापूजन व शिलान्यास
भावी मन्दिर का प्रारूप बनाया गया। अहमदाबाद के प्रसिद्ध मन्दिर निर्माण कला विशेषज्ञ श्री सी.बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया। मन्दिर निर्माण के लिए जनवरी 1989 में प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर पूज्य देवरहा बाबा की उपस्थिति में गांव-गांव में शिलापूजन कराने का निर्णय हुआ। पहला शिलापूजन बद्रीनाथधाम में जगद्गुरु शंकराचार्य ज्योतिषपीठाधीश्वर पूज्य स्वामी शांतानंद जी महाराज की उपस्थिति में सम्पन्न हुआ।

पूज्य देवरहा बाबा ने शिलाओं को आशीर्वाद दिया। पौने तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोध्या पहुँची। विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके भारत भेजीं। पूर्व निर्धारित दिनांक 09 नवम्बर 1989 को सबकी सहमति से मन्दिर का शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर चौपाल के हाथों सम्पन्न हुआ। तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के गृहमंत्री श्री बूटा सिंह तथा प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे।

प्रथम कारसेवा
24 मई 1990 को हरिद्वार में हिन्दू सम्मेलन हुआ। सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान एकादशी (30 अक्टूबर 1990) को मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करेंगे। यह सन्देश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए 01 सितम्बर 1990 को अयोध्या में अरणी मंथन के द्वारा अग्नि प्रज्ज्वलित की गई, इसे 'रामज्योति' कहा गया। दीपावली 18 अक्टूबर 1990 के पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह ज्योति पहुँचा दी गई।

उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने अहंकारपूर्ण घोषणा की कि 'अयोध्या में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता', उन्होंने अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर दीं, अयोध्या को जाने वाली सभी रेलगाड़ियाँ रद्द कर दी गईं। 22 अक्टूबर से अयोध्या छावनी में बदल गई।

फैजाबाद जिले की सीमा से श्रीराम जन्मभूमि तक पहुंचने के लिए पुलिस सुरक्षा के सात बैरियर पार करने पड़ते थे। फिर भी रामभक्तों ने 30 अक्टूबर को वानरों की भांति गुम्बदों पर चढ़कर झण्डा गाड़ दिया। सरकार ने 02 नवम्बर 1990 को भयंकर नरसंहार किया। कलकत्ता निवासी दो सगे भाइयों में से एक को मकान से खींचकर गोली मारी गई, छोटा भाई बचाव में आया तो उसे भी वहीं गोली मार दी। (कोठारी बन्धुओं का बलिदान)। कितने लोगों को मारा कोई गिनती नहीं। देशभर में रोष छा गया।

जन्मभूमि में प्रतिष्ठित प्रभु श्रीराम के दर्शन करके ही कारसेवक वापस लौटे। 40 दिन तक सत्याग्रह चला। कारसेवकों की अस्थियों का देशभर में पूजन हुआ। 14 जनवरी 1991 को अस्थियाँ माघ मेला के अवसर पर प्रयागराज संगम में प्रवाहित कर दी गईं। मन्दिर निर्माण का संकल्प और मजबूत हो गया।

विराट प्रदर्शन
04 अप्रैल 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर विशाल रैली हुई। देशभर से पच्चीस लाख रामभक्त दिल्ली पहुँचे। यह भारत के इतिहास की विशालतम रैली कहलाई। रैली में सन्तों की गर्जना हो रही थी तभी सूचना मिली कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। समतलीकरण उत्तर प्रदेश सरकार ने 2.77 एकड़ भूमि तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अधिग्रहण की। यह भूमि ऊबड़-खाबड़ थी। जून 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार जब इस भूमि का समतलीकरण करा रही थी, तब ढांचे के दक्षिणी-पूर्वी कोने की जमीन से अनेक पत्थर प्राप्त हुए, जिनमें शिव-पार्वती की खंडित मूर्ति, सूर्य के समान अर्ध कमल, मन्दिर के शिखर का आमलक, उत्कृष्ट नक्काशी वाले पत्थर व अन्य मूर्तियाँ थी। समाज में उत्साह छा गया। अनेकों इतिहासकार, पुरातत्वविद् उन अवशेषों को देखने अयोध्या पहुंच गए।

सर्वदेव अनुष्ठान व नींव ढलाई
09 जुलाई 1992 से 60 दिवसीय सर्वदेव अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। जन्मभूमि के ठीक सामने शिलान्यास स्थल से भावी मंदिर की नींव के चबूतरे की ढलाई भी प्रारंभ हुई। यह नींव 290 फीट लम्बी, 155 फीट चौडी और 2-2 फीट मोटी एक-के-ऊपर-एक तीन परत ढलाई करके कुल 6 फीट मोटी बननी थी। 15 दिनों तक नींव ढलाई का काम चला। थोड़ा ही काम हुआ था कि प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने संतों से चार महीने का समय मांगा और नींव ढलाई का काम बन्द करने का निवेदन किया। संतों ने प्रधानमंत्री की बात मान ली और वे जन्मभूमि के नैऋत्य कोण में कुछ दूरी पर बनने वाले शेषावतार मंदिर की नींव के निर्माण के काम में लग गए।



पादुका पूजन
नन्दीग्राम में भरत जी ने 14 वर्ष वनवासी रूप में रहकर अयोध्या का शासन भगवान की पादुकाओं के माध्यम से चलाया था, इसी स्थान पर 26 सितम्बर 1992 को श्रीराम पादुकाओं का पूजन हुआ। अक्टूबर मास में देश के गांव-गांव में इन पादुकाओं के पूजन द्वारा जन जागरण हुआ। रामभक्तों ने मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया।

कारसेवा का पुन: निर्णय
दिल्ली में 30 अक्टूबर 1992 को सन्त पुन: इकट्ठे हुए। यह पांचवीं धर्मसंसद थी। सन्तों ने फिर घोषणा की कि गीता जयन्ती (6 दिसम्बर 1992) से कारसेवा पुन: प्रारम्भ करेंगे। सन्तों के आवाह्न पर लाखों रामभक्त अयोध्या पहुँच गए। निर्धारित तिथि व समय पर रामभक्तों का रोष फूट पड़ा, जो ढांचे को समूल नष्ट करके ही शान्त हुआ।

ढांचे से शिलालेख मिला
6 दिसम्बर 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब उसकी दीवारों से एक पत्थर प्राप्त हुआ। विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख है, 1154 ईस्वी का संस्कृत में लिखा है, इसमें 20 पंक्तियाँ हैं। ऊँ नम: शिवाय से यह शिलालेख प्रारम्भ होता है। विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन है। अयोध्या के सौन्दर्य का वर्णन है। दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है। ये समस्त पुरातात्विक साक्ष्य उस स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल मन्दिर के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं।

संविधान निर्माताओं की दृष्टि में राम भारतीयों के लिए तो राम भगवान हैं, आदर्श हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। संविधान निर्माताओं ने भी जब संविधान की प्रथम प्रति का प्रकाशन किया तब भारत की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक प्राचीनता को दर्शाने के लिए संविधान की प्रति में तीसरे नम्बर पर प्रभु श्रीराम, माता जानकी व लक्ष्मण जी का उस समय का चित्र छापा जब वे लंका विजय के पश्चात् पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या को वापस आ रहे हैं। अत: ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान की रक्षा करना हमारा संवैधानिक दायित्व भी है।

अस्थायी मन्दिर का निर्माण
6 दिसम्बर 1992 को ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परम्परा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी। हजारों भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घण्टे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चारों कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी करके कपड़े लगा दिए, ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मन्दिर। आज भी इसी स्थान पर पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना है। कपड़े के इसी मंदिर को Make Shift मंदिर कहते हैं।

न्यायालय द्वारा दर्शन की पुन: अनुमति
08 दिसम्बर 1992 अतिप्रात: सम्पूर्ण अयोध्या में कर्फ्यू लगा दिया गया। परिसर केन्द्रीय सुरक्षा बलों के हाथ में चला गया। परन्तु केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भगवान की पूजा करते रहे। हरिशंकर जैन नाम के एक वकील ने उच्च न्यायालय में गुहार की कि भगवान भूखे हैं। राग, भोग व पूजन की अनुमति दी जाए। 01 जनवरी 1993 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति प्रदान की।

अधिग्रहण एवं दर्शन की पीड़ादायी प्रशासनिक व्यवस्था 07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। इस भूमि के चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं।

भगवान तक पहुंचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया, दर्शन करने जानेवालों की सघन तलाशी की जाने लगी। जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं। आधा मिनट भी ठहर नहीं सकते। वर्षा, शीत और धूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इन कठिनाइयों के कारण अतिवृद्ध भक्त दर्शन करने जा ही नहीं सकते। अपनी इच्छा के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते। जो प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर अन्दर जाना पड़ता है। दर्शन का समय ऐसा है मानो सरकारी दफ्तर हो। दर्शन की यह अवस्था अत्यन्त पीड़ादायी है। इस अवस्था में परिवर्तन लाना है।

हस्ताक्षर अभियान
वर्ष 1993 में दस करोड़ नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय को सौंपा गया था, जिसमें एक पंक्ति का संकल्प था कि 'आज जिस स्थान पर रामलला विराजमान हैं, वह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है, हमारी आस्था का प्रतीक है और वहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण करेंगे।'

भावी मन्दिर की तैयारी
श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो केवल पत्थरों से बनेगा। मन्दिर दो मंजिला होगा। भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम दरबार होगा। सिंहद्वार, नृत्य मण्डप, रंग मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग हैं। 270 फीट लम्बा, 135 फीट चौड़ा तथा 125 फीट ऊँचा शिखर है। 10 फीट चौड़ा परिक्रमा मार्ग है। 106 खम्भे हैं। 6 फीट मोटी पत्थरों की दीवारें लगेंगी। दरवाजों की चौखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी।

1993 से मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी गई। मन्दिर में लगने वाले पत्थरों की नक्काशी के लिए अयोध्या तथा राजस्थान के पिण्डवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं प्रारम्भ हुईं। अब तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर, भूतल पर लगने वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे, रंग मण्डप एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने वाली संगमरमर की चौखटों का निर्माण पूरा किया जा चुका है। खम्भों के ऊपर रखे जाने वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम तैयार हैं। मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है।

हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्ति नहीं है बल्कि हिन्दुओं के लिए श्रीराम जन्मभूमि आस्था है। भगवान की जन्मभूमि स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धाम है। रामभक्त इस धारती को मत्था टेकते हैं। यह विवाद सम्पत्ति का विवाद ही नहीं है। इस कारण यह अदालत का विषय नहीं है। अदालत आस्थाओं पर फैसले नहीं देती।

श्रीराम जन्मभूमि से सम्बन्धित मुकदमों का विवरण
23 दिसम्बर 1949 को ब्रह्ममुहूर्त में भगवान श्रीरामलला के प्राकट्य के पश्चात् श्रीराम भक्तों ने अदालत में अपने मूलभूत अधिकारों को लेकर वाद दायर किए। प्रथम वाद श्री गोपाल सिंह विशारद द्वारा सिविल जज फैजाबाद के यहां जनवरी 1950 में दायर किया गया। वाद में अदालत से प्रार्थना की गई कि वादी को भगवान के दर्शन, पूजन का अधिकार सुरक्षित रखा जाए। इसमें कोई बाधा अथवा विवाद उत्पन्न न करे साथ ही ऐसी निषेधाज्ञा जारी की जाए जिससे भगवान को कोई उनके वर्तमान स्थान से हटा न सके।

द्वितीय वाद परमहंस पूज्य रामचन्द्र दास जी महाराज द्वारा भी वर्ष 1950 में ही लगभग उपरोक्त भावना के अनुरूप ही दायर किया गया। यह वाद वर्ष 1990 में परमहंस रामचन्द्र दास जी महाराज ने वापस ले लिया था।

श्री गोपाल सिंह विशारद के वाद में निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने उनके पक्ष में अन्तरिम आदेश दे दिए तथा व्यवस्था के लिए एक रिसीवर नियुक्त कर दिया। इस अन्तरिम आदेश की पुष्टि अप्रैल 1955 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा कर दी गयी।

7 तृतीय वाद रामानन्द सम्प्रदाय के निर्मोही अखाड़ा द्वारा 1959 में दायर करके मांग की गई कि रिसीवर को हटाकर जन्मस्थान मंदिर की पूजा व्यवस्था का अधिकार निर्मोही अखाड़े को दिया जाए।

चतुर्थ वाद सुन्नी सेण्ट्रल वक्फ बोर्ड द्वारा दिसम्बर 1961 में दायर किया गया। इस वाद में मुस्लिमों ने भगवान के प्राकट्य स्थल को सार्वजनिक मस्जिद घोषित करने, पूजा सामग्री हटाने तथा परिसर का कब्जा सुन्नी वक्फ को सौंपे जाने की प्रार्थना की। साथ ही साथ जन्मभूमि के चारों ओर के भू-भाग को कब्रिस्तान घोषित करने की मांग की। परन्तु वर्ष 1996 में जन्मभूमि के चारों ओर की भूमि को कब्रिस्तान घोषित करने की अपनी प्रार्थना वापस ले ली।

पंचम वाद जुलाई 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) की ओर से स्वयं रामलला विराजमान तथा राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में दायर किया गया। सभी मुकदमें एक ही स्थान के लिए है अत: सबको एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश हो गया। विषय की नाजुकता को समझते हुए सभी मुकदमें जिला अदालत से उठाकर उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को दे दिए गए। दो हिन्दू और एक मुस्लिम न्यायाधीशों की पूर्ण पीठ बनी।

महामहिम राष्ट्रपति का प्रश्न व उत्खनन से प्राप्त अवशेष ढांचा गिर जाने के बाद भारत सरकार द्वारा अधिग्रहीत की गई 67 एकड़ भूमि के अधिग्रहण के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में मुस्लिमों सहित अनेक प्रभावित लोगों ने याचिका दायर की। साथ ही साथ भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 143 के अन्तर्गत अपना एक प्रश्न प्रस्तुत किया और उसका उत्तर चाहा।

प्रश्न था कि ''क्या ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईसवी के पहले कोई हिन्दू मंदिर था?'' सर्वोच्च न्यायालय ने अधिग्रहण से संबंधित याचिकाओं तथा महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न पर लम्बी सुनवाई की। सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार के सॉलीसीटर जनरल से पूछा कि राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का मन्तव्य और अधिक स्पष्ट कीजिए। तब सॉलीसीटर जनरल श्री दीपांकर गुप्ता ने भारत सरकार की ओर से दिनांक 14 सितम्बर 1994 को सर्वोच्च न्यायालय में लिखित रूप से सरकार की नीति स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर सकारात्मक आता है अर्थात् ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईस्वी के पहले एक हिन्दू मंदिर/भवन था तो सरकार हिन्दू भावनाओं के अनुरूप कार्य करेगी और यदि उत्तर नकारात्मक आता है तो मुस्लिम भावनाओं के अनुरूप कार्य करेगी। अक्टूबर 1994 में न्यायालय ने अपना फैसला दिया और राष्ट्रपति महोदय का प्रश्न अनावश्यक बताते हुए सम्मानपूर्वक वापस कर दिया। विवादित 12 हजार वर्गफुट भूमि के अधिग्रहण को रद्द कर दिया, शेष भूमि के अधिग्रहण को स्वीकार कर लिया और कहा कि महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर तथा विवादित भूखण्ड के स्वामित्व का फैसला न्यायिक प्रक्रिया से उच्च न्यायालय द्वारा किया जायेगा।

इस प्रकार सभी वादों का निपटारा करने तथा राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर खोजने का दायित्व इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्डपीठ पर आ गया। (सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय 24 अक्टूबर 1994 को घोषित हुआ और इस्माइल फारूखी बनाम भारत सरकार के नाम से प्रसिद्ध है, जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है।)

यदि 1528 ई. में मन्दिर तोड़ा गया तो उसके अवशेष जमीन में जरूर दबे होंगे, यह खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से 2002 ई. में राडार तरंगों से जन्मभूमि के नीचे की फोटोग्राफी कराई। फोटो विशेषज्ञ कनाडा से आए, उन्होंने अपने निष्कर्ष में लिखा कि किसी भवन के अवशेष दूर-दूर तक दिखते हैं।

रिपोर्ट की पुष्टि के लिए खुदाई का आदेश हुआ। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने खुदाई की। खुदाई की रिपोर्ट फोटोग्राफी रिपोर्ट से मेल खा गयी। खुदाई में दीवारें, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, प्लास्टर, चार फर्श, दो पंक्तियों में पचास स्थानों पर खम्भों के नीचे की नींव की रचना मिली। एक शिव मंदिर प्राप्त हुआ। उत्खनन करने वाले विशेषज्ञों ने लिखा कि यहां कोई मंदिर कभी अवश्य रहा होगा। इस प्रकार राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न का उत्तर न्यायालय को मिल गया। अब सॉलीसीटर जनरल के माध्यम से भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को दिया गया वचन अर्थात् अपनी नीति का पालन करना ही होगा। सभी तथ्य अदालत के रिकार्ड पर मौजूद हैं। उच्च न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है। अनुमान है कि सितम्बर के अन्त तक फैसला आएगा।

फैसला क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता। फैसला जो भी हो किसी एक पक्ष में असंतोष अवश्य फैलेगा। वह सर्वोच्च न्यायालय में जायेगा। वहां क्या होगा? वहां कब तक मामला लटकेगा? कहा नहीं जा सकता। अदालतों के निर्णयों के क्रियान्वयन का नैतिक बल सरकार के पास होगा या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है। लेकिन यह तय है कि जागरुक और स्वाभिमानी समाज अपने सम्मान की रक्षा अवश्य करेगा।

सही मार्ग तो यह है कि सोमनाथ मंदिर निर्माण की तर्ज पर संसद कानून बनाए और श्रीराम जन्मभूमि हिन्दू समाज को सौंप दे। इसी मार्ग से 1528 के अपमान का परिमार्जन माना जाएगा।

वार्तालाप का इतिहास
जब श्री चन्द्रशेखर सिंह जी प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने आपसी वार्तालाप का सुझाव दिया जो सभी ने स्वीकार किया। श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करके राम मन्दिर के पुनर्निर्माण का संघर्ष शताब्दियों से चलता आ रहा है। अनेकानेक पीढ़ियों ने इस संघर्ष में अपना योगदान किया है। इस स्थान को प्राप्त करने के लिए 76 बार लड़ाईयों का वर्णन इतिहास में दर्ज है। देश के अनेक बुद्धिजीवियों का यह मत है कि इस विषय का समाधान आपसी वार्तालाप अथवा न्यायिक प्रक्रिया द्वारा हो। इसी कारण विश्व हिन्दू परिषद ने वार्तालाप के सभी माधयमों द्वारा यह प्रयास किया कि भारत के मुस्लिम नेता हिन्दू समाज की आस्थाओं को समझें व आदर करें। अनुभव यह आया कि मुस्लिम नेतृत्व स्वयं अपनी ओर से, सदियों पुराने इस संघर्ष को समाप्त करके परस्पर विश्वास और सद्भाव का नया युग प्रारम्भ करने के लिए किसी प्रकार की पहल नहीं करते। द्विपक्षीय वार्ता में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई। वार्तालाप का विवरण निम्न प्रकार है:-

01 दिसम्बर 1990 को अखिल भारतीय बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सदस्यों के साथ विश्व हिन्दू परिषद के प्रतिनिधियों ने बिना किसी पूर्वाग्रह के वार्ता प्रारम्भ की। परिषद की ओर से श्री विष्णुहरि डालमिया, श्री बद्रीप्रसाद तोषनीवाल, श्री श्रीशचन्द्र दीक्षित, श्री मोरोपंत पिंगले, श्री कौशलकिशोर, श्री भानुप्रताप शुक्ल, आचार्य गिरिराज किशोर व श्री सूर्यकृष्ण उपस्थित रहे।

04 दिसम्बर 1990 को दूसरी बैठक में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र व राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री क्रमश: श्री मुलायम सिंह यादव, श्री शरद पवार व श्री भैरोंसिंह शेखावत भी उपस्थित रहे। इस बैठक में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के श्री जफरयाब जिलानी ने दावा किया कि:-

1. किसी भी हिन्दू मंदिर को तोड़कर उसी स्थल पर किसी मस्जिद के निर्माण के पक्ष में कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
2. ऐसा कोई भी पुरातात्विक अथवा ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्धा नहीं हैं जिससे यह ज्ञात हो कि मस्जिद निर्माण के पूर्व इसी स्थल पर खड़े किसी मंदिर को तोड़ा गया था। उन्होंने यह भी कहा कि विश्व हिन्दू परिषद का यह आन्दोलन एकदम नया है।
3. बैठक की कार्रवाई में यह दर्ज है कि कई मुस्लिम नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि बाबर कभी अयोध्या नहीं आया, फलत: उसके द्वारा मंदिर तोड़े जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
श्री मोरोपंत पिंगले ने सुझाव दिया था कि अगली बैठक में दोनों पक्षों की ओर से तीन-तीन चार-चार विशेषज्ञों को सम्मिलित किया जाए, वे ही अपने पक्ष के प्रमाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करें।
राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री भैरोंसिंह शेखावत ने सुझाव दिया था कि दोनों पक्षों के विशेषज्ञ इन प्रमाणों का परस्पर आदान-प्रदान करें और सत्यापन करें। इस पर श्री जिलानी साहब ने कहा कि पहले समिति के सदस्य आपस में साक्ष्य सत्यापन कर लें तब विशेषज्ञों का सहयोग लें। श्री पिंगले जी ने सुझाव दिया कि इस विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए एक समयसीमा निर्धारित कर ली जाए। इस पर निर्णय हुआ कि:-

1. दोनों पक्ष 22 दिसम्बर 1990 तक अपने साक्ष्य गृह राज्यमंत्री को उपलब्ध करायें।
2. मंत्री महोदय साक्ष्यों की प्रतिलिपियां सभी संबंधित व्यक्तियों को 25 दिसम्बर 1990 तक उपलब्ध करायें।
3. इन साक्ष्यों के सत्यापन के पश्चात् दोनों पक्ष पुन: 10 जनवरी 1991 को प्रात: 10.00 बजे मिलें।

द्विपक्षीय वार्ता का एक औपचारिक दस्तावेज गृह राज्य मंत्रालय के कार्यालय में तैयार हुआ। एक-दूसरे के साक्ष्यों का प्रत्युत्तर 06 जनवरी 1991 तक देना था। विश्व हिन्दू परिषद ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के दावों को निरस्त करते हुए अपना प्रतिउत्तर दिया। जबकि बाबरी कमेटी की ओर से केवल अपने पक्ष को और अधिक प्रमाणित करने के लिए कुछ अतिरिक्त साक्ष्यों की फोटोप्रतियां दी गईं। कोई भी प्रतिउत्तर नहीं दिया। बाबरी कमेटी की ओर से प्रतिउत्तर के अभाव में सरकार के लिए यह कठिन हो गया कि सहमति और असहमति के मुद्दे
कौन-कौन से हैं?

10 जनवरी 1991 को गुजरात भवन में बैठक हुई। अन्य प्रतिनिधियों के अतिरिक्त विश्व हिन्दू परिषद की ओर से विशेषज्ञ रूप में प्रो. बी.आर ग्रोवर, प्रो. देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल व डॉ. एस.पी. गुप्ता सम्मिलित हुए। यह तय किया गया कि प्रस्तुत दस्तावेजों को ऐतिहासिक, पुरातात्विक, राजस्व व विधि शीर्षक के अन्तर्गत वर्गीकरण कर लिया जाए। यह भी तय हुआ कि दोनों पक्ष अपने विशेषज्ञों के नाम देंगे जो संबंधित दस्तावेजों का अधययन करके 24 व 25 जनवरी 1991 को मिलेंगे और अपनी टिप्पणियों 05 फरवरी 1991 तक दे देंगे।

तत्पश्चात् दोनों पक्ष इन विशेषज्ञों की रिपोर्ट पर फिर से विचार करेंगे। बाबरी मस्जिद कमेटी ने अचानक पैंतरा बदलना शुरू कर दिया। कमेटी ने अपने विशेषज्ञों के नाम नहीं दिए। 18 जनवरी तक उन्होंने जो नाम दिए उसमें वे निरंतर परिवर्तन करते रहे। 24 जनवरी 1991 को जो विशेषज्ञ आए उनमें चार तो कमेटी की कार्यकारिणी के पदाधिकारी थे व डॉ. आर.एस. शर्मा, डॉ. डी.एन. झा, डॉ. सूरजभान व डॉ. एम. अतहर अली विशेषज्ञ थे। परिषद की ओर से न्यायमूर्ति गुमानमल लोढ़ा, न्यायमूर्ति देवकीनंदन अग्रवाल, न्यायमूर्ति धार्मवीर सहगल व वरिष्ठ अधिवक्ता वीरेन्द्र कुमार सिंह चौधरी सरीखे कानूनविद् तथा इतिहासकार के रूप में डॉ. हर्ष नारायण, श्री बी.आर. ग्रोवर, प्रो. के.एस. लाल, प्रो. बी.पी. सिन्हा, प्रो. देवेन्द्र स्वरूप अग्रवाल तथा पुरातत्वविद् डॉ. एस.पी. गुप्ता उपस्थित थे।

बैठक प्रारंभ होते ही बाबरी कमेटी के विशेषज्ञों ने कहा कि हम न तो कभी अयोध्या गए और न ही हमने साक्ष्यों का अध्ययन किया है। हमें कम से कम छ: सप्ताह का समय चाहिए। यह घटना 24 जनवरी 1991 की है।

25 जनवरी को बैठक में कमेटी के विशेषज्ञ आए ही नहीं। जबकि परिषद के प्रतिनिधि और विशेषज्ञ दो घण्टे तक उनकी प्रतीक्षा करते रहे। इसके पश्चात् की बैठक में भी ऐसा ही हुआ। अन्तत: वार्तालाप बन्द हो गयी।

यह विचारणीय है कि बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने मुख्य मुद्दों का सामना करने की बजाए बैठक के बहिष्कार का रास्ता क्यों चुना? इसलिए आज वार्तालाप की बात करना कितना सार्थक होगा यह विचारणीय विषय है।

गुलामी के कलंक को मिटाने के लिए 1947 के बाद सरकार द्वारा किए गए कार्य
1. सोमनाथ मंदिर का जीर्णोंद्धार, सरदार वल्लभभाई पटेल (प्रथम गृहमंत्री, भारत सरकार), डॉ. के.एम. मुंशी, श्री काकासाहेब गाडगिल के प्रयत्नों से तथा महात्मा गांधी की सहमति व केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की स्वीकृति से 1950 में हुआ।
2. दिल्ली में इण्डिया गेट के अन्दर ब्रिटिश राज्यसत्ता के प्रतिनिधि किन्हीं जार्ज की खड़ी मूर्ति हटाई गई। सुना जाता है कि किसी आजादी के दीवाने ने इस मूर्ति की नाक तोड़ दी थी। भारत सरकार ने उसे हटवा दिया।
3. दिल्ली का चांदनी चौक, अयोध्या का तुलसी उद्यान व देश में जहां कहीं विक्टोरिया की मूर्तियां थीं, वे सब हटाईं।
4. भारत में जहां-जहां पार्कों के नाम कंपनी गार्डन थे वे सब बदल दिए गए और कहीं-कहीं उनका नाम गांधी पार्क हो गया।
5. अमृतसर से कलकत्ता तक की सड़क जी.टी. रोड़ कहलाती थी, उसका नाम बदला गया। बड़े-बड़े शहरों के माल रोड जहां केवल अंग्रेज ही घूमते थे उन सड़कों का नाम एम.जी. रोड कर दिया गया।
6. दिल्ली में मिण्टो ब्रिज को आज शिवाजी पुल के रूप में पहचाना जाता है।
7. दिल्ली स्थित इरविन हॉस्पिटल तथा बिलिंगटन हॉस्पिटल क्रमश: जयप्रकाश नारायण अस्पताल व डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल कहे जाते हैं।
8. कलकत्ता, बाम्बे, मद्रास के नाम बदलकर कोलकाता, मुम्बई व चेन्नई कर दिए गए।

श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करके उस पर खड़े कलंक के प्रतीक मस्जिद जैसे दिखनेवाले ढांचे को हटाकर भारत के लिए महापुरुष, मर्यादा पुरुषोत्तम, रामराज्य के संस्थापक, भगवान विष्णु के अवतार, सूर्यवंशी प्रभु श्रीराम का मन्दिर पुनर्निर्माण का यह जनान्दोलन उपर्युक्त श्रृंखला का ही एक भाग है। हम विचारें यदि अंग्रेजों के प्रतीक हटाए जा सकते हैं क्योंकि उन्होंने इस देश को गुलाम बनाए रखा और उस गुलामी से मुक्त होने के लिए 1947 की पीढ़ी ने संघर्ष किया तो अंग्रेजों के पूर्व भारत पर आक्रमण करनेवाले विदेशियों के चिन्हों को क्यों नहीं हटाया जा सकता? क्या केवल इसलिए कि अंग्रेजों से संघर्ष
करने वाली पीढ़ी ने मुस्लिम आक्रमणकारियों से संघर्ष नहीं किया था।

गुलामी के कलंक को मिटाने के भारत के बाहर के उदाहरण
1. प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी द्वारा दिया गया उदाहरण इस शताब्दी के महान् इतिहासकार अर्नाल्ड टायन्बी ने दिल्ली में आजाद मेमोरियल लेक्चर देते समय जो विचार व्यक्त किए थे, वे उल्लेखनीय हैं। यहां उसका मुख्य अंश उद्धृत किया जा रहा है:-

मैं बोल रहा हूं तो हमारी मन की आंखों के सामने कुछ स्पष्ट दृश्य-बिम्ब उमड़ रहे हैं। इनमें से एक मानसिक चित्र पोलैण्ड के वार्सा नगर के मुख्य चौक का 1620 के दशक के अन्तिम दिनों का है। वार्सा पर प्रथम रूसी अधिकार के समय (1614-15) रुसियों ने इस नगर के जो किसी समय स्वतंत्र रोमन कैथोलिक देश पोलैण्ड की राजधानी था, एक ईस्टर्न आर्थोडॉक्स क्रिश्चियन कैथेड्रल ने बनवाया था। रूसियों ने पोलिश लोगों को निरंतर यह दृश्यमान अहसास दिलाने के लिए यह कार्य किया था कि अब उनके स्वामी रूसी लोग हैं।

सन् 1618 में पोलैण्ड की स्वतंत्रता की पुनर्स्थापना के बाद पोलिश लोगों ने इस कैथड्रल को गिरा दिया था। यह विध्वंस कार्य हमारे वहां पहुंचने के एक दिन पूर्व ही किया गया था। इस कारण मैं पोलैण्ड की सरकार को इस रूसी चर्च को गिरा देने के कारण लांछित नहीं करता। जिस प्रयोजन के लिए रूसियों ने इसका निर्माण किया था वह धार्मिक न होकर राजनीतिक था और यह उद्देश्य भी जानबूझकर आहत करने वाला था। दूसरी ओर, भारत सरकार की इसलिए प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने औरंगजेब की मस्जिदों को नहीं ढहाया। मैं विशेष रुप से उन दो के विषय में सोच रहा हूं जिनमें से एक बनारस के घाटों पर बनी है, दूसरी मथुरा में कृष्ण के टीलों पर। इन तीनों मस्जिदों को बनाने में औरंगजेब का प्रयोजन जानबूझकर
आहत करने वाला वही राजनीतिक प्रयोजन था जिसने रूसियों को वार्सा के केन्द्र में आर्थोडॉक्स कैथड्रल बनाने के लिए प्रेरित किया था। ये तीनों मस्जिदें यह घोषित करने के लिए बनवाई गई थीं कि इस्लामी सरकार सर्वोच्च है, यहां तक कि हिन्दुओं के पवित्रतम स्थानों के लिए भी है।

2. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी द्वारा दिया गया रूस का उदाहरण 'सन् 1968 के जून-जुलाई में हमारा पार्लियामेन्ट्री प्रतिनिधिमण्डल उस समय के लोकसभा के सभापति मान्यवर नीलम संजीव जी रेड्डी के नेतृत्व में रूस गया था। उस दौरे में रसियन लोग हमें पेट्रोग्रेड में स्थित जार का विन्टर पैलेस दिखाने के लिए ले गए थे। कम्युनिस्टों के हाथ में सत्ता आने के पश्चात् उन्होंने इस विन्टर पैलेस को एक पर्यटक केन्द्र बनाया था। पैलेस का पूर्ण स्वरूप पुराना होते हुए भी बहुत प्रभावशाली था। उसमें भ्रमण करते समय हम लोगों के धयान में एक विसंगत बात आई। पूरा पैलेस पुराना था, किन्तु कुछ मूर्तियाँ नई-नई प्रतीत होती थीं। उनके विषय में हमने पूछताछ की। हमें बताया गया कि वे मूर्तियाँ ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। जैसे जूपीटर, वीनस आदि और दूसरे महायुद्ध के पश्चात् रसियन कम्युनिस्ट सरकार ने उनका पुनर्निर्माण क्यों किया? हम में से एक ने पूछा कि आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, नास्तिक हैं। फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों का पुनर्निर्माण क्यों किया? उन्होंने बताया कि हम घोर नास्तिक हैं। हमारी श्रद्धा है कि भगवान यह एक धोखा है, किन्तु मूर्तियों के पुनर्निर्माण का सम्बन्धा हमारी आस्तिकता-नास्तिकता से नहीं है। दूसरे महायुद्ध में हिटलर की सेना लेनिनग्राड तक पहुँच गई। वहाँ हम लोगों ने बड़ा प्रतिकार किया। लेनिनग्राड के मैदान में हमारे पास लाखों वीरों के कफन आपको दिखेंगे। इसके कारण जर्मन लोग चिढ़ गए और हमारा राष्ट्रीय अपमान करने के उद्देश्य से उन्होंने प्रतिरोध की भावना से यहाँ की देवी-देवताओं की पुरानी मूर्तियाँ तोड़ी। इसके पीछे भाव यही था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाए, हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाए। ऐसा तो नहीं था कि ये मूर्तियाँ हाथ में शस्त्रास्त्र लेकर जर्मन सेना का विरोध कर रही थी। इस तरह केवल रूस को नीचा दिखाने के लिए मूर्तियाँ तोड़ी गई थी। इस कारण हमने भी प्रण किया था कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात इस राष्ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए और अपने राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियों का पुनर्निर्माण करेंगे। इसमें आस्तिकता का सवाल नहीं आता। हम तो नास्तिक हैं ही, किन्तु मूर्ति भंजन का काम राष्ट्रीय अपमान के प्रतीक के रूप में किया गया और इसलिए राष्ट्रीय पुन: स्थापना के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया है। आक्रामक या साम्राज्यवादी राष्ट्र लोगों में हीनता का भाव निर्माण करने के लिए इसी तरह की योजना करते रहते हैं। इसका इतिहास गवाह है। इतिहास इसका भी साक्षी है कि उस राष्ट्र के लोग यदि प्रखर राष्ट्रभक्त हैं तो राष्ट्रीय सम्मान को प्रकट करने के लिए फिर से मूर्तियों को बनाते हैं और उनकी पुनर्स्थापना करते हैं। फिर वे राष्ट्रभक्त आस्तिक रहें या नास्तिक। राष्ट्रीय अपमान को धो डालने का ही प्रश्न उनके सामने रहता है।'

http://www.vhv.org.in/story.aspx?aid=3493

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