मंगलवार, 30 अगस्त 2011

हर कदम में सीख


स्वामी विवेकानंद को शिकागो की धर्मसभा में भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। स्वामी विवेकानंद के गुरू रामकृष्ण परमहंस का देहांत हो चुका था। इसलिए इस यात्रा पर जाने से पहले उन्होंने गुरू माता शारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्म पत्नी) से आशीर्वाद लेना आवश्यक समझा। वे गुरू माता के पास गए और उनके चरण स्पर्श किए। शारदा माता को बताया कि भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए अमरीका से उन्हें आमंत्रण मिला है। यात्रा पर जाने से पहले वे उनका आशीर्वाद लेना चाहते हैं।
मां शारदा ने कहा कि आशीर्वाद के लिए कल आना। मैं पहले यह तो देख लूं कि तुम इसके लिए योग्य हो भी या नहीं उन्होंने कहा कि बिना सोचे- विचारे मैं किसी को आशीर्वाद नहीं दिया करती।
विवेकानंद सोच में पड गए। गुरू माता के आदेश का पालन करते हुए दूसरे दिन फिर उनके पास गए। तब मां शारदा रसोई घर में थीं। विवेकानंद ने कहा, मां मैं आशीर्वाद लेने आया हूं। मां शारदा ने कहा, "ठीक है पहले तुम मुझे वह चाकू उठाकर दो। मुझे सब्जी काटनी है।" विवेकानंद ने पास पडे चाकू को उठाकर विनम्रतापूर्वक मां शारदा की ओर बढाया। चाकू लेते हुए मां शारदा ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा "जाओ मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम अपने उद्देश्य में अवश्य सफल होगे। तुम्हारी सफलता में मुझे कोई संदेह नहीं है।"
विवेकानंद हतप्रभ हो गए। उनकी समझ में नहीं आया कि गुरू मां के आशीर्वाद और चाकू उठाने के बीच ऎसा क्या घटित हो गया शंका निवारण के उद्देश्य से उन्होंने गुरू मां से पूछ ही लिया कि उन्होंने आशीर्वाद देने से पहले मुझसे चाकू क्यों उठवाया था। तब मां शारदा ने कहा कि "तुम्हारा मन देखने के लिए ऎसा किया था। प्राय: जब भी किसी व्यक्ति से चाकू मांगा जाता है, तो वह चाकू की मूठ अपनी हथेली से पकडता है और चाकू के धार वाले हिस्से को दूसरे के समक्ष करता है। मगर तुमने ऎसा नहीं किया। तुमने चाकू की धार को अपने हाथ में रखा और मूठवाला सिरा मेरी तरफ बढाया। यही तो साधु का मन होता है, जो सारी आपदा को स्वयं झेलकर भी दूसरे को सुख ही प्रदान करना चाहता है। वह भूल से भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहता है। अगर तुम साधुमन नहीं होते, तो तुम्हारी हथेली में भी चाकू की मूठ ही होती।"
भारत भूमि को दण्डवत प्रणाम
स्वामी विवेकानंद लगभग चार वर्ष तक विदेश में रहे। वहां उन्होंने लोगों के मन में भारत के बारे में व्याप्त भ्रमों को दूर किया तथा हिन्दू धर्म की विजय पताका फहरायी। जब वे भारत लौटे, तो उनके स्वागत के लिए रामेश्वरम के पास रामनाड के समुद्र तट पर बहुत बडी संख्या में लोग एकत्र हुए। उनका जहाज जैसे ही दिखाई दिया, लोग उनकी जय-जयकार करने लगे, पर स्वामी विवेकानंद ने जहाज से उतरते ही सबसे पहले भारत भूमि को दंडवत प्रणाम किया। फिर वे हाथों से धूल उठाकर अपने शरीर पर डालने लगे, जो उनके स्वागत के लिए फूल-मालाएं आदि लेकर गए थे वे हैरान रह गए। उन्होंने स्वामी विवेकानंद से इसका कारण पूछा। उन्होंने कहा- "मैं जिन देशों में रहकर आ रहा हूं, वे सब भोगभूमियां हैं। वहां के अन्न-जल से मेरा शरीर दूषित हो गया है। अत: मैं अपनी मातृभूमि की मिट्टी शरीर पर डालकर उसे फिर से शुद्ध कर रहा हूं।"
अंग्रेज ने माफी मांगी
एक बार किसी अंग्रेज ने हिंदुओं का उपहास करते हुए स्वामी विवेकानंद से कहा-हिंदू बेजान पत्थरों को भगवान कह कर पूजते हैं, यह कैसी आस्था है स्वामी विवेकानंद ने तब तो प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा। वे जानते थे कि उसकी दृष्टि पर अहं का पर्दा पडा हुआ है। फिर अहं के बिना उपहास कैसे संभव है। अगले ही दिन स्वामी विवेकानंद उस अंग्रेज के घर गए। दीवार पर उसके पिता का चित्र था। विवेकानंद बोले-आपने यह कागज का टुकडा दीवार पर क्यों चिपका रखा है यह अच्छा नहीं लग रहा है। अंग्रेज क्रोध से बोला-यह क्या कह रहे हैं। ये मेरे पिता हैं। फिर स्वामीजी ने कहा कागज का टुकडा आपका पिता कैसे हो सकता है अंग्रेज को अपनी बात याद आ गई। उसने स्वामी विवेकानंद से क्षमा मांगी।
मुकाबला
स्वामी विवेकानंद बनारस की गलियों से गुजर रहे थे। तभी एक बंदर उनके पीछे दौडा। स्वामी विवेकानंद भागने लगे। बंदर उनके पीछे पड गया। सारा दृश्य देख रहे एक साधारण से व्यक्ति ने स्वामीजी को हिम्मत बंधाते हुए कहा, भागते क्यों हो, पीछे मुडकर मुकाबला करो। स्वामीजी पीछे मुडकर खडे हो गए। बंदर भाग खडा हुआ। स्वामी विवेकानंद लिखते हैं कि "इस घटना का मेरे ऊपर बडा प्रभाव पडा। उस साधारण से आदमी ने मुझे यह सीख दी कि जब विपत्तियां या मार्ग में रोडे आएं तो उनसे पीछा नहीं छुडाना चाहिए। अपितु उनका मुकाबला करना चाहिए। जीवन में सफलता का यही मंत्र है।"
गुरू सेवा
यह उस समय की बात है जब विवेकानंद के गुरूदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस कैंसर से पीडित थे। उनके गुरूभाइयों के बीच यह बात फैल गई थी कि कैंसर छुआछूत की बीमारी है। वे भी इससे प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए वे रामकृष्ण परमहंस की सेवा करने से नाक भौंह सिकोडते व दूर रहते थे। इसका पता जब स्वामी विवेकानंद को चला तो उन्होंने परमहंस की खूब सेवा की। इस तरह विवेकानन्द ने अपने गुरूभाइयों को यह पाठ पढाया कि न तो छुआछूत से बीमारी फैलती है और न ही कोई प्रभावित होता है। यदि ऎसा होता, तो वे भी प्रभावित होते। स्वामीजी की अपने गुरू के प्रति ऎसी अनन्य भक्ति और निष्ठा देखकर उनके अन्य गुरूभाइयों का ह्वदय परिवर्तन हुआ।

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