बुधवार, 31 अगस्त 2011

जीव हिंसा जग में बुरी

प्रसिद्ध जैन मुनि जब युवा थे, तो उनका विवाह हो रहा था। जब बारात का जुलूस ठाटबाट से निकल रहा था, तो दूल्हे महाशय अपनी जीवन-संगिनी राजुल की कल्पना के सुख-स्वप्नों में तन्मय थे। तभी पशुओं की करुण चित्कार ने उनके स्वप्न को भंग कर दिया।

उन्होंने सारथी से पूछा, “खुशी के इस अवसर पर आर्तनाद कैसा ?” सारथी ने बताया, “कुमार! यह उन निरीह पशुओं की चित्कार है, जिनका आपके विवाह में आये हुए म्लेच्छ राजाओं के भोज के लिए वध किया जाएगा।”

ऐसा सुनते ही कुमार के मुख से आह निकल आई। उन्होंने सारथी को रथ रोकने का आदेश दिया। दूसरे ही क्षण बारातियों ने देखा कि नेमिकुमार स्वयं ही पशुओं के बन्धन खोलकर उन्हें मुक्त कर रहे हैं। उन्होंने अपने हाथ का कंगन भी खोल डाला और वहां से निकल पड़े। अब से वे बाहर भीतर की सारी गाँठें खोलकर परम-निर्ग्रन्थ हो गए, अर्थात; भोग से योग की ओर उन्मुख हो गए। उन्हें देखकर राजुल ने भी दूल्हन का श्रृंगार उतार दिया और श्वेत वस्त्र पहने, जीवन के चरम फल की प्राप्ति के लिए गिरनार पर्वत की ओर बढ़ चली।

कहानी से प्रेरणा
सृष्टि के सभी प्राणियों में एक ही आत्मा का वास है। उनकी हत्या करना पाप है। इसलिए हिंसा नहीं करनी चाहिए।

(संदर्भ : प्रेरक प्रसंग, लेखक - शरद चंद्र पेंढारकर)

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