मंगलवार, 30 अगस्त 2011

विवेकानंद को मिल गया सही उत्तर

एक बार स्वामी विवेकानंद अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस के साथ आश्रम में शास्त्रों पर चर्चा कर रहे थे। चर्चा के दौरान परमहंस ने कहा, "तुम्हारी याददाश्त बहुत तेज है। तुम एक बार जिस चीज को पढ़ लेते हो, वह तुम्हें कंठस्थ हो जाता है।"
अपनी प्रशंसा सुनकर विवेकानंद बोले, "मगर गुरूवर, एक बात समझ में नहीं आती कि बहुत से संत, विद्वान और पुजारी वेद-पुराणों का अध्ययन करते पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं, फिर भी उनका ज्ञान अधूरा क्यों रह जाता है।" परमहंस ने कुछ सोच कर कहा, "मेरे साथ चलो आश्रम के बाहर।" दोनों बाहर आ गए। परमहंस ने कहा, "यहां तुम्हें कौन सी चीज सबसे अच्छी लग रही है?" विवेकानंद ने कहा, "यहां तो सभी चीजें प्रिय हैं गुरूदेव। चारों ओर पेड़ों पर चिडियां चहचहा रही हैं। फूलों पर तितलियां मंडरा रही हैं। भौंरे गुनगुना रहे हैं।" परमहंस ने फिर कहा, "देखो, बहुत ऊंचाई पर आकाश में कुछ चील और गिद्ध उड़ रहे हैं। क्या बता सकते हो, उन्हें यहां की कौनसी चीज अच्छी लगती होगी?" विवेकानंद को चुप देख परमहंस ने कहा, "जिन्हें तुम सुंदर समझते हो, वे ही दूसरों के लिए असुंदर हो सकती हैं। जिसे तुम घृणित मानते हो, वही दूसरों के लिए प्रिय हो सकती हैं। यही प्रकृति का नियम है। आकाश में उड़ रहे चील और गिद्धों की दृष्टि आश्रम के सजीव वातावरण पर नहीं, बल्कि पास में मरे हुए जानवरों पर टिकी रहती है। उसी तरह जिन संतों की बातें तुम कह रहे हो, उनकी दृष्टि ज्ञान पर नहीं, बल्कि अधिक सुख-सुविधा जुटाने पर टिकी होती है। जिनका मन हमेशा सुविधाओं में लगा रहेगा, उनका ज्ञान भी अधूरा ही रहेगा। ज्ञान तो इंद्रियों को वश में रख कर एकाग्र चित्त से मनन और अध्ययन करने से मिलता है।" विवेकानंद को उनके प्रश्न का उत्तर मिल गया।

http://www.dailynewsnetwork.in/news/vyavahar/07072010/Vyavahar/13619.html

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